[ कृपया इस गीत पर विचार करें।क्या इस गीत को लिखते हुए गीतकार ने सम्यक् दृष्टि अपनायी है?निचले तबके को सम्बोधित करते हुए गीतकार किस मानसिकता से ग्रसित है?क्या माना जाए कि गीत नवगीत में सवर्णवादी मानसिकता हावी है?
-रमाकान्त यादव ]
शैलेन्द्र शर्मा का नवगीत-
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रमधनिया की जोरू धनिया
जीत गई परधानी में
रमधनिया की पौ-बारा है
आया ' ट्विस्ट ' कहानी में
पलक झपकते कहलाया वो
रमधनिया से रामधनी
घूरे के भी दिन फिरते हैं
सच्ची-मुच्ची बात सुनी
लम्बरदार- चौधरी रहते
अब उसकी अगवानी में
जो बेगार लिया करते थे
आदर से बैठाते हैं
उसकी बाँछें खिली देखकर
अंदर से जल जाते हैं
तिरस्कार की जगह शहद है
उनकी बोली-बानी में
पाँच साल के भीतर-भीतर
झुग्गी से बन गया महल
उसकी ओर न रुख करते थे
वे करते हैं आज टहल
अब वह मौज़ लिया करता है
उनकी गलत- बयानी में
पहले जो डपटा करते थे
उसे देख मुस्काते हैं
वही दरोगा वही बी.डी.ओ.
आकर हाथ मिलाते हैं
आने लगा मज़ा अब उसको
' ऐय्याशी- दीवानी ' में
-शैलेन्द्र शर्मा
( " राम जियावन बाँच रहे हैं " से उद्धरित )
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गीत पर विचार करने से पहले इस बात पर विचार करना उचित होगा कि क्या नवगीत विधा में भी अगडा, पिछडा, दलित, स्त्री, सर्वहारा के नाम पर गोलबन्दी किया जाना उचित होगा।
July 10 at 8:12pm
-रमाशंकर वर्मा
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समूचा समाज जातीय मानसिकता के घेरों में कैद है और राजनीति दलों के दलदल में फँसी हुई है.... साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है..... यह नवगीत समाज का एक चित्र उपस्थित कर रहा है। July 11 at 5:30pm
-डा० जगदीश व्योम
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बेहेतरीन नवगीत है, जो अपने सामाजिक सरोकार को जस का तस प्रस्तुत करने मे सक्षम है। रमधनिया के चरित्र का विस्तार(जिसमें उसकी प्रगति / दुर्गति भी शामिल है)हुआ है। शैलेन्द्र शर्मा जी को बधाई इस सुन्दर नवगीत के लिए ।
July 11 at 5:56pm
-भारतेन्दु मिश्र
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भारतेन्दु मिश्र जी कह रहे हैं कि यह बेहतरीन नवगीत हैऔर मुझे इस पर आश्चर्य हो रहा है।किस लिहाज से यह बेहतरीन नवगीत हो सकता है?रमधनिया की जोरू धनिया यह तुक ताल भिड़ाने वाली मानसिकता कौन सी है?क्या किसी उच्च जाति के पात्र को भी इसी अन्दाज में गीतकार ने सम्बोधित किया है?आप कहते हो कि रमधनिया के चरित्र का विस्तार किया गया है जब कि वह सम्बोधन से लेकर प्रस्तुतीकरण तक गीतकार के व्यंग्य वाणों की चुभन के बीच है।रमधनिया की पौ बारा है -इसका क्या मतलब?मतलब गीतकार को यह सहन नहीं हो रहा है?कुछ पाने पर खुशी किसको नही होती?रमधनिया को भी है तो किसी को इतना क्यों खले कि पौ बारा जैसा वाहियात मुहावरे का वह इस्तेमाल करे।जमीनी सच्चाई तो यह हा कि अधिकतम दलित प्रधान स्वतंत्र होकर काम नही कर पाते।वे सदैव किन्हीं पंडित जी या ठाकुर साहब के दबाव में ही काम करने को लाचार हैं।कोई स्वतंत्र होकर काम करना चाहे तो उसके खिलाफ हजार साजिशें हैं हथकंडे हैं।यह झूठ है अतिरंजना है कि लम्बरदार चौधरी उसकी अगवानी में रहते हैं।अभी स्थितियां इतनी नही बदली हैं।आपको परेशानी यह भी है कि उस दलित ने पांच साल में महल खड़ा कर लिया।महल कहां किसने खड़ा कर लिया?आप खड़ा करने दोगे तब ना?झुग्गी की जगह घर बना लिया कहते तो भी ठीक था।जो सदियों से महल खड़ा करते रहे और अब भी कर ही रहे है उन पर किसी की दृष्टि नहीं जाती।और रमधनिया कोअंत में ऐसा पटका गीतकार ने कि आने लगा मजा अब उसकोऐय्याशी दीवानी में।नही ;गीतकार ने जानबूझकर रमधनिया को यहां तक गिराया है।गीतकार इस पात्र के प्रतिपक्ष में शुरू से खड़ा हुआजान पड़ता है।उसकी अपनी मर्जी कि वह जिसको जहां चाहे गिरा दे?मैं फिर कह रहा हूं कि पीढ़ियो से जो ऐय्याशी कर रहे हैं उनकी तरफ हमारी दृष्टि क्यों नहीं जाती?और यह भी कहां तक उचित है कि हम या कि हम जिनकी पैरवी में हैं वे मौज मस्ती ऐय्याशी का जीवन जियें और दूसरों से हम अपेक्षा करें कि वे त्याग तपस्या में आदर्श उपस्थित करें।अफसोस है कि गीत नवगीत ने दलित साहित्य केपुरजोर हस्तक्षेप के बावजूद अभी सामंती रुख ही अपनाये रखा है।अगर कही कुछ है भी तो कृत्रिम बनावटी असंतुलित।क्या कोई दलित या दलित साहित्यकार इस गीत को पसन्द करेगा?मगर आप उनकी चिन्ता क्यों करेंगे?
