Sunday, September 27, 2015

माहेश्वर तिवारी का साक्षात्कार

== विमर्श 07 ==

माहेश्वर तिवारी का साक्षात्कार दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है। यश मालवीय के साथ नवगीत पर बात करते हुए माहेश्वर तिवारी ने कहा है कि " कवि सम्मेलन जन से जुड़ने का एक सशक्त माध्यम है। मैं मंच से कभी पलायन नहीं करूँगा। कुछ गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है। वैसे आज कवि सम्मेलन की जगह कविता सम्मेलन किए जाने की जरूरत है। जब आप जगह खाली करेंगे तो वह जगह खाली तो रहेगी नहीं, कोई न कोई भांड़, विदूषक या नौटंकीबाज वहाँ काबिज हो जायेगा।"
कहाँ तक सहमत हैं माहेश्वर तिवारी जी की इस बात से कि "कुछ गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है..."
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जगदीश व्योमजी, पिछले दिनों विमर्श के समूह में इन्हीं विन्दुओं पर हम सबने खुल कर बातें की थीं, आ. माहेश्वर तिवारीजी का उन विशिष्ट विन्दुओं पर तार्किक तौर पर स्पष्ट होना संतुष्ट करता है।
-सौरभ पाण्डेय
August 24 at 10:10am 
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जी सौरभ जी, माहेश्वर तिवारी जी ने प्रकारान्तर से उसी विमर्श को आगे बढ़ाया है इस साक्षात्कार के माध्यम से
डा० जगदीश व्योम
August 24 at 10:12am 
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सत्य कहा आपने. मैं तो हैरान हूँ कि यशजी के प्रश्नों पर जिस तरह से आ. माहेश्वरजी ने विन्दुवत बातें की हैं इस तरह से आजकी तारीख में बोलने वाले कम रह गये हैं. जो हैं, उन्हें प्रकारान्तर से न सुनने का हठ पाल लिया गया है. 
आपने जिस तरह से उक्त विमर्श को इस समूह में इनिशियेट किया. ’जागरण’ में छपा यह साक्षात्कार उसी का विस्तार सदृश है।
-सौरभ पाण्डेय
August 24 at 11:20am 
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जगदीश व्योम जी ! माहेश्वरी तिवारी जी का साक्षात्कारः पढ़ा ! माहेशवर जी वे नहीं बात कही है जो मैंने अपनी पोस्ट में कही थी जिसकी। वजह से मुझे 'ये कौन न्यायाधीश हैं' जैसी उपाधि से विभूषित होना पड़ा ! ख़ैर , माहेशवर जी वे सही कहा है कि मंच गीत/कविता का सशक्ति माध्यम है ! उन्होंने बहुत सटीक बात कही कि चुटकुलेबाज और नौटंकीबाज़ अपना काम करते हैं आप अपना ! आप उन्हें रोक नहीं सकते ! आदरणीय , यदि उन माध्यमों से नवगीत अपने को दूर रखेगा जो श्रोताओं तक पहुँचे का सीधा रास्ता है तो हम अच्छे साहित्य के लिये दूसरों से डर कर नयी राह क्यों तलाशे बल्कि इस कोशिश में लगे कि हल्की बात कहने वाले हमारी राह से घबरा कर पलायन करें 'मेरे रस्ते तो जंगल से ही गुज़रते है , तुझे तकलीफ़ है तो राह बदल सकता है ! ' गीत/कविता की राह इतनी आसान भी नहीं कि जब चाहा क़लम उठायी और लिख मारा !
-के के भसीन
August 24 at 2:19pm 
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 तिवारी जी ने नवगीत के समकालीन परिदृश्य पर चुप्पी साधते हुए नई पीढ़ी के जो नाम गिनाये हैं वे कहीं इरादतन तो नहीं है? कहीं इससे यह संकेत तो नहीं होता कि नवगीत में भेड़ों की तरह गुट बनाकर चलने की परंपरा मौजूद है?
-अवनीश सिंह चौहान
August 24 at 5:24pm 
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 यह साक्षात्कार नवगीत पर एक सार्थक चर्चा कहा जा सकता है। एक गीतकार की दृष्टि से लिया गया यह साक्षात्कार स्वाभाविक भाव से संवेदनाओं को ही अधिक महत्त्व देता है।इस साक्षात्कार में नवगीत को समकालीन कविता के समकक्ष चिंतन वाली विधा तो माना गया है पर समकालीन कविता की मूल प्रवृत्तियों जैसे उत्तर आधुनिकता और नव उदारवादी प्रवृत्तियों को उपेक्षित ही रहने दिया गया है। लेकिन फिर भी नवगीत पर काफ़ी कुछ समेटने की कोशिश यहाँ दिखती है जो स्वागत योग्य है। माहेश्वर तिवारी जी नवगीत को जीते ही नहीं उसे जीवन भी देते हैं।वैसे सभी गीत नवगीत अंतःसलिला से ही फूटते हैं पर इनके तो और गहरे अंतस्तल के ऐसे किसी पाताल तोड़ कुएं को भेद कर आते हैं कि उनके उत्स का छोर ही नहीं मिलता।इन्हें और इनके नवगीतों को अलगाना मुश्किल है। इन्हें-उन्हें परस्पर प्रतिछवियाँ कहा जा सकता है। जैसा कि गीतकार ने स्वयं भी स्वीकारा है और वैसे भी इन्हें पढ़-सुन कर ऐसा लगता है कि जैसे इन्होंने नवगीत नहीं नवगीतों ने इन्हें रचा है।
-गंगा प्रसाद शर्मा
August 24 at 6:04pm 
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तिवारी जी के अपने रचनाधर्म को लेकर अच्छी चर्चा हुई है। नवगीत को लेकर उसके दोहरे संघर्ष को लेकर जिसके वो साक्षी रहे हैं उस पर और बात होती तो अच्छा लगता.उनके समकालीनो को लेकर भी चर्चा होनी चाहिए....इसी प्रकार नवगीत के इतिहास पर कुछ और सवाल हो सकते थे आदरणीय से..अब भाई यश मालवीय ने प्रश्नावली जैसी बनाई हो वैसे ही उत्तर मिलने स्वाभाविक हैं।
-भारतेन्दु मिश्र
August 24 at 6:19pm 
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 केवल प्रशंसात्मक बातें ही यहाँ न लिखिये... यह विमर्श का मंच है..... यहाँ पहले से ही नवगीत के इसी सन्दर्भ पर चर्चा हो रही थी और इसी बीच आज यह साक्षात्कार प्रकाशित हुआ जो विमर्श के विषय से जुड़ा हुआ है इसीलिए यहाँ इसे पोस्ट किया गया है..... यदि कुछ छूट गया है तो उस पर भी दृष्टि डालें.... ऐसे और कौन से प्रश्न हो सकते हैं जिन्हें साक्षात्कार लेने वाले को पूछना चाहिए था परन्तु नहीं पूछा गया..... या आपकी दृष्टि से कुछ और बहुत महत्त्वपूर्ण जो छूट रहा हो.......
-डा० जगदीश व्योम
August 24 at 6:24pm 
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नवगीत में जातिबोध और अंधभक्ति की भी बड़ी भूमिका रही है - उठाने-गिराने से लेकर जय-जयकार करने तक। लेकिन कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो जातिवादी मानसिकता और भक्ति-भावना से ऊपर उठकर सच कहने का साहस रखते हैं। ऐसे सत्यनिष्ठ गुणीजनों को मैं हृदय से नमन करता हूँ। आ. भारतेंदु जी ने एक गंभीर बात कही है कि 'प्रश्नावली जैसी बनाई हो वैसे ही उत्तर मिलने स्वाभाविक हैं।" यानि कि - प्रश्नावली कैसी है और क्यों है, विचारणीय है? और प्रश्नोत्तर देने वाले ने ऐसे प्रश्नों पर अपना मत कैसे और क्यों रखा, जबकि वह वरिष्ठतम नवगीतकारों में से एक हैं?
-अवनीश सिंह चौहान
August 24 at 6:39pm
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पूरा साक्षात्कार पढ़ने पर कई तरह के प्रश्न उभर रहे हैं।पहली चीज तो यह कियश मालवीय ने पृष्ठभूमि को कुछ ज्यादा ही सजा दिया है।सम्मान और प्रशंसा में शब्दों का अलंकरण ऐसा भी न हो कि कविता पीछे छूट जाए और कवि आदमी न होकर बड़़ा आदमी नजर आने लगे।मेघ मंद्र स्वर हवाओं में गूंज रहा है-मुझे नहीं लगता कि माहेश्वर तिवारी या किसी भी समकालीन गीत कवि को ऐसी किसी अलंकारी भाषा की जरूरत है।आज का समय इस भाषा को स्वीकार करने को जरा भी तैयार नहीं।और माहेश्वर तिवारी के गीतों को मानक मानना अभीजल्दबाजी होगी।माहेश्वर तिवारी कहते हैं किगीत लेखन के लिए बहुत भटकना पड़ता हैपर वे भटकते हुए गये कहां?नदी झील पर्वत झरने मरुस्थल के पास वह भी आवारगी करते हुए।आज का नवगीत ऐसी आवारगी कोमान्यता कतई नहीं देता जहां आम आदमी उसकी पीड़ाशोषण अन्यायदिखायी ही न पड़े या बाइचान्स दिखायी भी पड़ जाए तो वहां भी तफरी के लिएजगह बना ली जाए।
-रमाकान्त यादव
August 24 at 9:38pm
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मैं इस बात से तो सहमत हूँ कि खाली जगह को कोई न कोई भरता ही है। चाहे साहित्य हो, चाहे राजनीति या कोई और क्षेत्र। कवि सम्मेलनों में अच्छे गीतों और छंदों को प्रशंसा हमेशा मिलती रही है, बशर्ते वे गीत-छंद समाज से जुड़े प्रासंगिक विषयों पर केंद्रित रहे हों।
-ओम प्रकाश तिवारी
August 24 at 9:59pm
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और यह ठीक ही कहा है तिवारी जी ने किआवारगी का बड़ा सहयोग मिला है उनके गीतों को। तभी तो उनके गीत गुनगुनाने के लिए अधिक हैं तथ्य और सत्य की खोज के लिए कम। उनके गीतआधुनिक पेंटिंग की तरह ही हैं जैसा कि वे कहते हैं कि स्वामीनाथन जी ने उनकी प्रशंसा में कभी कहा था।और ये पेंटिगनुमा गीत कभी न तो ठीक ठीक विचार दे पाते हैं और क्रांतिधर्मा तो होते ही नहीं।माहेश्वर जी जब यह कहते हैं कि गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है तो बात कुछ जचती नहीं।क्या सार्थक कविता मंचों की बदौलत जिन्दा है?सच तो यह है कि आज के मंच ने कविता का व्यापार ही किया हैदिया है तो बस थोड़ा सा मनोरंजन जो कि कोई कीर्तनकार या नौटंकी कार भी अपने तरीके से करता है।हां पहले कवि लोग मंच पर जाते थे पर तब गम्भीर कविता को सुनने सुनानेवाले मौजूद थे।नहीं जनवाद मन से नहीं उपजता जैसा कि माहेश्वर जी कहते हैं।असल में माहेश्वर जी के गीत मन से उपजते हैं।जनवाद तो विचार है दृष्टि है प्रतिबद्धता है।और इन्हीं चीजों का माहेश्वर जी के गीतों में अभाव है।आंखों में आंसू आना औरआंखों से चिंगारी फूटना दो अलग तरह की परिघटनाएं हैंदोनों को कभी कहीं विशेष परिस्थिति में ही जोड़ा जाना चाहिये।व्यक्तिगत भावुकता आशा निराशा प्रेम और सामाजिक सरोकारों के ज्ञानात्मक आवेगों में बड़ फर्क है।माहेश्वर जी उन्हें एक करने की कोशिश में सफल नहीं दिखते।और अंत में नई पीढ़ी केनवगीतकारों के नाम गिनाते हुए भी माहेश्वर तिवारी जी दृष्टि साफ नहीं हैं।ऐसाबुजुर्गगीतकार जिसके पास इतना अनुभव हो ज्ञान हो वह भी किसी मोह में फंसकर जो कुछ नाम गिनारहा है वे किसी भी तरह से विवेकपूर्ण तटस्थ न्यायपूर्ण और तर्क संगत नहीं दिखते।ये चुनाव माहेश्वर जी के गीत व्यक्तित्व को एक और तरह से कमजोर सिद्ध करते हैं।
-रमाकान्त यादव
August 24 at 10:25pm
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माहेशवर तिवारी जी के साक्षात्कारः में अगर ध्यान से मनन करें तो उनकी मन की सहजता का भी पता लगता है ! असल में माहेशवर जी के अन्दर एक सहज गीतकार भी है जो संवेदना एवं गीत के भावात्मक पक्ष से भी जुड़ा है ! उनके साक्षात्कारः में उनका यह पक्ष साफ़ दृष्टिगोचर होता है ! पूरी प्रस्तुति को नवगीत की कसौटी पर ही कैसे देखें?
-के के भसीन
August 24 at 11:46pm
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 नवगीत के लिए समानांतर मंच की आवश्यकता है जिसमे तथाकथित विदूषको की कोई जगह न हो।जहां गंभीर विमर्श हो।2004 मे आगरा की नवगीत गोष्ठी मे मैने सोमठाकुर जी से पूछा था कि नवगीत दशको का विमर्श क्यो नही कराते..वे उनदिनो हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष थे।मंच पर तिवारी जी भी थे यश मालवीय भी थे राजेन्द्र गौतम ,बुद्धिनाथ मिश्र आदि अनेक नवगीतकार भी थे सबने सहमति दी थी स्वीकार किया गया -सस्थान से किसी को यह कार्य सौपने की बात भी हुई लेकिन ..फिर सब खतम .. सोमठाकुर जी नवगीत दशक 1 के रचनाकार हैं उन्हे भी मंच ही खींचता रहा विमर्श नही ।..जो कविता विमर्श के लिए नही है उसकी पाठ्यचर्या क्यो की जाए ?..ऐसे मंचीय कवियो के सरोकार गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुना दास हो जाते है।लोगो की नजर मे सब रहता है ..माया और राम दोनो को साधने की कोशिश असंभव है। जिनकी श्र्द्धा मंचीय प्रपंचो से जुडी है वे सच्चे अर्थो मे नवगीत के मित्र नही हो सकते।शंभुनाथ जी के शब्दो मे वे नवगीत के शत्रु हैं।
-भारतेन्दु मिश्र
August 25 at 7:54am 
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माहेश्वर तिवारी की बात आंशिक रूप से सही है। कुछ अच्छे कवि भी मंच पर पहुचकर मंचीय़ हो गये। कवि सम्मेलनी व्यवसाय का हिस्सा बनने से
उनका स्तर गिरा है। इससे हमें बचना चाहिये।
-राधेश्याम बंधु
August 25 at 9:07am 
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नवगीत की स्वीकारता एवं दर्शकों की जागरूकता में बड़े स्तर पर एक अच्छी सोच पैदा करने की हमारी प्रबल इच्छा और दूसरी तरफ़ अपनी सरहदें खींच कर उन्हीं को प्रवेश देना जो हमारे उसूलों से बँधे हों , हम रेगिस्तान की आँधी में फँस जायेंगे ! अपनी सही दिशा पर विचार गम्भीरता से करें !
-के के भसीन
August 25 at 9:33am 
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हिन्दी संस्थान या अन्य साहित्यिक अकादमियों में जिस तरह की साहित्यिक राजनीति व्याप्त है, उनसे नवगीत के लिए कोई उम्मीद करना समय खराब करना ही है.... हमें ही नवगीत और हिन्दी साहित्य के लिए अपने स्तर से ही जो कर सकते हैं वह करना है, नवगीत विमर्श इसी पहल का एक सोपान है----  "बहते जल के साथ न बह / कोशिश कर के मन की कह " .....
-डा० जगदीश व्योम
August 25 at 9:36am 
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भाई रमाकांत जी ने तिवारी जी के इंटरव्यू के निहितार्थ को बखूबी रेखांकित किया है, वहीं "मंचीय कवियो के सरोकार गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुना दास हो जाते है।लोगो की नजर मे सब रहता है ..माया और राम दोनो को साधने की कोशिश असंभव है। जिनकी श्र्द्धा मंचीय प्रपंचो से जुडी है वे सच्चे अर्थो मे नवगीत के मित्र नही हो सकते।शंभुनाथ जी के शब्दो मे वे नवगीत के शत्रु हैं।"- कहकर आ. भारतेंदु जी ने माहेश्वर जी जैसे उन तमाम लोगो के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि ऐसे लोग नवगीत के 'मित्र' नहीं हो सकते। यानि कि ऐसे लोग सच्चे नवगीतकार नहीं। मुझे लगता है कि आ. राधेश्याम जी ("कुछ अच्छे कवि भी मंच पर पहुचकर मंचीय़ हो गये । कवि सम्मेलनी व्यवसाय का हिस्सा बनने से उनका स्तर गिरा है) ने भी तिवारी जी जैसे मंच से जुड़े रचनाकारों की ओर संकेत किया है। भसीन जी कहते हैं - "असल में माहेशवर जी के अन्दर एक सहज गीतकार भी है". यहाँ भी शब्द विचलन की ओर संकेत करता है। एक बार माहेश्वर जी ने दैनिक जागरण में 'सहज गीत' की वकालत की थी। यह वकालत भसीन जी की मीमांसा से मेल खाती है। तो क्या तिवारी जी को सहज गीतकार माना जाना चाहिए (मंच से उनके जुड़ाव और मंच की डिमांड को ध्यान में रखते हुए)?
-अवनीश सिंह चौहान
August 25 at 11:08am 
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 मंचीय कवि मंच की वकालत ही करेगा और उसके पक्ष में कुछ न कुछ तर्क गढ़ेगा जैसा कि तिवारी जी ने किया है। और यह संवेदना शब्द आजकल अच्छा प्रचलन में है कुछ भी दाल भात इसके नाम पर परोस दिया जाता है। मंच पर जाकर कौन सी जनता से जुड़ना चाहते हैं और कैसी संवेदना बटोरना चाहते हैं। सही क्यों नहीं कहते कि संवेदना के नाम पैसा बटोरना चाहते हैं। बाज़ार में दुकान सजाकर नवगीत बेचने की वकालत कब तक सुनी जाएगी। जनपक्षीय साहित्य और तथाकथित संवेदना युक्त साहित्य में अंतर होता है। जनपक्षीय साहित्य पैसे नहीं देता। उस पर सीटी और ताली नहीं बजती तो जाहिर है पैसे भी नहीं मिलते। तिवारी जी जनता से संपर्क करना चाहते हैं अपने नवगीत सुनाना चाहते हैं तो चलिए किसी गाँव में बाग़ में जमीन पर बैठते हैं और वहीं दो चार को इकट्ठा कर उन्हें अपने नवगीत सुनाते हैं। 
-ब्रजेश नीरज
August 25 at 6:18pm 
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मुझे नहीं लगता कि मंच ही नवगीत के पोषण का सही स्थल है।तिवारी जी हों या अन्य कोई रचनाधर्मी यदि वे मंचों से जुड़े हैं तो उनके अपने निहितार्थ हैं चाहे वो बाज़ारवादी सोच से ग्रसित हों या तथाकथित संवेदना से।
हंस क्यों बगुलों के बीच जाकर बैठने लगा??क्या ये स्वस्थ साहित्यिकता से परे नहीं हुआ??
प्रश्न यह है कि क्या यह साक्षात्कार पूर्व प्रेरित प्रश्नों का समूह तो नहीं।यश जी ने प्रश्नों का जो जाल बुना उत्तर भी उसी दिशा में बहते हुए मंचों की प्रशंसा के सागर में मिल गए।
साक्षात्कार तो तब उत्कृष्ट बनता और तिवारी जी की सटीक सोच का ताना बाना तब खुलता जब प्रश्नकर्त्ता उनका प्रशंसक न होता और मंचीय प्रावधानों की विचार धारा से दूर होता।
विमर्श की धारा को मोड़कर सोचना होगा क्या इस तरह के प्रश्न उत्तर से नवगीतकार के मन में मंचों के प्रति अधिष्ठित उदासीनता को समाप्त करने की चेष्टा तो नहीं?
-अवनीश त्रिपाठी
August 25 at 7:45pm 
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 निश्चित रूप से दुकानदारी को प्रोत्साहित करने का प्रयास है। मंच से जुड़ाव के पीछे पैसे का लालच ही काम करता है भले ही तुर्रा जनता से जुड़ाव का हो। मुझे समझ नहीं आता मंच पर बैठे नशे में टुन्न ये महान साहित्यकार संगीत के आठवें सुर के सहारे कौन सी जनता से कैसा संवाद स्थापित करना चाहते हैं।
-ब्रजेश नीरज
August 25 at 8:18pm 
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 क्या अभी ऐसे कुछ लोग हैं जो मंचों पर लोकप्रिय हैं, जिन्होंने मंचों से खूब पैसा भी कमाया है और उनके अन्दर का नवगीतकार अभी तक जिन्दा है ? यदि ऐसे कोई कवि या कवयित्रियाँ हों तो उनके नाम बतायें ......और उनका एक एक प्रतिनिधि नवगीत भी बता दें.....
-डा० जगदीश व्योम
August 25 at 9:36pm
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Saurabh Pandey क्या मंच का मतलब सिर्फ़ पैसा है ? गोष्ठियों की परम्परा पर बात क्यों न हो ?
-सौरभ पाण्डेय
August 26 at 1:55am 
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सौरभ जी, बात क्या करनी...... बातें तो होती ही रहती हैं...... नवगीत गोष्ठी शुरू कर दीजिये.... देखा देखी कुछ अन्य लोग भी अपने अपने स्तर से ऐसी पहल करने लगेंगे..... हाँ यह ध्यान रखना होगा कि नवगीत गोष्ठियों को मंच के गलेबाजों और दसियों साल से एक दो गीत गाने वालों से बचना चाहिए .....
-डा० जगदीश व्योम
August 26 at 9:43am 
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आपने बिल्कुल सटीक बातें की हैं, जगदीश व्योमजी. मैं इस सार्थक समूह में चल रही चर्चां-टिप्पणियों से निस्सृत बहुत सारे विन्दुओं को उनकी प्रतिच्छाया के सापेक्ष भी देखता हूँ. सब समझ में आता है. 
//अपने तईं हमने नवगीत गोष्ठी शुरु कर दीजिये //
एक शुरुआत हो गयी है. उसकी आवृति को नियत करना है. यह आरम्भिक दौर है, यह भी हो जायेगा. ऐसे ही एक प्रयास के अंतर्गत आप भी दिल्ली के ’विश्व पुस्तक मेला २०१५’ में हुई नवगीत-गोष्ठी का हिस्सा बने थे. 
//यह ध्यान रखना होगा कि नवगीत गोष्ठियों को मंच के गलेबाजों और दसियों साल से एक दो गीत गाने वालों से बचना चाहिए //
गोष्ठियों में ऐसी कोई ’विकलांगता’ तुरत पकड़ में आ जाती है. गले का उपयोग स्वीकार्य है लेकिन नवगीत के शिल्प और कथ्य की कीमत पर नहीं. गोष्ठियों का स्वरूप चूँकि अध्ययनपरक तथा विधासम्मत होता है, अतः वातावरण कभी व्यावसायिक नहीं हो सकता. 
इन्हीं संदर्भों को लेकर मैं इस समूह में अपनी टिप्पणियाँ करता रहा हूँ. अब यह अलग बात है कई ’सज्जन’ मंच का अर्थ उसी मंच से लेते हैं जिसका विरूपीकरण हो चुका है. ऐसे कई सज्जनों को जानता हूँ जो चाहें जितना बोलें, व्यक्तिगत जमावड़े से अलग अन्य किसी ’मंच’ के अनुभव से शायद ही परिचित हों तथा तदनुरूप लाभान्वित हुए हों।
-सौरभ पाण्डेय
August 26 at 12:26pm
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Friday, September 25, 2015