July 12 at 11:14am
-रमाकान्त यादव
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आ.राम शंकर जी बृजनाथ जी जगदीश व्योम जी भारतेन्दु मिश्र जी आप सब की सारगर्भित टिप्पणी के लिये बहुत-बहुत हार्दिक आभार
July 12 at 1:44pm
-शैलेन्द्र शर्मा
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रमाकांत जी जरा किसी दलित बहुल गांव मे /आदर्श गांव मे जाकर देखें/जहां के प्रधान दलित हैं या उनकी पत्नियां प्रधान हैं।वे सब मनुवादी /सामंतवादी आचरण वाले हो गए हैं कि नही..यह भी देखने की बात है।तमाम ब्रहमण नेताओ को बहन जी के पांव छूते आपने न देखा हो मैने देखा है।..तो मेरा पैतृक गांव दलित बहुल है।मैने सीतापुर,ललितपुर,उन्नाव,हरदोई,लखनऊ आदि के गांव देखे हैं वहां रहा हूं नौकरी की मजबूरी से।अब सब जगह बदलाव आ चुका है कहीं कम कहीं ज्यादा।मेरा अवधी उपन्यास भी इसी तरह के चरित्रो प आया है -नईरोसनी-..खैर हर रचनाकार का अपना अनुभव क्षेत्र होता है ।केवल रायबरेली या एक जगह रहकर जाति समस्या पर या उसके आकलन पर टिप्पणी करना उचित नही है।सत्ता मिलते ही मनुष्य सामंतवादी/मनुवादी आदि हो ही जाता है।
July 12 at 8:22pm
-भारतेन्दु मिश्र
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पूर्वाग्रह रहित होकर ही किसी रचना पर सार्थक टिप्पणी की जा सकती है। नवगीतकार ने नवगीत के मुखड़े में ही "आया ट्विस्ट कहानी में"' कहकर तथाकथित सामाजिक परिवर्तन की ओर संकेत किया है। राजनीति और समाजसेवा अब सिर्फ जेब भरने और ऐय्यासी के लिए है। यह सर्वविदित है। बड़ी कुर्सियों से होते हुए सत्ता का नशा अब गाँव पंचायत की चौपाल तक चढ़ गया है। कुर्सी और नशा दोनों जातिनिरपेक्ष हैं। रमधनिया तो एक प्रतीक मात्र है उस परिवर्तन का, जिसमें वही लिप्साएँ और भोकाल की प्रव्रत्ति घर कर गयी है, जिसके लिए पूर्ववर्ती को पानी पी कर कोसा था। निचले तबके का जनप्रतिनिधि अगर अपने पद का दुरुपयोग कर सरकारी धन की बंदरबांट करता है, तो उसका यह कहकर बचाव नहीं किया जा सकता कि पीढ़ियों से अन्य लोग भी यही कर रहे थे और यह उसका नैसर्गिक और मौलिक अधिकार है। रबड़ी देवी को राबड़ी देवी कह देने से मात्र से किसी की प्रतिष्ठा में चार चाँद नहीं लगते। अगर उसमें नैतिक गुण हैं तो वह रबड़ी देवी होकर भी प्रतिष्ठित है। नवगीत में कटु यथार्थ है, और यह समय को व्यक्त करने में सक्षम है।
-रमाशंकर वर्मा
July 13 at 1:55pm
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यह विमर्श व्यक्तिगत आक्षेप की ओर जा रहा है..... इसे कृपया यहीं बन्द करें...... सभी से अनुरोध है कि विमर्श नवगीत पर केन्द्रित रखें..... व्यक्तिगत टीकाटिप्णी से बचें.....
-डा० जगदीश व्योम
July 13 at 3:39pm
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नवगीत में नवता - गेयता दो अपरअधिकार िहार्य तत्व होने चाहिए। वे दोनों इस नवगीत में हैं. नवगीत का कथ्य चौंकाता है चूंकि अब तक यह प्रवृत्ति कम रचनाओं में सामने आई है. अपने सेवाकाल में कितने ही विधायक पतियों, सरपंच पतियों और पार्षद पतियों से सामना हुआ है. अपनी ही पत्नी से उसके पद के अधिकार संविधानेतर तरीकों से छीन लेना, पत्नी के पद की सरकारी मुहर अपनी जेब में रखना, उसके हस्ताक्षरों के जगह खुद हस्ताक्षर करना और उसकी जगह खुद बैठक में पहुँच जाना इस युग का सत्य है. इस प्रवृत्ति के विरुद्ध प्रधान मंत्री भी बोल चुके हैं. तुलसी के अनुसार प्रभुता मद काहि मद नाहीं …। अपने अधिकारों की रक्षा हेतु गुहार लगानेवाला अन्यों के अधिकार छीनने लगे यह कैसे स्वीकार्य हो? नवगीत में कहीं किसी पर कोई आक्षेप नहीं है. तथाकथित शोषितों द्वारा सत्ता मिलते ही अपने ही वर्ग के कमजोर लोगों का शोषण न्ययोचित कैसे माना जाए? नवगीत को दुर्बलतम के हित में खड़ा होना ही चाहिए.