शैलेन्द्र शर्मा के नवगीत पर विमर्श



[ कृपया इस गीत पर विचार करें।क्या इस गीत को लिखते हुए गीतकार ने सम्यक् दृष्टि अपनायी है?निचले तबके को सम्बोधित करते हुए गीतकार किस मानसिकता से ग्रसित है?क्या माना जाए कि गीत नवगीत में सवर्णवादी मानसिकता हावी है?
-रमाकान्त यादव ]

शैलेन्द्र शर्मा का नवगीत-
 -------
रमधनिया की जोरू धनिया
जीत गई परधानी में 
रमधनिया की पौ-बारा है 
आया ' ट्विस्ट ' कहानी में

पलक झपकते कहलाया वो 
रमधनिया से रामधनी 
घूरे के भी दिन फिरते हैं
सच्ची-मुच्ची बात सुनी

लम्बरदार- चौधरी रहते 
अब उसकी अगवानी में

जो बेगार लिया करते थे
आदर से बैठाते हैं 
उसकी बाँछें खिली देखकर
अंदर से जल जाते हैं

तिरस्कार की जगह शहद है 
उनकी बोली-बानी में

पाँच साल के भीतर-भीतर 
झुग्गी से बन गया महल 
उसकी ओर न रुख करते थे 
वे करते हैं आज टहल

अब वह मौज़ लिया करता है 
उनकी गलत- बयानी में

पहले जो डपटा करते थे 
उसे देख मुस्काते हैं 
वही दरोगा वही बी.डी.ओ. 
आकर हाथ मिलाते हैं

आने लगा मज़ा अब उसको 
' ऐय्याशी- दीवानी ' में

-शैलेन्द्र शर्मा 
( " राम जियावन बाँच रहे हैं " से उद्धरित )
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गीत पर विचार करने से पहले इस बात पर विचार करना उचित होगा कि क्या नवगीत विधा में भी अगडा, पिछडा, दलित, स्त्री, सर्वहारा के नाम पर गोलबन्दी किया जाना उचित होगा।
July 10 at 8:12pm

-रमाशंकर वर्मा
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समूचा समाज जातीय मानसिकता के घेरों में कैद है और राजनीति दलों के दलदल में फँसी हुई है.... साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है..... यह नवगीत समाज का एक चित्र उपस्थित कर रहा है। July 11 at 5:30pm

-डा० जगदीश व्योम
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बेहेतरीन नवगीत है, जो अपने सामाजिक सरोकार को जस का तस प्रस्तुत करने मे सक्षम है। रमधनिया के चरित्र का विस्तार(जिसमें उसकी प्रगति / दुर्गति भी शामिल है)हुआ है। शैलेन्द्र शर्मा जी को बधाई इस सुन्दर नवगीत के लिए ।
July 11 at 5:56pm 

-भारतेन्दु मिश्र
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भारतेन्दु मिश्र जी कह रहे हैं कि यह बेहतरीन नवगीत हैऔर मुझे इस पर आश्चर्य हो रहा है।किस लिहाज से यह बेहतरीन नवगीत हो सकता है?रमधनिया की जोरू धनिया यह तुक ताल भिड़ाने वाली मानसिकता कौन सी है?क्या किसी उच्च जाति के पात्र को भी इसी अन्दाज में गीतकार ने सम्बोधित किया है?आप कहते हो कि रमधनिया के चरित्र का विस्तार किया गया है जब कि वह सम्बोधन से लेकर प्रस्तुतीकरण तक गीतकार के व्यंग्य वाणों की चुभन के बीच है।रमधनिया की पौ बारा है -इसका क्या मतलब?मतलब गीतकार को यह सहन नहीं हो रहा है?कुछ पाने पर खुशी किसको नही होती?रमधनिया को भी है तो किसी को इतना क्यों खले कि पौ बारा जैसा वाहियात मुहावरे का वह इस्तेमाल करे।जमीनी सच्चाई तो यह हा कि अधिकतम दलित प्रधान स्वतंत्र होकर काम नही कर पाते।वे सदैव किन्हीं पंडित जी या ठाकुर साहब के दबाव में ही काम करने को लाचार हैं।कोई स्वतंत्र होकर काम करना चाहे तो उसके खिलाफ हजार साजिशें हैं हथकंडे हैं।यह झूठ है अतिरंजना है कि लम्बरदार चौधरी उसकी अगवानी में रहते हैं।अभी स्थितियां इतनी नही बदली हैं।आपको परेशानी यह भी है कि उस दलित ने पांच साल में महल खड़ा कर लिया।महल कहां किसने खड़ा कर लिया?आप खड़ा करने दोगे तब ना?झुग्गी की जगह घर बना लिया कहते तो भी ठीक था।जो सदियों से महल खड़ा करते रहे और अब भी कर ही रहे है उन पर किसी की दृष्टि नहीं जाती।और रमधनिया कोअंत में ऐसा पटका गीतकार ने कि आने लगा मजा अब उसकोऐय्याशी दीवानी में।नही ;गीतकार ने जानबूझकर रमधनिया को यहां तक गिराया है।गीतकार इस पात्र के प्रतिपक्ष में शुरू से खड़ा हुआजान पड़ता है।उसकी अपनी मर्जी कि वह जिसको जहां चाहे गिरा दे?मैं फिर कह रहा हूं कि पीढ़ियो से जो ऐय्याशी कर रहे हैं उनकी तरफ हमारी दृष्टि क्यों नहीं जाती?और यह भी कहां तक उचित है कि हम या कि हम जिनकी पैरवी में हैं वे मौज मस्ती ऐय्याशी का जीवन जियें और दूसरों से हम अपेक्षा करें कि वे त्याग तपस्या में आदर्श उपस्थित करें।अफसोस है कि गीत नवगीत ने दलित साहित्य केपुरजोर हस्तक्षेप के बावजूद अभी सामंती रुख ही अपनाये रखा है।अगर कही कुछ है भी तो कृत्रिम बनावटी असंतुलित।क्या कोई दलित या दलित साहित्यकार इस गीत को पसन्द करेगा?मगर आप उनकी चिन्ता क्यों करेंगे?
July 12 at 11:14am 