-संजीव वर्मा सलिल
July 14 at 10:23am
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भाई सलिल जी सत्य वचन ।माना भारत का अतीत सामाजिक संगठन की दृष्टि से स्वस्थ नहीं कहा जा सकता किन्तु उन्हीं अपमूल्यों की पुनरावृत्ति को भी उचित नहीं कहा जा सकता ।अतीत में "अ"ने "ब"का शोषण किया । समय बदला अब "ब" के द्वारा "अ"का शोषण किया जाने लगा। उचित तो तब होता जब "ब"इतना दबाव बनाता कि "अ"शोषण से बाज आता और "ब"स्वयं शोषण न करता ।किन्तु न पहले और न आज ही समाज और समसयाओं से किसी को लेना देना है ।सभी क्षेत्रों में अवमूल्यन का एकमात्र कारण येनकेन प्रकारेण सत्ता छीनना भोगना और निपोटिज्म के एजेंडे पर काम करना भाड़ में जाय देश जनकल्याण और मानवता ।सब खेल जर जोरू जमीन की लूट का है ।अपराध जितने अधिक होगें जनता को प्राणरक्षा की उतनी ही समस्या होगी और जितनी अधिक समस्या होगी अपनी समसयाओं में उलझी रहेगी तथा दबाव में रहेगी और सत्ता भोग निष्कंटक चलता रहेगा।भाई अधिकार सुख बड़ा ही मादक होता है। सत्ता सुख चाहने वालों का एक उद्देश्य और एक ढंग होता है ।जाति धर्म के भेद के बिना।
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव
July 14 at 5:46pm
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होते हुए सामाजिक परिवर्तन को हूबहू परिलक्षित करता सार्थक नवगीत !बधाई भाई शैलेन्द्र जी !
-रामेश्वर प्रसाद सारस्वत
July 14 at 8:01pm
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अवनीश सिंह चौहान उपर्युक्त टिप्पणियों को पढ़कर मुझे लगता है कि साहित्य की आलोचना करना इतना आसान नहीं। यहाँ ज्यादातर साहित्यकार अपनी-अपनी ढपली बजा रहे हैं। काश इनमें से दो-तीन भी ठीक से आलोचनाएँ होती तो यह बहस सार्थक होती।
-अवनीश सिंह चौहान
July 15 at 10:37am
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समसामयिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण. सटीक अभिव्यक्ति...सुंदर नवगीत...
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला
July 15 at 5:09pm
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वर्तमान राजनैतिक जीवन का यथार्थ चित्रण है, इसे किसी जाति या वर्ग से न जोड़ा जाय तोअच्छा है।
बसन्त शर्मा
July 17 at 9:35pm
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आदरणीय भाई श्री अवनीश सिंह चौहान जी निवेदन है कि सार्थक आलोचना करके मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करें। ताकि कुछ मानक और सीमाएं निर्धारित हो सके और आलोचना की दिशा तय की जा सके। धन्यवाद
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव
July 18 at 8:13am
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यादव जी यह तो व्यंग है और सत्ता का चरित्र उघरता है......मुझे नहीं लगता कोई भी सच्चा रचनाकार सवर्ण या कुछ और होता वह केवल मूल्यों के साथ खड़ा होता है।
-वेद शर्मा
July 19 at 7:45pm
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पर सच्चे रचनाकार हैं कितने?जाति धर्म से परे होना इतना आसान है क्या?गीत में एक दलित पात्र को जिस तरह सम्बोधित किया गया है क्या किसी सवर्ण को भी ऐसे ही सम्बोधित किया है? मैं कहता हूं सारे रचनाकार जातिवादी हैं।जो होते हुए भी नहीं मानते हैं वे पाखंडी हैं।पाखंडी होना ही सबसे बुरा है।
-रमाकान्त यादव
July 19 at 7:56pm
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आप या मैं कुछ भी कहें पर उसके पीछे वस्तुनिष्ठताहोनी चाहिए ...कवि शायद कहनाचाह रहा है कि माया आते ही नाम सम्बोधन बदल जाते हैं सत्ता मिलतेह ी आदमी वही करने लगता है जिसके लिये वह दूसरों को कोसता है ....
-वेद शर्मा
July 19 at 8:54pm
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गीत में कोई दलित पात्र है ऐसी तो कहीं कोई बात नहीं कही गई है ।हाँ यह जरूर बताया गया है कि सत्ता का नशा और अधिकार सुख बड़ा ही मादक होता है येन केन प्रकारेण उसे पाकर यह दो टाँग का आदमी नामक जानवर मानवता के प्रति कितना हिंसक और अवमूल्यित हो जाता है यह पढ़े लिखे और अनपढ़ किसी से छिपा नहीं यह मद ही समाज में फैली अधिकां अव्यवस्थाओं की जड़ है और इस मद का समर्थक है निपोटिज्म।यह मद अगड़े पिछड़े दलित के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ होता है ।हाँ यह मद शंकर गौतम बुद्ध महावीर स्वामी कबीर महात्मा गाँधी लालबहादुर शास्त्री पर नहीं सवार हुआ ।सबसे अधिक मदमस्त था देवराज इंद्र ।और आज हर गली कूंचे में इंद्र की औलादें घूम रही हैं ।
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव
July 20 at 8:09am
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Ramakant Yadav बृजनाथ जी क्या आप अपने अलावा सब को मूर्ख समझते हो?रमधनिया की जोरू धनिया क्या ठाकुर है ब्राह्मण है श्रीवास्तव है ?आप लोग सदा ही औरों को मूर्ख बनाते आये हो और यही अब भी कर रहे हो।उपदेश देने में बड़ी बड़ी बातें करने में आप सब बहुत निपुण हो।मैं देख रहा हूं कि एक भी व्यक्ति ने मैने जो सवाल उठाये हैं उन पर विचार नहीं किया।तो यह किस तरह की मानसिकता है?कोई अन्य विधा होती तो ऐसी प्रस्तुति को शायद बहुमत न मिलता।पर गीत नवगीत अभी भीपिछली शताब्दियों में जी रहा है।शोषितों को अभी मुश्किल से मौका मिलना शुरू हुआ है कि हम उन्हें गरियाने लग गये।हम यह नही देखते कि व्यवस्था अभी भी हमारी बनायी हुई चल रही हैऔर हर अव्यवस्था में हमारा भी कहीं न कहीं हाथ है।हम यह नहीं कहते कि कोई दलित बुरा नहीं हो सकता पर उसका चित्रण करते हुए हमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है।हमें समय और समाज को समग्रता से देखना परखना होगा।वंचितों को एकदम से दोष देना ठीक नहीं।हम उनको गरियाने का भी तरीका सीखें।पहले स्वयं पूर्वाग्रह से मुक्त हों तब दूसरों को कहें।जब गीतकार अपनी प्रस्तुति में पूर्वाग्रह से युक्त दिखता है तो वह अपनी प्रस्तुति और दूसरों के साथ कैसे न्याय कर पायेगा।
-रमाकान्त यादव
July 20 at 9:16am
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अवनीश सिंह चौहान आदरणीय भाईसाहब बृजनाथ श्रीवास्तव जी, मुझे यह कहते हुए बहुत कष्ट हो रहा है कि आप आदरणीय रमाकांत जी द्वारा की गयी सार्थक आलोचना को ही स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उनके द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर भी आपके पास नहीं है। दुखद यह भी कि आपके गुट के तमाम लोग आँखों पर पट्टी बांधकर यहाँ टिप्पणी कर रहे हैं। मुझे तो लगता है कि इस गीत को लेकर आपकी दृष्टि ठीक नहीं है, या आप अपनी दृष्टि को 'सार्वभौमिक सत्य' मानकर चल रहे हैं। ऐसे में यदि मैंने कुछ लिख दिया तो आप कैसे मेरी बात समझ पाएंगे।
-अवनीश सिंह चौहान
July 20 at 10:05am
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Ramshanker Verma विमर्श के नाम पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप उचित नहीं है। नवगीत में सहज सम्प्रेषण और कथ्य पारदर्शी है। विमर्श भी उसी पर आधारित है। कौन किसके गुट में है, यह मेरी समझ से परे है। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि पुराने मुहावरों का प्रयोग करने में सावधानी बरतने की जरूरत है। घूरे के दिन बहुरने में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को आपत्ति क्यों होगी। हाँ एतराज की बात तब अवश्य होती जब उसे घूर बने रहने की वकालत की जाए। दूसरा "'घायल की गति घायल जाने की जिन घायल होय"' यह भी सत्य है। पीड़ा, लांछन, तिरस्कार का भुक्तभोगी अपनी अन्तर्व्यथा जिन शब्दों में व्यक्त कर सकता, उसी तरह कोई दूसरा व्यक्त करने में सक्षम नहीं हो सकता। पर वह कवि भी हो जरूरी नहीं। उसकी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए समाज के किसी भी वर्ग का संवेदनशील व्यक्ति आगे आ सकता है। सवाल यह है कि निचले तबके के प्रतीक शब्द "'रम धनिया'"' का प्रयोग क्या नवगीत में असंसदीय है। दूसरा आक्षेप इसके कथ्य को लेकर है कि ऐसे चित्रण में सावधानी की आवश्यकता है। तो यह सावधानी और चुनौती तो रचनाकार को हर स्तर पर है।
-रमाशंकर वर्मा
July 20 at 1:06pm
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अवनीश सिंह चौहान मैंने जिस गुटबंदी की ओर संकेत किया था उसकी एक परत खुलकर आई। अभी कई और परतें हैं जो सामने आएंगी।
-अवनीश सिंह चौहान
July 20 at 1:45pm
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Ramshanker Verma छींटाकशी से इस विमर्श में कोई सार्थक मंतव्य नहीं निकलेगा।
-रमाशंकर वर्मा
July 20 at 2:22pm
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शैलेन्द्र शर्मा जी के गीत 'रमधनिया की जोरू धनिया 'पर बहस में रमाकांत यादव जी द्वारा जो प्रश्न उठाये गए हैं उन पर बहस में भाग लेने वाले टिप्पणीकारों ने एक का भी समुचित उत्तर नहीं दिया है बल्कि गीत में प्रयुक्त 'आया ट्विस्ट कहानी में' को चरितार्थ करते हुए गीत की अनुकूल व्याख्या की जा रही है। कोई भी रचनाकार अपने समय से निरपेक्ष नहीं रह सकता एवं परिस्थितियों के संघात से चेतना में हुए परिवर्तन के अनुसार उसकी मानसिकता ,मंतव्य और प्रतिबद्धता निर्मित होती है। रचनाकार के लेखन में उसी चेतन -अवचेतन मानसिकता की अभिव्यक्ति होती है। भारतीय समाज व्यवस्था पतनोन्मुख सामन्ती और विकासशील पूंजीवादी मूल्यों के दौर से गुजर रही है। जिसमें वर्ग और वर्ण के मूल्य समाज के हर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के अनुसार चेतना पर हावी रहते हैं। प्रगतिगामी सोच वाला मनुष्य अपने अध्ययन ,सामाजिक संपर्क और स्वविवेक से अपने मंतव्यों और मानसिकता को बदलने में सफल हो जाता है जिसे वर्गहीनता की श्रेणी के रूप में ग्रहण किया जाता है। एक साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लेखन में निष्पक्ष भाव से समय और समाज का विश्लेषण करते हुए अपनी समकालीनता पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता हुआ न्याय ,समता ,बंधुता के सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों की रक्षा करे।