-रमाकान्त यादव
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आ.राम शंकर जी बृजनाथ जी जगदीश व्योम जी भारतेन्दु मिश्र जी आप सब की सारगर्भित टिप्पणी के लिये बहुत-बहुत हार्दिक आभार
July 12 at 1:44pm 

-शैलेन्द्र शर्मा
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रमाकांत जी जरा किसी दलित बहुल गांव मे /आदर्श गांव मे जाकर देखें/जहां के प्रधान दलित हैं या उनकी पत्नियां प्रधान हैं।वे सब मनुवादी /सामंतवादी आचरण वाले हो गए हैं कि नही..यह भी देखने की बात है।तमाम ब्रहमण नेताओ को बहन जी के पांव छूते आपने न देखा हो मैने देखा है।..तो मेरा पैतृक गांव दलित बहुल है।मैने सीतापुर,ललितपुर,उन्नाव,हरदोई,लखनऊ आदि के गांव देखे हैं वहां रहा हूं नौकरी की मजबूरी से।अब सब जगह बदलाव आ चुका है कहीं कम कहीं ज्यादा।मेरा अवधी उपन्यास भी इसी तरह के चरित्रो प आया है -नईरोसनी-..खैर हर रचनाकार का अपना अनुभव क्षेत्र होता है ।केवल रायबरेली या एक जगह रहकर जाति समस्या पर या उसके आकलन पर टिप्पणी करना उचित नही है।सत्ता मिलते ही मनुष्य सामंतवादी/मनुवादी आदि हो ही जाता है।
July 12 at 8:22pm 

-भारतेन्दु मिश्र
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 पूर्वाग्रह रहित होकर ही किसी रचना पर सार्थक टिप्पणी की जा सकती है। नवगीतकार ने नवगीत के मुखड़े में ही "आया ट्विस्ट कहानी में"' कहकर तथाकथित सामाजिक परिवर्तन की ओर संकेत किया है। राजनीति और समाजसेवा अब सिर्फ जेब भरने और ऐय्यासी के लिए है। यह सर्वविदित है। बड़ी कुर्सियों से होते हुए सत्ता का नशा अब गाँव पंचायत की चौपाल तक चढ़ गया है। कुर्सी और नशा दोनों जातिनिरपेक्ष हैं। रमधनिया तो एक प्रतीक मात्र है उस परिवर्तन का, जिसमें वही लिप्साएँ और भोकाल की प्रव्रत्ति घर कर गयी है, जिसके लिए पूर्ववर्ती को पानी पी कर कोसा था। निचले तबके का जनप्रतिनिधि अगर अपने पद का दुरुपयोग कर सरकारी धन की बंदरबांट करता है, तो उसका यह कहकर बचाव नहीं किया जा सकता कि पीढ़ियों से अन्य लोग भी यही कर रहे थे और यह उसका नैसर्गिक और मौलिक अधिकार है। रबड़ी देवी को राबड़ी देवी कह देने से मात्र से किसी की प्रतिष्ठा में चार चाँद नहीं लगते। अगर उसमें नैतिक गुण हैं तो वह रबड़ी देवी होकर भी प्रतिष्ठित है। नवगीत में कटु यथार्थ है, और यह समय को व्यक्त करने में सक्षम है।
-रमाशंकर वर्मा
July 13 at 1:55pm 