-जगदीश पंकज
July 20 at 10:17pm
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प्रस्तुत गीत में शैलेन्द्र शर्मा जी ग्राम के प्रभुत्वशाली वर्ग की पीड़ा का उल्लेख ही कर रहे हैं। उन्होंने अपने वर्ग की जिस त्रासदायक कसमसाहट ,मिस्मिसाहट और असहाय स्थिति का चित्रण किया है वह उसमें सफल रहे हैं। शैलेन्द्र जी जिस वर्ग या वर्ण से सम्बन्ध रखते हैं उसके वर्गहित पर पहुंची चोट और बेबसी को ही तो गीतके माध्यम से व्यक्त किया गया हैं। जिस व्यक्ति रमधनिया के माध्यम से स्थानीय सत्ता के सबसे निम्न पद पर पत्नी का चुनाव होने से मनोविज्ञान में हुए परिवर्तन और पांच साल में झुग्गी से महल तक की यात्रा का वर्णन किया है वह उसी सामंती संस्कारों में जीने वाले प्रभावशाली और प्रभुत्व वाले लोगों की दया-कृपा से तो चुना ही नहीं गया होगा बल्कि वह अपनी और अपने जैसे लोगों की संयुक्त शक्ति से ही देश-प्रदेश की दलितों /पिछड़ों /महिलाओं के प्रतिनिधत्व की नीति के कारण ही यह चुनाव जीत पाया है। उस दबंग वर्ग की त्रासदी यह है कि उन्हें उस दलित वर्ग से अपना चाटुकार और जी हुजूरी करने वाला कोई नहीं मिला या मिला भी तो वह चुनाव जीत नहीं पाया। तभी तो कसमसाहट है कि जिससे दबंग अब तक बेगार कराते थे अब उसकी अगवानी करने को विवश हैं। इसी के साथ शासन-प्रशासन के अधिकारियों का उसे तरजीह देना भी देखा नहीं जा रहा है। इस गीत से यह भी प्रकट होता है कि पहले जो नैतिक-अनैतिक ,वैध-अवैध लाभ जिस प्रभुत्वशाली वर्ग को मिलता था और जिसके द्वारा वे भी पांच साल में महल खड़े करते थे वे उससे वंचित हो गए हैं तथा वह व्यक्ति भी इतना सशक्त है कि उसका कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे और उस दलित की दबंगई के आगे बेबस हैं। शैलेन्द्र जी अपनी और अपने वर्ग की पीड़ा को व्यक्त करने में सफल रहे हैं।पूरे गीत में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि यह सब देश की सामाजिक -राजनैतिक व्यवस्था की देन है। यदि गीत में ऐसा कुछ संकेत होता तब भी गीतकार की मानसिकता पर इतने प्रश्न नहीं उठते किन्तु जाने या अनजाने में शैलेन्द्र शर्मा उत्पीड़क/शोषक दबंग वर्ग के पक्षधर की भूमिका निभा रहे हैं। समूह में यह गीत रमाकान्त यादव जी के प्रश्नों के कारण बहस में आ गया है। गीत की भाषा -शैली कथ्य के अनुरूप है।पूरे गीत में जाति का उल्लेख नहीं है लेकिन भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में जो लोग बेगार करने को विवश हैं वे दलित ही हैं चाहे जाति कोई भी हो। मेरा निवेदन है कि सुविज्ञ जन प्रस्तुत गीत और उसके निहितार्थ को दृष्टिगत रखते हुए अपना अभिमत रखेंगे तो सार्थक विमर्श हो सकेगा।
-जगदीश पंकज
July 20 at 10:17pm
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यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकता
एकैकं अनर्थाय किम् तत्र चतुष्टयम् !!
यौवन धन सम्पत्ति प्रभुत्व और अविवेक.. इनमें से एक-एक अनर्थकारी है.. जिसके पास ये चारों हों वहाँ या उसका क्या ? अर्थात उसका कैसा आचरण होगा ?
महती यह नहीं कि किसने क्या किया, महत्त्वपूर्ण है कि प्रवृति क्या थी. क्या हम इस आलोक में कभी सोचना शुरु कर पायेंगे. या भँड़ास निकालने के तहत व्यवस्था का विरोध नहीं, अपितु स्वीकार्य अनुमन्य व्यक्तियों को पोषित करते हुए प्रवृति विशेष को ही प्रश्रय देते रहेंगे. यदि ऐसी सोच के अंतर्गत हम वैचारिक हो रहे हैं, तो अफ़सोस हमारे जैसा वाचाल, दुराग्रही और ढोंगी विचारक और कोई नहीं होगा. ऐसी स्थिति में हम विचारक नहीं, अपनी बारी की प्रतीक्षा करते घोर अवसरवादी ही होंगे. अगर ऐसी संज्ञा और मान से परहेज नहीं है तो फिर वर्ण-वर्ग भेद पर सारा विमर्श, सारी परिचर्चा अनावश्यक ही नहीं, थोथी बकवाद है. जिसकी ओट में आजतक मुट्ठियाँ भींची जाती रही हैं.
मुझे न उच्च, न दलित, किसी से कुछ नहीं लेना देना. बस ये बस ये देखना है कि क्या आमजन सहज है ? या, रुपहले पर्दे पर चलचित्र के किसी नायक के नकली गुस्से पर तालियाँ पीटता हुआ अपने को लगातार अप्रासंगिक करता हुआ मूर्ख है ? करोड़ों में खेलने वाला तथाकथित वह नायक सफल हो कर जिस प्रवृति को जीता है, उसकी प्रतिच्छाया में मुग्ध एवं तुष्ट रहना यदि किसी वर्ग या व्यक्ति-समूह को रोमांचित करता है, तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना. अन्यथा, यह सालता है, बहुत-बहुत सालता है, कि हम दलित मनोविज्ञान की समझ के नाम पर अपनी दमित इच्छाओं का पोषण चाहते हैं. ऐसी इच्छा किसी दलित या पीड़ित आंदोलन का हेतु कभी नहीं रही है. तभी ऐसे आंदोलन प्राणवान भी रहे हैं.