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 यह विमर्श व्यक्तिगत आक्षेप की ओर जा रहा है..... इसे कृपया यहीं बन्द करें...... सभी से अनुरोध है कि विमर्श नवगीत पर केन्द्रित रखें..... व्यक्तिगत टीकाटिप्णी से बचें.....
-डा० जगदीश व्योम
July 13 at 3:39pm 
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नवगीत में नवता - गेयता दो अपरअधिकार िहार्य तत्व होने चाहिए। वे दोनों इस नवगीत में हैं. नवगीत का कथ्य चौंकाता है चूंकि अब तक यह प्रवृत्ति कम रचनाओं में सामने आई है. अपने सेवाकाल में कितने ही विधायक पतियों, सरपंच पतियों और पार्षद पतियों से सामना हुआ है. अपनी ही पत्नी से उसके पद के अधिकार संविधानेतर तरीकों से छीन लेना, पत्नी के पद की सरकारी मुहर अपनी जेब में रखना, उसके हस्ताक्षरों के जगह खुद हस्ताक्षर करना और उसकी जगह खुद बैठक में पहुँच जाना इस युग का सत्य है. इस प्रवृत्ति के विरुद्ध प्रधान मंत्री भी बोल चुके हैं. तुलसी के अनुसार प्रभुता मद काहि मद नाहीं …। अपने अधिकारों की रक्षा हेतु गुहार लगानेवाला अन्यों के अधिकार छीनने लगे यह कैसे स्वीकार्य हो? नवगीत में कहीं किसी पर कोई आक्षेप नहीं है. तथाकथित शोषितों द्वारा सत्ता मिलते ही अपने ही वर्ग के कमजोर लोगों का शोषण न्ययोचित कैसे माना जाए? नवगीत को दुर्बलतम के हित में खड़ा होना ही चाहिए.
-संजीव वर्मा सलिल
July 14 at 10:23am 
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 भाई सलिल जी सत्य वचन ।माना भारत का अतीत सामाजिक संगठन की दृष्टि से स्वस्थ नहीं कहा जा सकता किन्तु उन्हीं अपमूल्यों की पुनरावृत्ति को भी उचित नहीं कहा जा सकता ।अतीत में "अ"ने "ब"का शोषण किया । समय बदला अब "ब" के द्वारा "अ"का शोषण किया जाने लगा। उचित तो तब होता जब "ब"इतना दबाव बनाता कि "अ"शोषण से बाज आता और "ब"स्वयं शोषण न करता ।किन्तु न पहले और न आज ही समाज और समसयाओं से किसी को लेना देना है ।सभी क्षेत्रों में अवमूल्यन का एकमात्र कारण येनकेन प्रकारेण सत्ता छीनना भोगना और निपोटिज्म के एजेंडे पर काम करना भाड़ में जाय देश जनकल्याण और मानवता ।सब खेल जर जोरू जमीन की लूट का है ।अपराध जितने अधिक होगें जनता को प्राणरक्षा की उतनी ही समस्या होगी और जितनी अधिक समस्या होगी अपनी समसयाओं में उलझी रहेगी तथा दबाव में रहेगी और सत्ता भोग निष्कंटक चलता रहेगा।भाई अधिकार सुख बड़ा ही मादक होता है। सत्ता सुख चाहने वालों का एक उद्देश्य और एक ढंग होता है ।जाति धर्म के भेद के बिना।
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव
July 14 at 5:46pm 
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 होते हुए सामाजिक परिवर्तन को हूबहू परिलक्षित करता सार्थक नवगीत !बधाई भाई शैलेन्द्र जी !
-रामेश्वर प्रसाद सारस्वत
July 14 at 8:01pm 
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अवनीश सिंह चौहान उपर्युक्त टिप्पणियों को पढ़कर मुझे लगता है कि साहित्य की आलोचना करना इतना आसान नहीं। यहाँ ज्यादातर साहित्यकार अपनी-अपनी ढपली बजा रहे हैं। काश इनमें से दो-तीन भी ठीक से आलोचनाएँ होती तो यह बहस सार्थक होती।
-अवनीश सिंह चौहान
July 15 at 10:37am 
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समसामयिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण. सटीक अभिव्यक्ति...सुंदर नवगीत...
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
July 15 at 5:09pm 
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वर्तमान राजनैतिक जीवन का यथार्थ चित्रण है, इसे किसी जाति या वर्ग से न जोड़ा जाय तोअच्छा है।
बसन्त शर्मा
July 17 at 9:35pm
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आदरणीय भाई श्री अवनीश सिंह चौहान जी निवेदन है कि सार्थक आलोचना करके मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करें। ताकि कुछ मानक और सीमाएं निर्धारित हो सके और आलोचना की दिशा तय की जा सके। धन्यवाद
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव
July 18 at 8:13am 
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 यादव जी यह तो व्यंग है और सत्ता का चरित्र उघरता है......मुझे नहीं लगता कोई भी सच्चा रचनाकार सवर्ण या कुछ और होता वह केवल मूल्यों के साथ खड़ा होता है।
-वेद शर्मा
July 19 at 7:45pm 
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पर सच्चे रचनाकार हैं कितने?जाति धर्म से परे होना इतना आसान है क्या?गीत में एक दलित पात्र को जिस तरह सम्बोधित किया गया है क्या किसी सवर्ण को भी ऐसे ही सम्बोधित किया है? मैं कहता हूं सारे रचनाकार जातिवादी हैं।जो होते हुए भी नहीं मानते हैं वे पाखंडी हैं।पाखंडी होना ही सबसे बुरा है।
-रमाकान्त यादव
July 19 at 7:56pm
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आप या मैं कुछ भी कहें पर उसके पीछे वस्तुनिष्ठताहोनी चाहिए ...कवि शायद कहनाचाह रहा है कि माया आते ही नाम सम्बोधन बदल जाते हैं सत्ता मिलतेह ी आदमी वही करने लगता है जिसके लिये वह दूसरों को कोसता है ....
-वेद शर्मा
July 19 at 8:54pm 
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 गीत में कोई दलित पात्र है ऐसी तो कहीं कोई बात नहीं कही गई है ।हाँ यह जरूर बताया गया है कि सत्ता का नशा और अधिकार सुख बड़ा ही मादक होता है येन केन प्रकारेण उसे पाकर यह दो टाँग का आदमी नामक जानवर मानवता के प्रति कितना हिंसक और अवमूल्यित हो जाता है यह पढ़े लिखे और अनपढ़ किसी से छिपा नहीं यह मद ही समाज में फैली अधिकां अव्यवस्थाओं की जड़ है और इस मद का समर्थक है निपोटिज्म।यह मद अगड़े पिछड़े दलित के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ होता है ।हाँ यह मद शंकर गौतम बुद्ध महावीर स्वामी कबीर महात्मा गाँधी लालबहादुर शास्त्री पर नहीं सवार हुआ ।सबसे अधिक मदमस्त था देवराज इंद्र ।और आज हर गली कूंचे में इंद्र की औलादें घूम रही हैं ।
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव
July 20 at 8:09am 
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Ramakant Yadav बृजनाथ जी क्या आप अपने अलावा सब को मूर्ख समझते हो?रमधनिया की जोरू धनिया क्या ठाकुर है ब्राह्मण है श्रीवास्तव है ?आप लोग सदा ही औरों को मूर्ख बनाते आये हो और यही अब भी कर रहे हो।उपदेश देने में बड़ी बड़ी बातें करने में आप सब बहुत निपुण हो।मैं देख रहा हूं कि एक भी व्यक्ति ने मैने जो सवाल उठाये हैं उन पर विचार नहीं किया।तो यह किस तरह की मानसिकता है?कोई अन्य विधा होती तो ऐसी प्रस्तुति को शायद बहुमत न मिलता।पर गीत नवगीत अभी भीपिछली शताब्दियों में जी रहा है।शोषितों को अभी मुश्किल से मौका मिलना शुरू हुआ है कि हम उन्हें गरियाने लग गये।हम यह नही देखते कि व्यवस्था अभी भी हमारी बनायी हुई चल रही हैऔर हर अव्यवस्था में हमारा भी कहीं न कहीं हाथ है।हम यह नहीं कहते कि कोई दलित बुरा नहीं हो सकता पर उसका चित्रण करते हुए हमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है।हमें समय और समाज को समग्रता से देखना परखना होगा।वंचितों को एकदम से दोष देना ठीक नहीं।हम उनको गरियाने का भी तरीका सीखें।पहले स्वयं पूर्वाग्रह से मुक्त हों तब दूसरों को कहें।जब गीतकार अपनी प्रस्तुति में पूर्वाग्रह से युक्त दिखता है तो वह अपनी प्रस्तुति और दूसरों के साथ कैसे न्याय कर पायेगा।
-रमाकान्त यादव
July 20 at 9:16am 
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अवनीश सिंह चौहान आदरणीय भाईसाहब बृजनाथ श्रीवास्तव जी, मुझे यह कहते हुए बहुत कष्ट हो रहा है कि आप आदरणीय रमाकांत जी द्वारा की गयी सार्थक आलोचना को ही स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उनके द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर भी आपके पास नहीं है। दुखद यह भी कि आपके गुट के तमाम लोग आँखों पर पट्टी बांधकर यहाँ टिप्पणी कर रहे हैं। मुझे तो लगता है कि इस गीत को लेकर आपकी दृष्टि ठीक नहीं है, या आप अपनी दृष्टि को 'सार्वभौमिक सत्य' मानकर चल रहे हैं। ऐसे में यदि मैंने कुछ लिख दिया तो आप कैसे मेरी बात समझ पाएंगे।
-अवनीश सिंह चौहान
July 20 at 10:05am 
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Ramshanker Verma विमर्श के नाम पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप उचित नहीं है। नवगीत में सहज सम्प्रेषण और कथ्य पारदर्शी है। विमर्श भी उसी पर आधारित है। कौन किसके गुट में है, यह मेरी समझ से परे है। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि पुराने मुहावरों का प्रयोग करने में सावधानी बरतने की जरूरत है। घूरे के दिन बहुरने में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को आपत्ति क्यों होगी। हाँ एतराज की बात तब अवश्य होती जब उसे घूर बने रहने की वकालत की जाए। दूसरा "'घायल की गति घायल जाने की जिन घायल होय"' यह भी सत्य है। पीड़ा, लांछन, तिरस्कार का भुक्तभोगी अपनी अन्तर्व्यथा जिन शब्दों में व्यक्त कर सकता, उसी तरह कोई दूसरा व्यक्त करने में सक्षम नहीं हो सकता। पर वह कवि भी हो जरूरी नहीं। उसकी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए समाज के किसी भी वर्ग का संवेदनशील व्यक्ति आगे आ सकता है। सवाल यह है कि निचले तबके के प्रतीक शब्द "'रम धनिया'"' का प्रयोग क्या नवगीत में असंसदीय है। दूसरा आक्षेप इसके कथ्य को लेकर है कि ऐसे चित्रण में सावधानी की आवश्यकता है। तो यह सावधानी और चुनौती तो रचनाकार को हर स्तर पर है।
-रमाशंकर वर्मा
July 20 at 1:06pm 
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अवनीश सिंह चौहान मैंने जिस गुटबंदी की ओर संकेत किया था उसकी एक परत खुलकर आई। अभी कई और परतें हैं जो सामने आएंगी।
-अवनीश सिंह चौहान
July 20 at 1:45pm 
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Ramshanker Verma छींटाकशी से इस विमर्श में कोई सार्थक मंतव्य नहीं निकलेगा।
-रमाशंकर वर्मा
July 20 at 2:22pm 
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 शैलेन्द्र शर्मा जी के गीत 'रमधनिया की जोरू धनिया 'पर बहस में रमाकांत यादव जी द्वारा जो प्रश्न उठाये गए हैं उन पर बहस में भाग लेने वाले टिप्पणीकारों ने एक का भी समुचित उत्तर नहीं दिया है बल्कि गीत में प्रयुक्त 'आया ट्विस्ट कहानी में' को चरितार्थ करते हुए गीत की अनुकूल व्याख्या की जा रही है। कोई भी रचनाकार अपने समय से निरपेक्ष नहीं रह सकता एवं परिस्थितियों के संघात से चेतना में हुए परिवर्तन के अनुसार उसकी मानसिकता ,मंतव्य और प्रतिबद्धता निर्मित होती है। रचनाकार के लेखन में उसी चेतन -अवचेतन मानसिकता की अभिव्यक्ति होती है। भारतीय समाज व्यवस्था पतनोन्मुख सामन्ती और विकासशील पूंजीवादी मूल्यों के दौर से गुजर रही है। जिसमें वर्ग और वर्ण के मूल्य समाज के हर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के अनुसार चेतना पर हावी रहते हैं। प्रगतिगामी सोच वाला मनुष्य अपने अध्ययन ,सामाजिक संपर्क और स्वविवेक से अपने मंतव्यों और मानसिकता को बदलने में सफल हो जाता है जिसे वर्गहीनता की श्रेणी के रूप में ग्रहण किया जाता है। एक साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लेखन में निष्पक्ष भाव से समय और समाज का विश्लेषण करते हुए अपनी समकालीनता पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता हुआ न्याय ,समता ,बंधुता के सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों की रक्षा करे।
-जगदीश पंकज
July 20 at 10:17pm 
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 प्रस्तुत गीत में शैलेन्द्र शर्मा जी ग्राम के प्रभुत्वशाली वर्ग की पीड़ा का उल्लेख ही कर रहे हैं। उन्होंने अपने वर्ग की जिस त्रासदायक कसमसाहट ,मिस्मिसाहट और असहाय स्थिति का चित्रण किया है वह उसमें सफल रहे हैं। शैलेन्द्र जी जिस वर्ग या वर्ण से सम्बन्ध रखते हैं उसके वर्गहित पर पहुंची चोट और बेबसी को ही तो गीतके माध्यम से व्यक्त किया गया हैं। जिस व्यक्ति रमधनिया के माध्यम से स्थानीय सत्ता के सबसे निम्न पद पर पत्नी का चुनाव होने से मनोविज्ञान में हुए परिवर्तन और पांच साल में झुग्गी से महल तक की यात्रा का वर्णन किया है वह उसी सामंती संस्कारों में जीने वाले प्रभावशाली और प्रभुत्व वाले लोगों की दया-कृपा से तो चुना ही नहीं गया होगा बल्कि वह अपनी और अपने जैसे लोगों की संयुक्त शक्ति से ही देश-प्रदेश की दलितों /पिछड़ों /महिलाओं के प्रतिनिधत्व की नीति के कारण ही यह चुनाव जीत पाया है। उस दबंग वर्ग की त्रासदी यह है कि उन्हें उस दलित वर्ग से अपना चाटुकार और जी हुजूरी करने वाला कोई नहीं मिला या मिला भी तो वह चुनाव जीत नहीं पाया। तभी तो कसमसाहट है कि जिससे दबंग अब तक बेगार कराते थे अब उसकी अगवानी करने को विवश हैं। इसी के साथ शासन-प्रशासन के अधिकारियों का उसे तरजीह देना भी देखा नहीं जा रहा है। इस गीत से यह भी प्रकट होता है कि पहले जो नैतिक-अनैतिक ,वैध-अवैध लाभ जिस प्रभुत्वशाली वर्ग को मिलता था और जिसके द्वारा वे भी पांच साल में महल खड़े करते थे वे उससे वंचित हो गए हैं तथा वह व्यक्ति भी इतना सशक्त है कि उसका कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे और उस दलित की दबंगई के आगे बेबस हैं। शैलेन्द्र जी अपनी और अपने वर्ग की पीड़ा को व्यक्त करने में सफल रहे हैं।पूरे गीत में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि यह सब देश की सामाजिक -राजनैतिक व्यवस्था की देन है। यदि गीत में ऐसा कुछ संकेत होता तब भी गीतकार की मानसिकता पर इतने प्रश्न नहीं उठते किन्तु जाने या अनजाने में शैलेन्द्र शर्मा उत्पीड़क/शोषक दबंग वर्ग के पक्षधर की भूमिका निभा रहे हैं। समूह में यह गीत रमाकान्त यादव जी के प्रश्नों के कारण बहस में आ गया है। गीत की भाषा -शैली कथ्य के अनुरूप है।पूरे गीत में जाति का उल्लेख नहीं है लेकिन भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में जो लोग बेगार करने को विवश हैं वे दलित ही हैं चाहे जाति कोई भी हो। मेरा निवेदन है कि सुविज्ञ जन प्रस्तुत गीत और उसके निहितार्थ को दृष्टिगत रखते हुए अपना अभिमत रखेंगे तो सार्थक विमर्श हो सकेगा। 
-जगदीश पंकज
July 20 at 10:17pm 
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यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकता 
एकैकं अनर्थाय किम् तत्र चतुष्टयम् !!
यौवन धन सम्पत्ति प्रभुत्व और अविवेक.. इनमें से एक-एक अनर्थकारी है.. जिसके पास ये चारों हों वहाँ या उसका क्या ? अर्थात उसका कैसा आचरण होगा ? 
महती यह नहीं कि किसने क्या किया, महत्त्वपूर्ण है कि प्रवृति क्या थी. क्या हम इस आलोक में कभी सोचना शुरु कर पायेंगे. या भँड़ास निकालने के तहत व्यवस्था का विरोध नहीं, अपितु स्वीकार्य अनुमन्य व्यक्तियों को पोषित करते हुए प्रवृति विशेष को ही प्रश्रय देते रहेंगे. यदि ऐसी सोच के अंतर्गत हम वैचारिक हो रहे हैं, तो अफ़सोस हमारे जैसा वाचाल, दुराग्रही और ढोंगी विचारक और कोई नहीं होगा. ऐसी स्थिति में हम विचारक नहीं, अपनी बारी की प्रतीक्षा करते घोर अवसरवादी ही होंगे. अगर ऐसी संज्ञा और मान से परहेज नहीं है तो फिर वर्ण-वर्ग भेद पर सारा विमर्श, सारी परिचर्चा अनावश्यक ही नहीं, थोथी बकवाद है. जिसकी ओट में आजतक मुट्ठियाँ भींची जाती रही हैं. 
मुझे न उच्च, न दलित, किसी से कुछ नहीं लेना देना. बस ये बस ये देखना है कि क्या आमजन सहज है ? या, रुपहले पर्दे पर चलचित्र के किसी नायक के नकली गुस्से पर तालियाँ पीटता हुआ अपने को लगातार अप्रासंगिक करता हुआ मूर्ख है ? करोड़ों में खेलने वाला तथाकथित वह नायक सफल हो कर जिस प्रवृति को जीता है, उसकी प्रतिच्छाया में मुग्ध एवं तुष्ट रहना यदि किसी वर्ग या व्यक्ति-समूह को रोमांचित करता है, तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना. अन्यथा, यह सालता है, बहुत-बहुत सालता है, कि हम दलित मनोविज्ञान की समझ के नाम पर अपनी दमित इच्छाओं का पोषण चाहते हैं. ऐसी इच्छा किसी दलित या पीड़ित आंदोलन का हेतु कभी नहीं रही है. तभी ऐसे आंदोलन प्राणवान भी रहे हैं. 
वैसे यह सही है, कि सदियों-सदियों से पीड़ित-शोषित वर्ग एक बार में अपनी दमित इच्छाओं से निस्संग, निस्पृह नहीं हो सकता. किन्तु, यह भी सही है, इस घर को सबसे अधिक खतरा घर के चिरागों से ही है, जो वैचारिक रूप से दिशाहीन हैं या शातिर-दबंगों तथा ’शास्त्रीय’ शोषकों के हाथों की कठपुलली हैं. ऐसी ही एक कठपुतली का ज़िक्र यह नवगीत गा रहा है. 
एक बात: 
किसी नाम के साथ शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्र, पाण्डेय, सिंह या वर्मा या ऐसे ही ’आदि-अनादि’ ’प्रत्यय’ देख कर, अपने मत और मंतव्य बनाने हैं, चीख-चिल्लाहट मचानी है, तो यह परिचर्चा के क्रम में महाभारी उथलापन और गलीज छिछलापन का द्योतक होगा. यह कत्तई साहित्य नहीं. ऐसे साहित्य को, क्षमा कीजियेगा, साहित्य नहीं घटिया राजनीति से प्रभावित परिवाद कहते हैं. फिर तो पीड़ितों व शोषितों के नाम पर आज ’एक वर्ग’ विशेष सबसे अधिक --जायज-नाजायज रूप से-- लाभान्वित होने का दोषी है. उक्त वर्ग से ताल्लुक रखने वाला आज हर तरह से रंगा सियार है. उसके किसी दिखावटी और थोथे गुस्से से कोई क्यों प्रभावित होने लगे ? ऐसी सोच क्या घटिया सोच नहीं होगी ? अवश्य होगी. अतः साहित्य को साहित्य ही रहने दिया जाय. सारी सड़कें राजधानी से गुजरती हैं का आलाप कितना कुछ बरबाद कर चुका है इसे क्या अब भी समझना बाकी है ?
अब इस नवगीत पर - 
यह एक व्यंग्य है जो आजके समाज की नंगई को उघाड़ कर सामने लाने में सक्षम है. रमधनिया स्वयं रामधनी बने या किसी शातिर का मुहरा बना प्रधानपति श्री रामधनी कहलाता फिरे , वह दोनों स्थितियों में अपने वर्ग और समाज केलिए एक निपट गद्दार है. वह सिर्फ़ अपना भला देख रहा है. इस व्यक्तिवाची सोच का यदि कोई वर्ग समर्थन करता है तो यह स्वार्थी सोच का पोषण ही कहलायेगा. 
ऐसे ही ’गद्दारों’ के दुष्कृत्य से ही विसंगतियाँ पैदा होती हैं. यही समाज में आज तक व्याप रही विद्रूपता का मूल कारण है. विद्रूपता को तारी करने का ठेका किसी वर्ग विशेष के माथे डाल कर कोई दोषी इकाई या वर्ग मुक्त नहीं हो सकता. 
आगे, यह भी स्पष्ट करता चलूँ, कि इस नवगीत के इंगितों में जिस तरह से शातिरों के प्रभाव को रेखांकित किया गया है जिसकी प्रभावी पकड़ में रमधनिया और उसकी प्रधान बीवी है, उसकी ओर यदि समीक्षा के समय दृष्टि नहीं जा रही है, तो यह समीक्षकों की समझ का दोष है. 
नवगीतकार इस प्रस्तुति के माध्यम से उच्च स्तर के व्यंग्य केलिए बधाई का पात्र है. नवगीत आज के पद्य-साहित्य की यदि धुरी है तो इस धुरी की कड़ियों को टुच्ची राजनीतिक् सोच से कमजोर न किया जाय.
शुभ-शुभ
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 1:27am 
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अब कुछ परतें खुल चुकी हैं। अभी भी कुछ परतें बाकी हैं, जो इससे भी बड़ी हो सकती हैं।
-अवनीश सिंह चौहान
July 21 at 11:03am 
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आदरणीय जगदीश व्योम जी, ये कैसी गतिविधियाँ हैं ? ये क्या चल रहा है ? प्रतिक्रिया स्वरूप वन-लाइनर उलटबासियों से किसका भला हो रहा है ? साहित्य का तो कदापि नहीं. मैं किसी वाद या मठ का न हिस्सा था, न हूँ. ऐसे में थाहने की कोई कोशिश अन्यथा कर्म ही होगा.

जगदीश व्योम -- 
"सभी सदस्यों से अनुरोध है कि यहाँ नवगीत विषयक अपनी राय, नवगीत विषयक प्रश्न, नवगीत विषयक टिप्पणी, चर्चा आदि में सहभागिता करें.. यह आवश्यक नहीं कि आप किसी की बात से पूरी तरह सहमत हों.. परन्तु इसे वैयक्तिक न बनायें.... सभ्य भाषा का प्रयोग करें... नवगीत को अनेकानेक लोग समझना चाहते हैं...... यहाँ हम सब मिलकर अपनी अपनी सामर्थ्य से नवगीत के इर्द गिर्द घिरे कोहरे को सहज विमर्श के द्वारा हटाने में सफल हो सकेंगे..... इसी अनुरोध के साथ सभी सदस्यों का स्वागत है.."

सही है.. लेकिन जिन्हें राजनीति करनी है वे करें न. खुल कर करें. किसने रोका है ? लेकिन साहित्यांगन में उनका क्या काम है ? रसोईघर को गुसलखाना समझ लिया है क्या ? व्यवस्था विरोध के नाम पर किसी ’मंतव्य विशेष’ का पृष्ठपोषण न उचित था, न है. न कभी मेरे लिए उचित होगा. लाचारों से लम्बी दौड़ संभव नहीं होती.
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 2:04pm 
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 वाह क्या निष्कर्ष निकला पूरे विमर्श का। चूँ-चूँ का मुरब्बा। जब केवल इस नवगीत के कथ्य पर विमर्श हुआ तो वही बात आदरणीय भारतेन्दु मिश्र, आचार्य संजीव सलिल, व्योम जी, बृजनाथ जी, जगदीश पंकज जी, सौरभ जी, वेद शर्मा जी सहित सभी मर्मज्ञों ने कही। क्या निकला, यही कि सत्ता पाते ही उस वर्ग में भी वही नैतिक पतन के कीटाणु प्रवेश कर गए, जो सत्ताच्युत वर्ग में थे। यही कि नवगीत में यथार्थ की सांचबयानी है। शेष तो अपनी-अपनी विचारधारा को नवगीत पर आरोपित कर दिया गया।
-रमाशंकर वर्मा
July 21 at 2:20pm 
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किसी साहित्यिक रचना में कथ्य उसका प्राण होता है। प्रस्तुत गीत में रमाकांत यादव जी द्वारा कथ्य पर ही प्रश्न उठाये हैं जो अभी भी उत्तर मांग रहे हैं। प्रश्नों में जिस कटु सत्य का उल्लेख किया गया है वह कुछ मित्रों द्वारा पचाया नहीं जा रहा तथा अपने पूरे पांडित्य प्रदर्शन के बावजूद वैचारिक अजीर्ण की स्थिति से ग्रस्त होकर अनर्गल टिप्पणी करके रोदन कर रहे हैं। मान्यवर, विचार का विचार से और तर्क का तर्क से उत्तर दें तो विमर्श को सार्थक दिशा मिलेगी। अपने आप्त वचनों से समूह को समृद्ध करके और अपनी खीज और तिलमिलाहट को विमर्श के नाम पर उगल कर आपने क्या कमी छोड़ी है अपनी मानसिक दुर्गन्ध को समूह में फेंकने की? आप कहते हैं कि आपका किसी वाद या विचारधारा से कोई लेना देना नहीं क्या यह भी किसी यथास्थिति का वाद या विचार नहीं? वाह-वाह सुनने वाले कान सार्थक असहमति के स्वर सुनने से क्यों कतरा रहे हैं ?बहरहाल ,मेरा पुनः निवेदन है कि पलायन करने के बजाय रमाकांत यादव द्वारा प्रस्तुत नवगीत पर उठाये गए साहित्यिक प्रश्नों का साहित्यिक उत्तर दें तो समूह के विमर्श और संवाद-परिसंवाद के लिए हितकर रहेगा तथा अनेक मित्र जो इस विमर्श पर टिप्पणी न करते हुए भी ध्यान से पढ़ रहे हैं उन्हें भी अच्छा लगेगा।
 -जगदीश पंकज
July 21 at 3:18pm
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 भाइयों! पहले ये तय कीजिए कि आप नवगीत पर बहस कर रहे हैं या जाति की सवर्णवादी मानसिकता पर।दोनो का विमर्श अलग अलग रूप/तर्को/उदाहरणो से होना चाहिए।मेरे विचार से खुरपी से दाढी नही बनाई जा सकती और ब्लेड से घास नही छीली जा सकती।तो मेरा मानना है कि पहले तो हम ये तय करें फिर तार्किक ढंग से बात करें।व्यक्तिगत आक्षेप करना उचित नही है।..जहां तक रमाकांत यादव जी का प्रश्न है कि ये गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है..ये सही बात है ..लेकिन ये मानसिकता कवि के साथ नही बल्कि रमधनिया से रामधनी बनने के बीच जो उसके चरित्र मे परिवर्तन हुआ है उस सत्ता सुख के साथ जुडी है तात्पर्य ये कि जब कोई सत्ता तक पहुंच जाता है तो वह सवर्णता वादी /मनुवादी आचरणो व्यवहारो को सहज मे ही अपना लेता है।जीवंत उदाहरण मायावती जी है -उनके तमाम सवर्ण पैर छूते हैं। उनपर लाखो के नोटो के हार चढाये जाते हैं/ उनकी मूर्तियो का निर्माण भी हो चुका है।जब ये सब हो रहा था तब सतीश मिश्रा जी उनके सलाहकार थे।उनकी हर बात उन्हे स्वीकार करनी होती थी।..मै इसे गलत नही मानता हूं।ये सामाजिक प्रक्रिया है।कभी नाव पानी पर कभी पानी नाव पर भी होता है।विकासवादी समाजशास्त्री विचारको से पता करें।..तो मित्रो हमे व्यक्तिगत आक्षेपो से अपने को और नवगीत को बचाना है।ये अगडे पिछ्डे दलित आदि विमर्शो से ऊपर उठकर रचना को समझने के लिए आवश्यक है।..जाति और समाजशास्त्र पर बहस अलग से करें-विनम्र आग्रह है।
-भारतेन्दु मिश्र
July 21 at 6:32pm 
००००००००००००

आप क्या कह रहे और किस तरह की बात कर गये आदरणीय जगदीश जी ? ऐसा भी क्या आग्रह कि सारी बातें पाण्डित्य प्रदर्शन लगीं ? क्या आजतक ऐसा लगता रहा है आपको ? आपके ही नवगीत पर मैं आजतक क्या पाण्डित्य प्रदर्शन करता रहा हूँ ? और पलायन ? या मैंने अन्यथा चर्चा से स्वयं को विलग किया है ? आप मेरा सीधा मेरा नाम ले सकते हैं, साधिकार ले सकते हैं, आदरणीय. आपको इंगितों में कह ने की क्या विवशता हो गयी, आदरणीय ? यह कैसी साहित्य चर्चा है? जो व्यक्तिगत प्रहार को अपनी उपलब्धि समझती है ? 

//रमाकांत यादव द्वारा प्रस्तुत नवगीत पर उठाये गए साहित्यिक प्रश्नों का साहित्यिक उत्तर दें तो समूह के विमर्श और संवाद-परिसंवाद के लिए हितकर रहेगा तथा अनेक मित्र जो इस विमर्श पर टिप्पणी न करते हुए भी ध्यान से पढ़ रहे हैं उन्हें भी अच्छा लगेगा //

निवेदन है, आप धैर्य से एक बार अपने लिखे को पढ जायँ. क्या ऐसा भी सोचा गया है कि रमाकान्तजी के कहे को पढा भी नहीं मैंने ? ये कैसी खौंझ है जो अपने को इतना अहंमन्य बना देती है ?
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 6:32pm 
०००००००००

भारतेन्दुजी, मेरा स्पष्ट मानना है कि ब्रह्मणवादी कोई व्यक्ति नहीं एक प्रवृति होती है. यदि इस महीन अंतर तक को नहीं जानता या किसी मंतव्य और वाद के तहत उसे जानने नहीं दिया जाता, तो समाज का हित नहीं. फिर सारी बातें चर्चा विमर्श आदि व्यक्तिगत क्रोध का पर्याय हैं. हम फिर लाख आमजन की बात करते रहें.. उसकी परिणति ’मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू’ से अधिक नहीं होने वाली. और हम आमजन की बात करते हुए किसी पर अहसान नहीं कर रहे हैं. फिर भी यह सोच है जो गलत को गलत और सही को सही ठहराने की चेतना देती है. यदि इस सोच पर ही प्रहार होने लगे. तो फिर सबकुछ भले होता दिखे, साहित्य चर्चा नहीं. और तुर्रा ये कि अनर्गल रोदन का पर्याय कहा जाता है. आखिर यह मतभेद है. लेकिन मनभेद के बीज रोपने को श्रेष्ठता कहा जा रहा है ? किसने किनको कितना चढ़ा दिया है भाईजी ? 
एक बात और, जहाँ-जहाँ दोयम दर्ज़े का निरंकुश विचार हावी होता है, वहीं ब्राह्मणवाद हावी होता है, जो स्वयं को प्रभावी बताने के लिए हर तरह की धुर्तई और वाचालता अपनाता है।
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 6:44pm 
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प्रिय सौरभ जी ,आपको मेरी टिप्पणी से आघात पहुंचा कि मुझे स्पष्ट कह देना चाहिए था और हमारे बीच के व्यक्तिगत संबंधों का उल्लेख किया है। मेरा कहना है कि आपकी पोस्ट से पहले भी कई लोगों ने अपने विचार प्रकट किये हैं तथा मेरी टिप्पणी के ठीक बाद आपका मत पोस्ट हुआ है जिसमें बहुत कुछ कहा गया है ,प्रासंगिक भी और अप्रासंगिक भी ,जिसे कई किस्तों में आगे बढ़ाया गया है। जिनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि मेरी टिप्पणी पढ़कर आप विचलित हो गए जबकि मैंने एक बहस को आगे बढ़ाते हुए अपना विचार रखा था और चाहा था कि रमाकांत यादव के प्रश्नों को दृष्टिगत रखते हुए विमर्श हो। आपके लगातार कई कमेंट्स से यही प्रकट हो रहा था कि आप प्रस्तुत नवगीत और नवगीतकार के बचाव में मुझ पर परोक्ष प्रहार कर रहे हैं। आपकी बेचैनी का कारण कुछ भी रहा हो।मैंने अपने मंतव्य में एक सामान्य चर्चा की है जिसे आपकी टिप्पणियों में अन्यथा लिया गया और परोक्ष रूप से कहा गया कि राजनीति चल रही है। जहां तक शैलेन्द्र जी का प्रश्न है मैं स्वयं उनके गीतों का प्रसंशक रहा हूँ तथा यथास्थान टिप्पणियाँ भी की हैं। और आपसे तो मेरे अनुजवत सम्बन्ध हैं। मेरा आशय नवगीत तक ही सीमित है, हम असहमत हो सकते हैं, विचार भिन्नता हो सकती है किन्तु कटुता से बचना उचित है। जहां तक रमाकांत यादव का प्रश्न है मेरा उनसे कोई व्यक्तिगत परिचय भी नहीं है तथा इसी समूह की एक अन्य पोस्ट पर मेरे उनसे भिन्न विचार हैं। मैंने अपने विचार बिना किसी दबाव और दुराग्रह के रखे हैं। इस पोस्ट की शुरुआत रमाकांत यादव द्वारा कुछ प्रश्नों के साथ की गयी है और उनका उत्तर चाहा है। मैं भारतेंदु मिश्र जी के साहस की सराहना करता हूँ कि उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है,… //..जहां तक रमाकांत यादव जी का प्रश्न है कि ये गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है..ये सही बात है ..लेकिन ये मानसिकता कवि के साथ नही बल्कि रमधनिया से रामधनी बनने के बीच जो उसके चरित्र मे परिवर्तन हुआ है उस सत्ता सुख के साथ जुडी है तात्पर्य ये कि जब कोई सत्ता तक पहुंच जाता है तो वह सवर्णता वादी /मनुवादी आचरणो व्यवहारो को सहज मे ही अपना लेता है।// .... और पूरी तार्किकता से अपनी बात के समर्थन में जीवंत सामाजिक उदाहरण दिए हैं। वे उदाहरण साहित्येतर हो सकते हैं किन्तु काल्पनिक नहीं हैं । विमर्श में मतभिन्नता तो होनी ही है अतः अपने विपरीत मत और उसके आशय को समझने का स्थान बनाये रखना चाहिए। मैं समझता हूँ कि इस नवगीत पर काफी विमर्श हो चुका है और आगे बढ़ने पर तल्खियाँ ही बढ़ने का भय है अतः अब विराम देकर समापन की ओर बढ़ा जाये। 
सादर,
-जगदीश पंकज
July 21 at 11:31pm 
००००००००००००

Saurabh Pandey इस तरह से कुछ भी समझ लिये जाने को, भाईसाहब, योग सूत्र में ’विपर्यय’ कहते हैं. जो मात्र अपनी आग्रही मान्यताओं तथा सूचनाओं पर निर्भर करता है, नकि तार्किक सोच पर. 
आपसे निवेदन है कि आप पुनः मेरी दोनों टिप्पणियों को पढें. विशेषकर नवगीत की समीक्षा वाले भाग को. आप समझेंगे, उस पोस्ट का समापन कैसे हुआ है. आपको स्प्ष्ट होगा कि मैंने भी ढोंगी प्रवृति और तथाकथित सवर्ण-व्यवहार को हर तरह की विद्रूपता का कारण माना है. 
सर्वोपरि, मेरी टिप्पणियों का आधार आपकी टिप्पणी थी ही नहीं. वस्तुतः, अपनी टिप्पणियों को पोस्ट करने के बाद मैंने आपकी टिप्पणी देखी थी. मैं भाई रामशंकर वर्माजी से टिप्पणियों के माध्यम से जिस तरह से बातचीत करता चला गया हूँ, उसे भी देख जाइये. खैर.. 

दो बातें अवश्य कहूँगा - 
एक, नवगीत समीक्षा में मैंने यदि कदम बढाये हैं तो यह मेरे अपने मंतव्यो को थोपने का माध्यम नहीं बनेगा. इसके प्रति सभी आश्वस्त रहें. 
दो, हर रचनाकार में एक सचेत पाठक अवश्य हो, अन्यथा रचनाकार की आत्ममुग्धता उसे कुछ भी करा सकती है. उसके क्रोध को दिशाहीन कर सकती है. जबकि रचनाकार के हृदय की ज्वाला साहित्य संवर्द्धन के लिए अत्यंत आवश्यक है. समाज वही समरस होता है जिसके सदस्य अपने सार्थक क्रोध को सदिश रख पाते हैं. तभी वे तार्किक ढंग से वैचारिक होते हैं. 

जगदीश जी, आपके माध्यम से कुछ सदस्यों को पुनः कहूँगा - संपर्क और सान्निध्य से परिचित हुआ जा सकता है, रचनाकर्मी और साहित्यकार नहीं हुआ जा सकता. वर्ना प्याज लिए बैठे रहेंगे और प्याजी कोई और खायेगा. 