वैसे यह सही है, कि सदियों-सदियों से पीड़ित-शोषित वर्ग एक बार में अपनी दमित इच्छाओं से निस्संग, निस्पृह नहीं हो सकता. किन्तु, यह भी सही है, इस घर को सबसे अधिक खतरा घर के चिरागों से ही है, जो वैचारिक रूप से दिशाहीन हैं या शातिर-दबंगों तथा ’शास्त्रीय’ शोषकों के हाथों की कठपुलली हैं. ऐसी ही एक कठपुतली का ज़िक्र यह नवगीत गा रहा है.
एक बात:
किसी नाम के साथ शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्र, पाण्डेय, सिंह या वर्मा या ऐसे ही ’आदि-अनादि’ ’प्रत्यय’ देख कर, अपने मत और मंतव्य बनाने हैं, चीख-चिल्लाहट मचानी है, तो यह परिचर्चा के क्रम में महाभारी उथलापन और गलीज छिछलापन का द्योतक होगा. यह कत्तई साहित्य नहीं. ऐसे साहित्य को, क्षमा कीजियेगा, साहित्य नहीं घटिया राजनीति से प्रभावित परिवाद कहते हैं. फिर तो पीड़ितों व शोषितों के नाम पर आज ’एक वर्ग’ विशेष सबसे अधिक --जायज-नाजायज रूप से-- लाभान्वित होने का दोषी है. उक्त वर्ग से ताल्लुक रखने वाला आज हर तरह से रंगा सियार है. उसके किसी दिखावटी और थोथे गुस्से से कोई क्यों प्रभावित होने लगे ? ऐसी सोच क्या घटिया सोच नहीं होगी ? अवश्य होगी. अतः साहित्य को साहित्य ही रहने दिया जाय. सारी सड़कें राजधानी से गुजरती हैं का आलाप कितना कुछ बरबाद कर चुका है इसे क्या अब भी समझना बाकी है ?
अब इस नवगीत पर -
यह एक व्यंग्य है जो आजके समाज की नंगई को उघाड़ कर सामने लाने में सक्षम है. रमधनिया स्वयं रामधनी बने या किसी शातिर का मुहरा बना प्रधानपति श्री रामधनी कहलाता फिरे , वह दोनों स्थितियों में अपने वर्ग और समाज केलिए एक निपट गद्दार है. वह सिर्फ़ अपना भला देख रहा है. इस व्यक्तिवाची सोच का यदि कोई वर्ग समर्थन करता है तो यह स्वार्थी सोच का पोषण ही कहलायेगा.
ऐसे ही ’गद्दारों’ के दुष्कृत्य से ही विसंगतियाँ पैदा होती हैं. यही समाज में आज तक व्याप रही विद्रूपता का मूल कारण है. विद्रूपता को तारी करने का ठेका किसी वर्ग विशेष के माथे डाल कर कोई दोषी इकाई या वर्ग मुक्त नहीं हो सकता.
आगे, यह भी स्पष्ट करता चलूँ, कि इस नवगीत के इंगितों में जिस तरह से शातिरों के प्रभाव को रेखांकित किया गया है जिसकी प्रभावी पकड़ में रमधनिया और उसकी प्रधान बीवी है, उसकी ओर यदि समीक्षा के समय दृष्टि नहीं जा रही है, तो यह समीक्षकों की समझ का दोष है.
नवगीतकार इस प्रस्तुति के माध्यम से उच्च स्तर के व्यंग्य केलिए बधाई का पात्र है. नवगीत आज के पद्य-साहित्य की यदि धुरी है तो इस धुरी की कड़ियों को टुच्ची राजनीतिक् सोच से कमजोर न किया जाय.
शुभ-शुभ
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 1:27am
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अब कुछ परतें खुल चुकी हैं। अभी भी कुछ परतें बाकी हैं, जो इससे भी बड़ी हो सकती हैं।
-अवनीश सिंह चौहान
July 21 at 11:03am
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आदरणीय जगदीश व्योम जी, ये कैसी गतिविधियाँ हैं ? ये क्या चल रहा है ? प्रतिक्रिया स्वरूप वन-लाइनर उलटबासियों से किसका भला हो रहा है ? साहित्य का तो कदापि नहीं. मैं किसी वाद या मठ का न हिस्सा था, न हूँ. ऐसे में थाहने की कोई कोशिश अन्यथा कर्म ही होगा.
जगदीश व्योम --
"सभी सदस्यों से अनुरोध है कि यहाँ नवगीत विषयक अपनी राय, नवगीत विषयक प्रश्न, नवगीत विषयक टिप्पणी, चर्चा आदि में सहभागिता करें.. यह आवश्यक नहीं कि आप किसी की बात से पूरी तरह सहमत हों.. परन्तु इसे वैयक्तिक न बनायें.... सभ्य भाषा का प्रयोग करें... नवगीत को अनेकानेक लोग समझना चाहते हैं...... यहाँ हम सब मिलकर अपनी अपनी सामर्थ्य से नवगीत के इर्द गिर्द घिरे कोहरे को सहज विमर्श के द्वारा हटाने में सफल हो सकेंगे..... इसी अनुरोध के साथ सभी सदस्यों का स्वागत है.."
सही है.. लेकिन जिन्हें राजनीति करनी है वे करें न. खुल कर करें. किसने रोका है ? लेकिन साहित्यांगन में उनका क्या काम है ? रसोईघर को गुसलखाना समझ लिया है क्या ? व्यवस्था विरोध के नाम पर किसी ’मंतव्य विशेष’ का पृष्ठपोषण न उचित था, न है. न कभी मेरे लिए उचित होगा. लाचारों से लम्बी दौड़ संभव नहीं होती.