मैं कुछ भी हृदय में नहीं रखता. लेकिन यह अवश्य है कि, रचनाओं पर समाज के सापेक्ष परिसंवाद तथा राजनीतिक एवं समाजशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में दिये जाने वाले तर्क दो भिन्न स्थितियाँ पैदा करते हैं. हमारी चैतन्य-सोच इसे समझे और इसे अवश्य गुने. आदरणीय रमाकान्तजी का रचनाकर्म साग्रह हो लेकिन उन्हें गीत-नवगीत की समझ बढ़ानी होगी. वर्ना माहौल बार-बार अग्निमय होगा. क्योंकि गाँठें जब खुल जाती हैं तो बार-बार खुलती हैं 

आदरणीय जगदीशजी, हर समय विमर्श के नाम पर लट्ठ भांजना अखाड़ो का आचरण है. हम अखाड़ेबाजी न करें.
सादर
-सौरभ पाण्डेय
July 22 at 12:13am 
०००००००००

अवनीश सिंह चौहान प्रिय सौरभ जी, विमर्श के नाम पर लट्ठ भांजने का कार्य कौन कर रहा है और वह भी गुट बनाकर? यह पाठक बखूबी समझ रहे हैं और आदरणीय जगदीश पंकज जी भी संकेत कर चुके हैं। तिस पर भी आप आदरणीय जगदीश पंकज जी को नसीहत दे रहे हैं। आपने तो रमाकांत जी को भी नसीहत दे डाली कि उन्हें अपनी समझ बढ़ानी होगी। आपने आदरणीय डॉ जगदीश व्योम जी को भी कह दिया कि विमर्श के नाम पर यह क्या चल रहा है। आपने यह भी लिखा कि 'संपर्क और सान्निध्य से परिचित हुआ जा सकता है, रचनाकर्मी और साहित्यकार नहीं हुआ जा सकता' - यह भी एक नसीहत है। आपकी टिप्पणियों को अगर ठीक से पढ़ा जाय तो ऐसे कई बिन्दु प्रकट हो जायेंगे जो एकपक्षीय हैं और अखाड़ेबाजी की ओर संकेत करते हैं। आपसे तो यह उम्मीद नहीं थी। आपसे तो बेहतर यहाँ वे आलोचक हैं जिन्होंने शुरू मैं रमाकांत जी द्वारा कही गयी बात - सवर्णवादी मानसिकता - को बाद में अपने ढंग से स्वीकार किया और कहीं भी रमाकांत जी को समझ बढ़ाने की नसीहत नहीं दी, उम्र और अनुभव में बड़े होने के बावजूद भी; और जिन्होंने भिन्न मत भी दिया उन्होंने अपनी भाषा को संयमित बनाये रखा। इसे कहते हैं बड़ी सोच।
-अवनीश सिंह चौहान
July 22 at 8:33am 
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किसी रचनाकार के अन्दर की गाँठे ज्यों ज्यों खुलती जाती हैं त्यों त्यों रचनाकार के रूप में उसका कद बढ़ता जाता है, इसलिए मन की गाँठों का खुलना एक रचनाकार के लिए बहुत जरूरी है.... गीत और नवगीत में एक अन्तर यह भी है.... यदि गाँठें लगी हैं तो कम से कम नवगीत को नहीं समझा सकता... नवगीत विमर्श समूह है ही इसलिए कि मन की गाँठे खुल सकें...... और हाँ रमाकान्त ने जो प्रश्न उठाया है उसकी गम्भीरता को धैर्य के साथ समझने की आवश्यकता है यह नवगीत को समझने के लिए भी जरूरी है..... यह केवल एक रमाकान्त का प्रश्न नहीं है सैकड़ों रमाकान्तों का प्रश्न हो सकता है..... 
सभी से यह अनुरोध है कि विमर्श को व्यक्तिगत न बनायें...... यहाँ लिखी जाने वाली टिप्पणियाँ न जाने कितने लोग पढ़ रहे हैं ..... इसका ध्यान रखें।
-डा० जगदीश व्योम
July 22 at 7:49am 
००००००००००

 अबनीश भाई, जिन कुछ पंक्तियों को आप नसीहत कह रहे हैं, वे अनुरोध हैं. आपकी बातों से इत्तफ़ाक रखता हूँ कि सभी समझ रहे हैं कि कौन क्या कर रहा है. यह सही है भाईजी, कि सभी को भान हो रहा है कि कौन क्या कर रहा है. 
जिस तरह से विमर्श के तौर पर जो कुछ पोस्ट होने लगा, जिसे ऊपर के पोस्ट में हमने पढ़े, तब ही मैंने आदरणीय जगदीश व्योम जी से निवेदन किया था कि वे देखें कि विमर्श के नाम पर क्या चल रहा है. उससे पहले आदरणीय रमाकान्त जी के पोस्ट के आधार पर ही टिप्पणी की थी हमने. 
साहित्य और रचना की समझ के अनुसार चर्चा हो यही उपलब्धियों के मार्ग प्रशस्त करेगा. भाईजी, आपने मुझे अधिक नहीं सुना है. आदरणीय जगदीश पंकज जी जानते हैं मुझे. इसी कारण उनके कुछ कहे पर मैं इतना चौंक गया था, और फिर, बाद मे उनकी भी समीक्षकीय टिप्पणी पढी. स्पष्ट है कि उनको भ्रम हुआ था कि मैंने उनको कुछ कहा है. इस पर बात हो गयी है. विश्वास है, उनका भी भ्रम निवारण हो गया है.
मंचीय मठाधीशी पर संभवतः आजतक कभी किसी ने नहीं देखा है मुझे. अतः भाईजी, सादर निवेदन है कि ऐसे भ्रम न पालें, न साझा करें. उम्र का लिहाज हम खूब करते हैं, इज़्ज़त करते हैं. लेकिन यह भी सही है कि समीक्षकीय टिप्पणियों और रचनाओं से कोई रचनाकार बड़ा बनता है. रचनाएँ और तदनुरूप समझ बड़ी हों तभी साहित्य का सही रूप से भला होगा. और मेरा ऐसा कुछ कहना मेरी कोई नसीहत नहीं, आजतक आप सबों के सान्निध्य में आयी हुई समझ ही समझी जाय. अन्यथा मठ और मठाधीशी कैसी और कहाँ हो रही है, हमसभी खूब समझते हैं. व्यक्तिगत हम कभी नहीं होते. किन्तु, वास्तविकता को मानते हैं. 
सादर
-सौरभ पाण्डेय
July 22 at 12:37pm 
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Saurabh Pandey //मन की गाँठों का खुलना एक रचनाकार के लिए बहुत जरूरी है.... गीत और नवगीत में एक अन्तर यह भी है.... यदि गाँठें लगी हैं तो कम से कम नवगीत को नहीं समझा सकता. //
सटीक है, आदरणीय जगदीश व्योमजी. हम समझ से आगे बढ़ें. यही श्रेयस्कर है.
शुभ-शुभ
-सौरभ पाण्डेय
July 22 at 12:33pm 
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Ramshanker Verma तो क्या नवगीत के श्रेष्ठ समीक्षक बताने की कृपा करेंगे कि गीतकार और गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है? क्योंकि अब तो तथाकथित गुटों ने काफी समुद्रमन्थन कर लिया है उत्स प्राप्त हो जाना चाहिए।
-राम शंकर वर्मा
July 22 at 1:45pm 
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सीमा अग्रवाल कोई भी रचना रचनाकार की बस तभी तक रहती है जब तक वो उसकी डायरी में महफूज़ है । सार्वजनिक होते ही रचना पर पाठकों का अधिकार हो जाता है। रचनाकार को उसी क्षण उस पर से अपना दावा छोड़ देना चाहिए । इसके बाद यह मायने नहीं रखता की रचनाकार उसमे क्या कहना चाहता था (विशेष विवादित परिस्थितियों को छोड़ कर)
हर पाठक की मानसिक स्थिति का अपना रंग होता है
जिसके पृष्ठभूमि पर रख कर वो रचना को देखता है इसलिए हर दीवार पर उस एक रचना की रंगत भी भिन्न होगी ही होगी । अब अगर किसी को यह रचना जातिवादी मानसिकता की लगी तो यह उसका अपना मत है जबरन सबको उसी मत का हिस्सा नही बनाया जा सकता उन पाठकों का अभिमत भी उतना ही महत्व स्खता है जिनको इस रचना में ऐसा कुछ नहीं दिखा । इस पर विवाद क्यों ? 
मुझे यह रचना सिर्फ एक सामान्य मनोविज्ञान की खूबसूरत बानगी लगी । जिसे शैलेन्द्र जी ने बहुत बारीकी से समझा है और मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया है । एक गंभीर विषय को बेहद सहजता और सादगी से पेश किया है । 
विमर्श का विषय रचना में प्रस्तुत कथ्य का सम्प्रेषण तथा वो कितना सत्य व् सार्वभौमिक है यह होना चाहिए ।
गीत के कथ्य के पक्ष में एक छोटा सा उदाहरण .......
कक्षा में हर महीने मॉनीटर बदले जाते थे ।एक छोटे से परिवेश में ही मुझ जैसी कोने की सीट पकड़ कर बैठने वाली और कम नंबर पाने वाली छात्रा का ओहदा बदलतते ही चाल मिजाज़ आवाज़ सब बदल जाता था
वही तो गीत कह रहा है बस कैनवास बड़ा है 
एक सामाजिक या आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग जब बड़ा ओहदा पाता है तो न केवल वो दुनिया के लिए बदलता है बल्कि दुनिया भी अपना आचारण बदल लेती है । सटीक मानसिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है शैलेन्द्र जी ने दोनों पक्षों का । 
बहुत बहुत बधाई ।
-सीमा अग्रवाल
०००००००००००

== विमर्श 05==

--योगेन्द्र दत्त शर्मा के नवगीत पर  विमर्श--

भूल चुका हर कठिन समय को
खोज रहा हूँ खोई लय को 
चाह रहा कुछ और देखना
पर कुछ और देखना पड़ता
नैतिकता की अग्नि-परीक्षा
निष्ठा-धर्म शूल-सा गड़ता
चलते हुए महाभारत में
याद कर रहा हूँ संजय को
अंधभक्ति की अंध प्रतिज्ञा
अंधा युग, अंधी मर्यादा
कपट-कवच का महिमा-गायन
सच का उतरा हुआ लबादा
देख रहा हूँ मुँदे नयन से
मूल्यों के इस क्रय-विक्रय को
ढहते बरगद, उखड़े गुंबद
ध्वस्त शिखर, विपरीत हवाएँ
रथ के पहियों ने कुचली हैं
बांसुरियों की दंत-कथाएँ
हारे हुए विजेताओं में
ढूँढ़ रहा हूँ शत्रुंजय को
आपाधापी, छीन-झपट में
तन-मन क्या, आत्मा तक झोंकी
किन्तु मिला क्या, यह असफलता
अनचाही शैया तीरों की
धीरे-धीरे पल-पल मरते
देख रहा हूँ मृत्युंजय को
घनी धुंध में पता न चलता
कैसी, कहाँ काल की गति है
जीने को है एक मरण बस
सहने को विकलांग नियति है
सोच रहा हूँ, कैसे चीरूँ
भीतर-बाहर छाये भय को
-योगेन्द्र दत्त शर्मा
०००००

सुंदर और सामयिक पर,आत्मा शब्द की जगह कुछ और होता तो खटकती नही लय ! शेष क्षमा यदि कुछ गलत कहा !
-रंजना गुप्ता
०००००००००००

महाभारत के मिथक का प्रयोग करते हुए समकालीन व्वस्था पर प्रभावी कटाक्ष है । सुंदर एवं सार्थक. नवगीत ।
-आर.वी. आचार्य
००००००००००

हर कठिन समय को भूल चुका और खोई लय को खोजने वाला चरित्र पूरे गीत में कहीं नहीं दिखा।अतिशय निराशा में अतीत के महाभारत को वर्तमान तक खींचा गया है।तब के महाभारत ने सत्य को कहीं कुछ अंशों तक बचाया भी था पर इस गीतकार को सब कुछ ध्वस्त हुआ ही नजर आता है।फिर मुखड़ा क्या कहता है पता नहीं।लगता है गीतकार कहना चाहता था कुछ और पर कह गया कुछ और।जीने को जब मरण ही बचा है तो फिर क्या सोचना कैसे सोचना?
-रमाकान्त यादव
००००००००००००

बेहतर और कसा हुआ छन्द, पौराणिक प्रतीक और वर्तमान स्थितियों का सुन्दर चित्रण ।
बधाई।
-मुकुन्द कौशल
००००००००००

आदरणीय यादव जी कविता गद्य तोनहीं होती कवि जिस लय को पाना चाहताहै वह है कहाँ पात्र बदलते हैं पर मूल्य ?...स्थितियां इतने समय बाद भी .....शिल्प शब्द चयन कहन अपनी टिप्पणी पर फिर से विचार करें इस तरह के गीत आजकल गिने चुने लोग ही लिख रहे हैं/ लिख सकते हैं ........
-वेद शर्मा
०००००००००००


जब कोई रचनाकार अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए प्रासंगिक मिथकीय प्रतीकों का अपनी रचना में प्रयोग करता है तब उसके सामने सत्य को सशक्त रूप में प्रस्तुत करने की सदिच्छा होती है। मिथकीय पात्र ,कथानक तथा भूमिकाएं अपने अभिधात्मक अर्थ के बजाय लाक्षणिकता के साथ रचना में प्रयोग करते हुए रचनाकार कहाँ तक सफल होता है यह उसके व्यक्तिगत और रचनात्मक अभ्यास और कौशल पर निर्भर करता है। कोई भी व्यक्ति रचनाकार के सृजन की सार्थकता से सहमत या असहमत हो सकता है किन्तु रचनाकार की नीयत,आशय और उसके मंतव्य की पृष्ठभूमि में ही रचना का मूल्यांकन करना उचित है। योगेन्द्र शर्मा जी के प्रस्तुत गीत में प्रयुक्त महाभारत के प्रासंगिक बिन्दुओं का प्रयोग समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने का प्रयास है। रचना के अंत में गीतकार अपने आप से प्रश्न करता हुआ उत्तर के लिए पाठक को सोचने के लिए बाध्य करता है। यहाँ विकल्पहीनता नहीं बल्कि समय का बहुआयामी विद्रूप यथार्थ है जिसका किसी एक विकल्प से मुकाबला नहीं किया जा सकता। पूरे गीत को समग्रता में समझने के लिए अंत से आरम्भ करते हुए उन स्थितियों तक आएं जिनमे आज का भूमंडलीकृत नागरिक जीवन की आपाधापी में फंस कर स्वयं से ही असंतुष्ट होकर स्वयं से ही प्रतिस्पर्धा कर रहा है और असफल होने पर आज के हताशा,अवसाद और असंतोष जैसे युगीन रोगों से जूझ रहा है। आज जब सत्य का वही रूप दिखाया जा रहा है जो दिखाने वाले प्रसार माध्यमों और उनके आकाओं के अनुकूल है तब रचनाकार किसी संजय के मिथक का प्रयोग कर रहा है तो यह प्रयोग उचित ही है। जब आज का यथार्थ अपनी तीव्रता में अतीत की स्मृतियों के भयावह यथार्थ से भी अधिक गहन और तीव्र है और उसकी अनुभूतियों की लय भी विगत की अनुभूतियों से अधिक सशक्त है तब पुरानी लय कैसे याद आएगी? आज जब नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन और सांस्कृतिक प्रदूषण का ख़तरा बढ़ता जा रहा है तब निरंतर जटिल होते समयगत यथार्थ को योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा अपनी रचना में बहुत सफलता से अभिव्यक्त किया गया है। रचना में व्यक्त आशय को ग्रहण करके हर व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्या करने को स्वतंत्र है। आवश्यक नहीं कि मेरे विचार से सबकी सहमति संभव हो किन्तु प्रस्तुत नवगीत कथ्य,शिल्प,भाषा , आशय और सम्प्रेषणीयता के बिन्दुओं पर एक उत्कृष्ट रचना है।
-जगदीश पंकज
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भाषा, कथ्य और शिल्प के स्तर पर समृद्ध नवगीत। गीतकार को हार्दिक बधाई
-जय चक्रवर्ती
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संवेदनशील मनुष्य की विवशता को मुखर करता कठिन समय का नवगीत है।
-भारतेन्दु मिश्र
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 कठिन समय से सघर्ष करते एक संवेदनशील मनुष्य की पीड़ा को अभिव्यंजित करता नवगीत है...." चाह रहा कुछ और देखना
पर कुछ और देखना पड़ता" एक नौकरशाह इन पंक्तियों को अपने मन की पंक्तियाँ भी कह सकता है।
-डा० जगदीश व्योम
०००००००००


इस नवगीत के मुखड़े से जैसी सकारात्मकता निस्सृत हो रही है वही नवगीतों का वैशिष्ट्य है. बचे-खुचे को समेटते-बटोरते हुए अपने आप को पुनः तैयार करना एक ज़ुनून की मांग करता है, जीने का ज़ुनून ! प्रस्तुत नवगीत मुखड़े से ही अपनी गति साध लेता है. भूल चुका हर कठिन समय को / खोज रहा हूँ खोई लय को.. 
आगे के बन्द विद्रूप हो गये / हो चले क्षण-पलों के परिदृश्य समक्ष लाते हुए हैं, जो संवेदनशील इस मनुष्य ने भोगे हैं. इन्हीं पलों में एक अदद संजय का ढूँढा जाना अवश हो चली परिस्थितियों और अवस्था का इंगित है. संजय सूचना-प्रदाता था. आज दायित्व निर्वहन करता ’संजय’ कहाँ है ? किनके प्रति आश्वस्त हों ? लगभग सभी तो बिके हुए हैं. या फिर, रथ के पहियों ने कुचली हैं / बांसुरियों की दंत-कथाएँ.. 
इन पंक्तियों के माध्यम से रचनाकार ने अत्यंत गूढ़ तथ्य को कितनी सहजता से समक्ष किया है ! कृष्ण के बारे में प्रचलित हो चुकी समस्त कोमल-कथाओं के सापेक्ष भीष्म के विरुद्ध कृष्ण के नये किन्तु अतुकान्त रूप को प्रस्तुत करते हुए कितनी गहरी बात कही है ! अद्भुत ! 
आपाधापी, छीन-झपट में / तन-मन क्या, आत्मा तक झोंकी / किन्तु मिला क्या, यह असफलता / अनचाही शैया तीरों की / धीरे-धीरे पल-पल मरते / देख रहा हूँ मृत्युंजय को 
कवि ने भीष्म के कुल प्रयास और उसके गूढ़ चरित्र को स्वर दे कर अपने भीतर के उस मनुष्य की कही सुनाता हुआ दिख रहा है, जो अपनी किंकर्तव्यविंमूढ़ता और अपने विभ्रम को दायित्व का मुखौटा दे कर हर तरह के असहज कर्म को सार्थक बताने की कुटिल चाल चलता है. कहना न होगा, भीष्म महाभारत का एक क्लिष्ट पात्र है जो अपनी समस्त कमियों को सात्विकता का जामा पहनाता है. भीष्म की स्वामिभक्ति तक दोयम दर्ज़े की रही है. इसतरह के आचरण के अनुकरण के पश्चात स्वयं को ’धीरे-धीरे पल-पल मरते’ महसूस करना अतिशयोक्ति भी होगी क्या ? 
अंतिम बन्द तो मानो जीवन के सनातन स्वरूप को सापेक्ष करता हुआ अकर्म की दशा बताता हुआ है - जीने को है एक मरण बस / सहने को विकलांग नियति है ! 
मेरा आशय इतना ही है कि इतने से इस प्रस्तुति की गहनता समझी जा सकती है. 
इस नवगीत में जिस सार्थकता से पौराणिक पात्रों के माध्यम से आजके मनुष्य की मनोदशा को पूरी संवेदना के साथ सस्वर किय अगया है वह श्लाघनीय तो है ही, इस तरह् अके नवगीतों के प्रति अभ्यासरत रचनाकारों के लिए अनुकरणीय भी है. 
कथ्य और शिल्प की कसौटी पर एक सार्थक नवगीत केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय योगेन्द्र दत्त शर्माजी..
-सौरभ पाण्डेय

Wednesday, September 02, 2015

== विमर्श 03 ==

एक गीत/नवगीत .... क्या कोई बता सकता है कि इसके रचनाकार कौन हैं.... क्या इसे नवगीत कहा जा सकता है ?
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एक हाथ में हल की मुठिया
एक हाथ में पैना
मुँह में तिक-तिक बैल भागते
टालों का क्या कहना
भइ टनन टनन का गहना
सिर पर पाग बदन पर बंडी
कसी जाँघ तक धोती
ढलक रहे माथे से नीचे
बने पसीना मोती
टँगी मूँठ में हलकी थैली
जिसमें भरा चबेना
भइ गुन गुन का क्या कहना
जोड़ी लिए जुए को जाती
बँधा बँधा हल खिंचता
गरदन हिलती टाली बजती
दिल धरती का सिंचता
नाथ-जेबड़े रंग बिरंगे
बढ़िया गहना पहना
भइ सजधज का क्या कहना
गढ़ी पैंड की नोंक जमीं पे
खिंच लकीर बन जाती
उठती मिट्टी फिर आ गिरती
नोंक चली जब जाती
बनी हलाई, हुई जुताई
सुख का सोता बहता
भइ इस सुख का क्या कहना
भइ टनन टनन का गहना

-[यह रचना " विश्वनाथ राघव " की है, " धरती के गीत" संग्रह में 1959 में प्रकाशित]

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व्योम जी क्या इस सौन्दर्य बोध को आज के गाँव की पीढ़ी आस्वाद कर पायेगी?? जब कि मुझे जूए मे जुते बैलों की जोड़ी खेत की तरफ जाते हुए मूर्त हो उठे

-शिवमूर्ति तिवारी
July 1 at 9:55am
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जमीन से जुड़ा सार्थक नवगीत. कॉंवेंटी मस्तिष्क इसका रसास्वादन नहीं कर सकते, यह उनका दुर्भाग्य है

-संजीव वर्मा सलिल
July 1 at 10:16am
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बिलकुल ठेठ ग्राम्य सौंदर्य बोध से प्लावित नवगीत !रचियता का नाम जानना चाहूँगी

-रंजना गुप्ता
July 1 at 7:01pm
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यह भी एक प्रयोग है... कि क्या किसी रचना की कथ्य, शैली.... से किसी रचनाकार को पहचाना जा सकता है..... क्या हम उन्हीं रचनाकारों को सहजता से पहचान पाते हैं जिनकी रचनाएँ विभिन्न कोर्स की किताबों में आ गई.... थोड़ी माथापच्ची करें तो नाम मिल जायेगा..... देखते हैं कि कौन सही रचनाकार तक पहुँच पाता है.... जो पहले पहुँच पाता है उनके लिए "नवगीत २०१३" पुरस्कार स्वरूप भेजी जायेगी......

-जगदीश व्योम
July 1 at 10:33am
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हां यह गीत है।नवगीत कहें तोभी उतना ही सार्थक।सदाबहार गीत।शहरी गीतकार भी इसे पसन्द करेंगे बशर्ते उन्हें लोक जीवन लोक संस्कृति की थोड़ी समझ हो।कृपयारचनाकार का नाम बताएं

-रमाकान्त यादव
July 1 at 10:33am
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रचनाकार की भाषा तो बाबा नागार्जुन या त्रिलोचन जैसी लग रही है

-प्रदीप शुक्ल
July 1 at 10:44am
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खेती किसानी में पैना, पैंड़ शब्दों का प्रयोग इधर अवध क्षेत्र में होता हो, लगता नहीं है, मुझे लगता है यह नईम, दिवाकर वर्मा या गुलाब सिंह में से किसी का हो सकता है। हालांकि इनके अधिक नवगीत पढ़ने का सुयोग नहीं मिल पाया मुझे। जब कोई नवगीत गीत के मानक पर भी खरा उतरे तो उसका क्या कहना। नवगीतों में लय गेयता और प्रवाह का निर्वाह दुष्कर है। बढ़ते शहरीकरण और जड़ों से कटने के कारण लोकसंप्रक्ति से दूरी नवगीतों में नयी कविता जैसा शब्दाडम्बर पैदा कर रही है। "'भाई भइ टनन टनन का गहना" एक अभिनव प्रयोग है, क्योकि नवगीत का मुखड़ा तो- एक हाथ में हल की मुठिया
एक हाथ में पैना
मुँह में तिक-तिक बैल भागते
टालों का क्या कहना से ही पूरा हो जाता है। पर गहना (घंटा) का प्रयोग जहां इसे नवगीत बना देता है, वहीं "'भाई टनन टनन का गहना" की अतिरिक्त पंक्ति लोकसंप्रक्ति से लपेट देती है। पाठक को खेत जुताई का सम्पूर्ण विम्ब अद्भुत है। मेरी दृष्टि में यह मानक नवगीत है। गीत तो है ही।

-रामशंकर वर्मा
July 1 at 11:24am
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मुझे रचनाकार का तो पता नहीं पर इस गीत को पढ़ कर मन अत्यंत आनंदित हो गया. ऐसे गीत को खोज लाने के लिये व्योम जी आपको बधाई

-सन्तोष कुमार सिंह
July 1 at 12:31pm
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आदरणीय व्योम जी, विषयवस्तु और शैली के हिसाब से तो इसे 500 फीसद नवगीत ही माना जाना चाहिए। रचनाकार का मुझे पता नहीं। लेकिन जो भी है उसे शत् शत् नमन

-ओमप्रकाश तिवारी
July 1 at 1:06pm
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मेरा अध्ययन अत्यल्प है किन्तु मैं आदरणीय नचिकेता जी का नाम लेना चाहूँगा। उनके कुछ गीत मैंने पढ़े हैं। कुछ-कुछ वैसी ही शैली लग रही है।

-शुभम् श्रीवास्तव ओम
July 1 at 1:29pm
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Nirmal Shukla आदरणीय !
यह नवगीत है भाषा तथा शिल्प के हिसाब से महेश अनघ सम्भवत: इसके रचनाकार हैँ...........

-निर्मल शुक्ल
July 1 at 2:03pm
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रचनाकार का नाम खोजने का थोड़ा और प्रयास करें... बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन, नईम, दिवाकर वर्मा, गुलाब सिंह, नचिकेता, महेश अनघ ... इनमें से इस गीत का कोई रचनाकार नहीं है

-जगदीश व्योम
July 1 at 3:32pm
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व्योम जी आप और कितनी धैर्य की परीक्षा लेंगे..बता ही दीजिए मुझे लगता है कि संभवत: ये रमेश रंजक जी का जनगीत हो सकता है।..मैने इसे कहीं सुना या पढा है पर याद नही

-भारतेन्दु मिश्र
July 1 at 6:30pm
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जी भारतेन्दु जी... बताता हूँ जल्दी ही...... रमेश रंजक जी का नहीं है..... .

-जगदीश व्योम
July 1 at 9:01pm
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कहीं कैलाश गौतम तो नहीं

-रामशंकर वर्मा
July 1 at 10:13pm
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शुभम् श्रीवास्तव ओम जगदीश सर कहीं इसके रचयिता स्वयं आप ही तो नहीं। हम सभी के धैर्य की परीक्षा लेना बंद करें और रहस्य पर से अनावरण करें

=शुभम् श्रीवास्तव ओम
July 1 at 10:31pm
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रमाशंकर जी कैलाश गौतम जी का गीत नहीं है

-जगदीश व्योम
July 2 at 9:22am
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 शुभम जी, मेरा तो जन्म भी नहीं हुआ था जब यह रचना प्रकाशित हुई

-जगदीश व्योम
July 2 at 9:24am
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 कही निराला जी तो नही

-रंजना गुप्ता
July 2 at 9:56am
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शुभम् श्रीवास्तव ओम आदरणीय जगदीश सर। सही उत्तर चाहे जो भी दे किन्तु नवगीत-2013 की सर्वाधिक आवश्यकता मुझ प्रवेशार्थी को ही है। अत: आप मुझे सही उत्तर मैसेज बाक्स में दें। मैं उसे पटल पर रख देता हूँ

-शुभम् श्रीवास्तव ओम
July 2 at 1:04pm
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भाई जी अब तो बता ही दीजिये। बहुत अच्छा अभ्यास और नए-पुराने गीतकारों का स्मरण इस बहाने से हो गया

-रामशंकर वर्मा
July 2 at 5:23pm
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एक बात जो मेरे मन में आ रही है कि कोई अच्छा गीत/नवगीत पाँच दशक या और भी अधिक समय तक अपरिचित बना रहता है यदि उसके रचनाकार को कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिल पाता है अथवा आलोचना के मठाधीशों की कृपा नहीं होती .....
दूसरी बात यह कि यदि कोई गीत/नवगीत प्रभावशाली है तो वह कभी न कभी पाठकों की पसंद बन ही जाता है.... गीत का रचनाकार कौन है यह जाने बिना भी..... इस रचना को बिना नाम के होने पर भी नवगीत के वरिष्ठ रचनाकारों ने भरपूर सराहा बिना यह जाने कि यह किसका लिखा हुआ है ..... इस बहाने एक भूला बिसरा नवगीत चर्चा में आ सका... आप सभी का आभार......
यह रचना " विश्वनाथ राघव " की है, " धरती के गीत" संग्रह में 1959 में प्रकाशित।

-जगदीश व्योम
July 3 at 5:26am
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 वाह ! आपके कोष के क्या कहने !

-राजेन्द्र वर्मा
July 3 at 7:47am
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Jagdish Vyom क्या विश्वनाथ राघव के विषय में किसी को कोई जानकारी है

-जगदीश व्योम
July 3 at 5:03pm
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 वाह व्योम जी आप तो ऐसे ही श्रेष्ठ गीतो का खजाना दोस्तो को दिखाते रहें।मैने सन 1984 मे म.प्र. सरकार के कृषि विभाग द्वारा संकलित -धरती के लाल -शीर्षक गीत संग्रह मे किसानी के गीतो मे किसान जीवन के अनेक गीत पढे हैं,उसमे ..हे ग्राम देवता नमस्कार/सोने चांदी से नही किंतु /तुमने मिट्टी से किया प्यार ।..जैसी रचनाए भी थीं।संभवत:तभी कहीं इसे पढा है।तब मै ललितपुर के जखौरा ब्लाक मे प्रौढशिक्षा विभाग मे पर्यवेक्षक था ।लेकिन राघव जी की यह रचना है इस रूप मे मुझे याद नही आता।..बहरहाल किसान चेतना का बेहतरीन गीत तो ये है ही। राघव जी के बारे मे थोडा विस्तार कीजिए तो और अच्छा लगेगा।

-भारतेन्दु मिश्र
July 3 at 7:16pm
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जी भारतेन्दु जी, आप गीतों पर जैसी पैनी दृष्टि रखते हैं वह अनुकरणीय है..... राघव जी के विषय में मेरे पास और जानकारी नहीं है...... यह संग्रह मेरे पास है... खोजता हूँ ...... इसी बहाने कुछ चर्चा गीत नवगीत पर होती रहे ....