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 2:04pm
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वाह क्या निष्कर्ष निकला पूरे विमर्श का। चूँ-चूँ का मुरब्बा। जब केवल इस नवगीत के कथ्य पर विमर्श हुआ तो वही बात आदरणीय भारतेन्दु मिश्र, आचार्य संजीव सलिल, व्योम जी, बृजनाथ जी, जगदीश पंकज जी, सौरभ जी, वेद शर्मा जी सहित सभी मर्मज्ञों ने कही। क्या निकला, यही कि सत्ता पाते ही उस वर्ग में भी वही नैतिक पतन के कीटाणु प्रवेश कर गए, जो सत्ताच्युत वर्ग में थे। यही कि नवगीत में यथार्थ की सांचबयानी है। शेष तो अपनी-अपनी विचारधारा को नवगीत पर आरोपित कर दिया गया।
-रमाशंकर वर्मा
July 21 at 2:20pm
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किसी साहित्यिक रचना में कथ्य उसका प्राण होता है। प्रस्तुत गीत में रमाकांत यादव जी द्वारा कथ्य पर ही प्रश्न उठाये हैं जो अभी भी उत्तर मांग रहे हैं। प्रश्नों में जिस कटु सत्य का उल्लेख किया गया है वह कुछ मित्रों द्वारा पचाया नहीं जा रहा तथा अपने पूरे पांडित्य प्रदर्शन के बावजूद वैचारिक अजीर्ण की स्थिति से ग्रस्त होकर अनर्गल टिप्पणी करके रोदन कर रहे हैं। मान्यवर, विचार का विचार से और तर्क का तर्क से उत्तर दें तो विमर्श को सार्थक दिशा मिलेगी। अपने आप्त वचनों से समूह को समृद्ध करके और अपनी खीज और तिलमिलाहट को विमर्श के नाम पर उगल कर आपने क्या कमी छोड़ी है अपनी मानसिक दुर्गन्ध को समूह में फेंकने की? आप कहते हैं कि आपका किसी वाद या विचारधारा से कोई लेना देना नहीं क्या यह भी किसी यथास्थिति का वाद या विचार नहीं? वाह-वाह सुनने वाले कान सार्थक असहमति के स्वर सुनने से क्यों कतरा रहे हैं ?बहरहाल ,मेरा पुनः निवेदन है कि पलायन करने के बजाय रमाकांत यादव द्वारा प्रस्तुत नवगीत पर उठाये गए साहित्यिक प्रश्नों का साहित्यिक उत्तर दें तो समूह के विमर्श और संवाद-परिसंवाद के लिए हितकर रहेगा तथा अनेक मित्र जो इस विमर्श पर टिप्पणी न करते हुए भी ध्यान से पढ़ रहे हैं उन्हें भी अच्छा लगेगा।
-जगदीश पंकज
July 21 at 3:18pm
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भाइयों! पहले ये तय कीजिए कि आप नवगीत पर बहस कर रहे हैं या जाति की सवर्णवादी मानसिकता पर।दोनो का विमर्श अलग अलग रूप/तर्को/उदाहरणो से होना चाहिए।मेरे विचार से खुरपी से दाढी नही बनाई जा सकती और ब्लेड से घास नही छीली जा सकती।तो मेरा मानना है कि पहले तो हम ये तय करें फिर तार्किक ढंग से बात करें।व्यक्तिगत आक्षेप करना उचित नही है।..जहां तक रमाकांत यादव जी का प्रश्न है कि ये गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है..ये सही बात है ..लेकिन ये मानसिकता कवि के साथ नही बल्कि रमधनिया से रामधनी बनने के बीच जो उसके चरित्र मे परिवर्तन हुआ है उस सत्ता सुख के साथ जुडी है तात्पर्य ये कि जब कोई सत्ता तक पहुंच जाता है तो वह सवर्णता वादी /मनुवादी आचरणो व्यवहारो को सहज मे ही अपना लेता है।जीवंत उदाहरण मायावती जी है -उनके तमाम सवर्ण पैर छूते हैं। उनपर लाखो के नोटो के हार चढाये जाते हैं/ उनकी मूर्तियो का निर्माण भी हो चुका है।जब ये सब हो रहा था तब सतीश मिश्रा जी उनके सलाहकार थे।उनकी हर बात उन्हे स्वीकार करनी होती थी।..मै इसे गलत नही मानता हूं।ये सामाजिक प्रक्रिया है।कभी नाव पानी पर कभी पानी नाव पर भी होता है।विकासवादी समाजशास्त्री विचारको से पता करें।..तो मित्रो हमे व्यक्तिगत आक्षेपो से अपने को और नवगीत को बचाना है।ये अगडे पिछ्डे दलित आदि विमर्शो से ऊपर उठकर रचना को समझने के लिए आवश्यक है।..जाति और समाजशास्त्र पर बहस अलग से करें-विनम्र आग्रह है।
-भारतेन्दु मिश्र
July 21 at 6:32pm
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आप क्या कह रहे और किस तरह की बात कर गये आदरणीय जगदीश जी ? ऐसा भी क्या आग्रह कि सारी बातें पाण्डित्य प्रदर्शन लगीं ? क्या आजतक ऐसा लगता रहा है आपको ? आपके ही नवगीत पर मैं आजतक क्या पाण्डित्य प्रदर्शन करता रहा हूँ ? और पलायन ? या मैंने अन्यथा चर्चा से स्वयं को विलग किया है ? आप मेरा सीधा मेरा नाम ले सकते हैं, साधिकार ले सकते हैं, आदरणीय. आपको इंगितों में कह ने की क्या विवशता हो गयी, आदरणीय ? यह कैसी साहित्य चर्चा है? जो व्यक्तिगत प्रहार को अपनी उपलब्धि समझती है ?