-जगदीश व्योम
July 4 at 10:19am
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मुझे गीति रचना इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि में ग्रामीण परिवेश में ही पला बढ़ा और वर्षों रहा हूँ ,शेष रचनाकार का नाम रहस्य में रखकर विमर्श करने कराने का यह प्रकार अधिक नहीं भाया
उस पर भी जाने माने लोग अनुमान ज्ञान में शून्य सावित हुए वह भी अकारण सीधी बात होनी चाहिए थी।

-मनोज जैन मधुर
July 3 at 9:40pm
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आदरणीय व्योम जी यह विडम्बना है गीत प्रकाशित होना एक बात है और प्रकाश में आना अलग बात है इसी तरह से कितने और रचनाकार होंगे और न जाने कितने और गीत होंगे जो ऐसे ही प्रकाशित होते हुए भी अप्रकाशित रह गये होंगे .....जब तक कहीं चर्चा न हो तब तक तो वे समय के गर्त में ही माने जायेंगे....जब तक कहीं किसी संज्ञान में नहीं आयेंगे तब तक इस संबंध में किसी का भी अनुमान शून्य ही होगा.....आप के द्वारा नवगीत काल के आरंभिक दिनो के इस नवगीत को पाठकों एवं मेरे जैसे विद्यार्थियों तक पहुचाने हेतु आभार.......

-निर्मल शुक्ल
July 3 at 11:01pm
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तीनों नवगीत दशकों के 30 नवगीतकारों में से आधो का नाम भी लोगों को शायद न मालूम हो। शुक्ल जी सही कह रहे हैं,गीत अपने आप में कठिन साधना है और नवगीत आधुनिक समय में उस कठिन साधना के परिणाम स्वरूप उपजा नवनीत है।..अब आज के कवियों में शब्द छन्द रस अर्थ बोध के स्तर तक पहुंचने का अवकाश नहीं बचा है। युगीन सत्य को गीत में उतार पाना किसी समय में कतई सहज नहीं रहा।..हम आज कम पढ़ने वाले ज्यादा कहने वाले मंच गोंचने वाले मित्रों से रूबरू हैं और इस अकविता के नए युग में खड़े हैं।

-भारतेन्दु मिश्र
July 4 at 7:08pm
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Saturday, August 29, 2015

गीत गागर में नचिकेता का लेख

गीत गागर में नचिकेता का लेख

== हर कविता की इच्छा अन्ततः गीत बन जाना है ==
"गीत गागर" पत्रिका [सम्पादक दिनेश प्रभात] के अप्रैल-जून २०१५ अंक में नचिकेता द्वारा लिखे गए "केदारनाथ अग्रवाल के गीतों की बनावट और बुनावट" शीर्षक लम्बे लेख की दूसरी कड़ी प्रकाशित की गई है.... नचिकेता जी ने केदारनाथ अग्रवाल के गीतों के बहाने गीत पर महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं.. 
अरुन कमल के कविता विषयक विचार इस लेख में देखें--
" हर कविता की इच्छा अन्ततः गीत बन जाना है। क्योंकि संगीत के सबसे पास का बिन्दु है, दो देहों के बीच बस एक स्पंदित भित्ति तक पहुँचना ही कविता का ध्येय है और श्रेय भी। जहाँ पहुँच कर भाषा बहुत हल्की भारहीन हो जाती है, शब्द अपनी पीठ से सारे माल असबाब, सारे स्थूल अर्थ को छोड़ते हुए, केवल छायाओं-प्रच्छायाओं को, आभासों को वरण करते हुए उस भाव दशा को व्यक्त करते हैं जिसमें पूरी जीवन-स्थिति अन्ततः तिरोहित या स्त्रवित होती है"

-डा० जगदीश व्योम
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टिप्पणियाँ-

जिसमें पूरी जीवन स्थिति अन्तत:तिरोहित यास्त्रवित होती है। कृपया स्पष्ट करें।

रमाकान्त यादव
June 17 at 3:42p
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अब जब तक नचिकेता जी के उद्धरणो की पडताल न कर ली जाए कुछ कहना कठिन है।अरुन कमल जी अच्छे कवि है किंतु वे गीत /नवगीत के विचारक भी हैं यह मेरे लिए नई जानकारी है।

भारतेन्दु मिश्र
June 17 at 8:03pm 
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मैने केदार बाबू के गीतो पर केन्द्रित जो लेख उनकी जंन्मशती के अवसर पर लिखा था (छन्दप्रसंग ब्लाग पर और प्रवक्ता डाट काम पर उपलब्ध है, उससे नचिकेता जी का आलेख कितना भिन्न है गीतगागर को पढे बिना नही कह सकता।जिज्ञासु चाहें तो लिंक देख कर अंतर समझ सकते हैं।
http://2.bp.blogspot.com/.../s1600/Kedarnath_Agarwal.jpg

भारतेन्दु मिश्र
June 18 at 9:15am 

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गीत गागर में नचिकेता का लेख

गीत गागर पत्रिका के अप्रैल-जून २०१५ अंक में नचिकेता द्वारा लिखे गए "केदारनाथ अग्रवाल के गीतों की बनावट और बुनावट" शीर्षक लम्बे लेख की दूसरी कड़ी प्रकाशित की गई है.... नचिकेता जी ने केदारनाथ अग्रवाल के गीतों के बहाने गीत पर महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं.. यह लेख नवगीतकारों को पढ़ना चाहिए.... इस लेख में आपको अपने मन में उठने वाले तमाम प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं..... लेख का एक अंश देखें-
" आज की आधुनिक काव्य-दृष्टि के अनुसार आज की बौद्धिक कविताओं की संरचना जितनी जटिल और उसके अर्थ निर्माण की प्रक्रिया जितनी अबूझ, अमूर्त और अर्थहीन होगी वह उतनी ही श्रेष्ठ कविता होगी। जो कविता पाठकों की समझ में नहीं आयेगी वह प्रभावशाली, कलात्मक और सोद्देश्य क्या खाक होगी ? .... जिस कवि से जनता सीधे संवाद करती हो उसे आज की अबूझ और निरी गद्यात्मक कविता जो व्यापक जन-जीवन से पूरी तरह विस्थापित हो चुकी है, से प्यार कैसे हो सकता है। इसलिए आज की नितान्त जटिल और पहेलीनुमा अबूझ गद्य कविता की वर्तमान स्थित को देखते हुए केदारनाथ अग्रवाल ने क्षुब्ध स्वर में कहा है कि आज-
" कविता को नंगा कर दिया गया है, उसकी रीढ़ तोड़ दी गई है, उसे हर तरह से अपंग कर दिया गया है, उसकी स्वर और ध्वनियाँ छीन ली गईं हैं, उसे भाषायी संकेतबद्धता से वंचित कर दिया गया है, उसे कवि के अचेतन मस्तिष्क में ले जाकर ऊलजलूल में भरपूर भुला-भटका दिया गया है ... अब आज जब सब दफ्तर के बाबू हो गए हैं.. छोटे-बड़े नगरों में खोये हुए और खाये गए हैं.. जनता से कट-कटा चुके हैं.. बोलने में बुदबुदाते हैं... लिखने को कविता लिखते हैं, मगर कविता नहीं लिवर लिखते हैं, नये-नये वाद-विवाद के चक्कर में डालडा के खाली डिब्बे पीटते हैं... करते कुछ नहीं, काफी हाउस में बकवास करते हैं.. पराये ( विदेशी कविता) की नकल में अकल खर्च करते हैं... और कविता को अपनी तरह बेजान बनाते हैं.. भाषा को चीर-फाड़ कर चिथड़े-चिथड़े कर देते हैं।" (गीत गागर, पृष्ठ 44)
[केदारनाथ अग्रवाल के गद्यात्मक कविता पर उनके इन विचारों से आप कहाँ तक सहमत हैं ]

-डा० जगदीश व्योम
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टिप्पणियाँ-

 बिलकुल सच कहा !जिस तरह आधुनिक पेन्टिंग को समझने के लिए एक जटिल व कृत्रिम बौद्धिकता और वाहियात समझ की जरूरत है, उसी भांति आज की बड़ी बड़ी साहित्यिक हिन्दी पत्रिकायें दुरूह और पहेली संरचना की कविताएँ छाप क्र जनता के सरोकारों से पूरी तरह विमुख है !उन्होंने तो नारी और काम पर ,कामशास्त्र को भी पानी पिला रखा है,और आलोचक पूरी तरह जुगाड़ू ,पक्षपाती , स्वजन हितैषी ,पेड न्यूज चैनल बन गए है!

-रंजना गुप्ता
June 8 at 1:02pm 
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 इस आलेख का पहला अंक हमने पढ़ा है. इसके बाद वाला अंक जिसकी चर्चा हुई है, अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। नचिकेताजी के आलेख से जो आपने उद्धरण दिया है वह अत्यंत सटीक और सार्थक है. इन तथ्यों का प्रचार आवश्यक है और समय की मांग भी. यह अवश्य है, कि पाठक के स्तर को सकारात्म्क आयाम मिले, इसके लिए भी रचनाकार को प्रयास करना है. अर्थात रचनाकार से मात्र भावमय पंक्तियों की सपाट अपेक्षा कभी नहीं होगी. तो दूसरी ओर, पाठक की अध्ययनप्रियता और सकारात्मक वैचारिकता रचना और रचनाकार दोनों के प्रति रचनात्मक सहयोग होंगी।

-सौरभ पाण्डेय
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श्रीकृष्ण तिवारी के नवगीत पर विमर्श

श्रीकृष्ण तिवारी के नवगीत पर विमर्श

नवगीत की जब चर्चा होती है तो कुछ नवगीतों के मुखड़े तुरन्त याद आ जाते हैं, इनमें से एक नवगीत है- " भीलों ने बाँट लिये वन, राजा को खबर तक नहीं.." इस नवगीत की आलोचना भी खूब की गई फिर भी इसमें कुछ ऐसा है कि सिर चढ़कर बोलता है..... कुछ विमर्श इस पर भी हो... बिना किसी पूर्वाग्रह के तथा इसकी परवाह न करते हुए कि इस नवगीत की आलोचना में पहले क्या-क्या कहा गया है? और किसने-किसने कहा है?.....

-डा० जगदीश व्योम
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भीलों नें बाँट लिये वन
राजा को खबर तक नहीं

पाप चढ़ा राजा के सिर
दूध की नदी हुई जहर
गाँव, नगर धूप की तरह
फैल गयी यह नयी खबर
रानी हो गयी बदचलन
राजा को खबर तक नहीं

कच्चा मन राजकुँवर का
बे-लगाम इस कदर हुआ
आवारा छोरों का संग
रोज खेलने लगा जुआ
हार गया दाँव पर बहन
राजा को खबर तक नहीं

उल्टे मुँह हवा हो गयी
मरा हुआ साँप जी गया
सूख गये ताल-पोखरे
बादल को सूर्य पी गया
पानी बिन मर गये हिरन
राजा को खबर तक नहीं

एक रात काल देवता
परजा को स्वप्न दे गये
राजमहल खण्डहर हुआ
छत्र-मुकुट चोर ले गये
सिंहासन का हुआ हरण
राजा को खबर तक नहीं

-श्रीकृष्ण तिवारी
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ये मंचीय गीत है-लोक कथा को गीत का रूप देने की जतन की गई है। ,चमत्कारिक भाषायी प्रयोग के लिए लोग इसका खूब उदाहरण देते हैं।पूरा गीत एक तरह से -अन्धेर नगरी चौपट राजा वाली -(बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय की)चेतना का प्रतीक है।अर्थ की दृष्टि से इसमे कुछ ज्यादा नही निकलने वाला है।हां -राजा को खबर तक नही-बस ये एक पंक्ति है जो इसे नवगीत के समक्ष खडा करती है।कुछ उलटबांसियां भी इस गीत को चमत्कारी बनाती है-उल्टे मुँह हवा हो गयी
मरा हुआ साँप जी गया
सूख गये ताल-पोखरे
बादल को सूर्य पी गया..इत्यादि

-भारतेन्दु मिश्र
July 11 at 6:27pm 
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बिखरे बिखरे अर्थोंवाला गीत।अपनी रव में बहता हुआ गीतकार बहक बहक जाता है।सरोकारों के प्रति भी दृष्टि स्पष्ट नहीं।भीलों का वन बाट लेने में और रानी के बदचलन होने को एक ही तराजू से तोल दिया गया है।आखिर राजा का कैसा चरित्र चाहता है गीतकार?दिमाग बाहर रखकर गुनगुनाने में कई बार मजा आता है।हमने आदत जो बना रखी है इस तरह की।कथित ज्ञानियों ने हमें सोचने ही कब दिया ? उनके सम्मोहन के अपने तरी के हैं।क्योंकि हम तो सुनने वाले ही रहे!मूकदृष्टा ही रहे!

-रमाकान्त यादव
July 11 at 8:19pm 
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मैंने इस गीत/नवगीत का मुखड़ा शायद किसी नवगीत संकलन की भूमिका में पढ़ा था, पर इसके बारे में पूर्व में क्या कहा गया है, से परिचित नहीं हूँ। मुखड़े में भी रचनाकार समय का कौन सा प्रसंग व्यक्त कर रहा है, कम से कम मैं समझने में असमर्थ हूँ। "'भीलों ने बाँट लिए वन"' अब सरसरी तौर पर तो यही लगता है, भील तो वनों में रहते हैं, तो वन के वे सहज उत्तराधिकारी हैं, अगर उन्होने बाँट भी लिए तो क्या। आगे अंतरों में राजतंत्र के बदचलन होने का जिक्र है, फलस्वरूप सत्ता हाथ से जाने का जिक्र है, पर "'छत्र-मुकुट चोर ले गये"' अगर राज्य क्रांति भी हुई तो क्रांतिधर्मा तो नायक हुए, चोर कैसे हो गए। पर इस गीत में किस्सागोई है और लय प्रभावित करती है। यह भी की इतना सब कुछ हो गया और राजा को खबर तक न हुई।

रामशंकर वर्मा
July 13 at 4:01pm 
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गीत का मुखड़ा आकर्षित करता है ,लेकिन भीलों का प्रयोग किसके लिए किया गया है यह स्पष्ट नहीं हो पाता,यदि भ्रष्टाचार के संबंध में प्रयुक्त करे तो दूसरे बन्ध से भाव असम्पृक्त हो जाता है।गीत में भावान्वित का अभाव प्रतीत होता है।क्योंकि यदि नई पीढ़ी के लिए राज कुअँर का प्रयोग करें तो वह भी युक्त संगति नहीं है पूरी पीढ़ी तो गुमराह नही है ,कुल मिलाकर अस्पष्ट है । अर्थभावन की दृष्टि से गीत ?

डा० विनय भदौरिया
July 23 at 9:14am 
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