//रमाकांत यादव द्वारा प्रस्तुत नवगीत पर उठाये गए साहित्यिक प्रश्नों का साहित्यिक उत्तर दें तो समूह के विमर्श और संवाद-परिसंवाद के लिए हितकर रहेगा तथा अनेक मित्र जो इस विमर्श पर टिप्पणी न करते हुए भी ध्यान से पढ़ रहे हैं उन्हें भी अच्छा लगेगा //
निवेदन है, आप धैर्य से एक बार अपने लिखे को पढ जायँ. क्या ऐसा भी सोचा गया है कि रमाकान्तजी के कहे को पढा भी नहीं मैंने ? ये कैसी खौंझ है जो अपने को इतना अहंमन्य बना देती है ?
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 6:32pm
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भारतेन्दुजी, मेरा स्पष्ट मानना है कि ब्रह्मणवादी कोई व्यक्ति नहीं एक प्रवृति होती है. यदि इस महीन अंतर तक को नहीं जानता या किसी मंतव्य और वाद के तहत उसे जानने नहीं दिया जाता, तो समाज का हित नहीं. फिर सारी बातें चर्चा विमर्श आदि व्यक्तिगत क्रोध का पर्याय हैं. हम फिर लाख आमजन की बात करते रहें.. उसकी परिणति ’मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू’ से अधिक नहीं होने वाली. और हम आमजन की बात करते हुए किसी पर अहसान नहीं कर रहे हैं. फिर भी यह सोच है जो गलत को गलत और सही को सही ठहराने की चेतना देती है. यदि इस सोच पर ही प्रहार होने लगे. तो फिर सबकुछ भले होता दिखे, साहित्य चर्चा नहीं. और तुर्रा ये कि अनर्गल रोदन का पर्याय कहा जाता है. आखिर यह मतभेद है. लेकिन मनभेद के बीज रोपने को श्रेष्ठता कहा जा रहा है ? किसने किनको कितना चढ़ा दिया है भाईजी ?
एक बात और, जहाँ-जहाँ दोयम दर्ज़े का निरंकुश विचार हावी होता है, वहीं ब्राह्मणवाद हावी होता है, जो स्वयं को प्रभावी बताने के लिए हर तरह की धुर्तई और वाचालता अपनाता है।
-सौरभ पाण्डेय
July 21 at 6:44pm
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प्रिय सौरभ जी ,आपको मेरी टिप्पणी से आघात पहुंचा कि मुझे स्पष्ट कह देना चाहिए था और हमारे बीच के व्यक्तिगत संबंधों का उल्लेख किया है। मेरा कहना है कि आपकी पोस्ट से पहले भी कई लोगों ने अपने विचार प्रकट किये हैं तथा मेरी टिप्पणी के ठीक बाद आपका मत पोस्ट हुआ है जिसमें बहुत कुछ कहा गया है ,प्रासंगिक भी और अप्रासंगिक भी ,जिसे कई किस्तों में आगे बढ़ाया गया है। जिनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि मेरी टिप्पणी पढ़कर आप विचलित हो गए जबकि मैंने एक बहस को आगे बढ़ाते हुए अपना विचार रखा था और चाहा था कि रमाकांत यादव के प्रश्नों को दृष्टिगत रखते हुए विमर्श हो। आपके लगातार कई कमेंट्स से यही प्रकट हो रहा था कि आप प्रस्तुत नवगीत और नवगीतकार के बचाव में मुझ पर परोक्ष प्रहार कर रहे हैं। आपकी बेचैनी का कारण कुछ भी रहा हो।मैंने अपने मंतव्य में एक सामान्य चर्चा की है जिसे आपकी टिप्पणियों में अन्यथा लिया गया और परोक्ष रूप से कहा गया कि राजनीति चल रही है। जहां तक शैलेन्द्र जी का प्रश्न है मैं स्वयं उनके गीतों का प्रसंशक रहा हूँ तथा यथास्थान टिप्पणियाँ भी की हैं। और आपसे तो मेरे अनुजवत सम्बन्ध हैं। मेरा आशय नवगीत तक ही सीमित है, हम असहमत हो सकते हैं, विचार भिन्नता हो सकती है किन्तु कटुता से बचना उचित है। जहां तक रमाकांत यादव का प्रश्न है मेरा उनसे कोई व्यक्तिगत परिचय भी नहीं है तथा इसी समूह की एक अन्य पोस्ट पर मेरे उनसे भिन्न विचार हैं। मैंने अपने विचार बिना किसी दबाव और दुराग्रह के रखे हैं। इस पोस्ट की शुरुआत रमाकांत यादव द्वारा कुछ प्रश्नों के साथ की गयी है और उनका उत्तर चाहा है। मैं भारतेंदु मिश्र जी के साहस की सराहना करता हूँ कि उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है,… //..जहां तक रमाकांत यादव जी का प्रश्न है कि ये गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है..ये सही बात है ..लेकिन ये मानसिकता कवि के साथ नही बल्कि रमधनिया से रामधनी बनने के बीच जो उसके चरित्र मे परिवर्तन हुआ है उस सत्ता सुख के साथ जुडी है तात्पर्य ये कि जब कोई सत्ता तक पहुंच जाता है तो वह सवर्णता वादी /मनुवादी आचरणो व्यवहारो को सहज मे ही अपना लेता है।// .... और पूरी तार्किकता से अपनी बात के समर्थन में जीवंत सामाजिक उदाहरण दिए हैं। वे उदाहरण साहित्येतर हो सकते हैं किन्तु काल्पनिक नहीं हैं । विमर्श में मतभिन्नता तो होनी ही है अतः अपने विपरीत मत और उसके आशय को समझने का स्थान बनाये रखना चाहिए। मैं समझता हूँ कि इस नवगीत पर काफी विमर्श हो चुका है और आगे बढ़ने पर तल्खियाँ ही बढ़ने का भय है अतः अब विराम देकर समापन की ओर बढ़ा जाये।
सादर,
-जगदीश पंकज
July 21 at 11:31pm
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Saurabh Pandey इस तरह से कुछ भी समझ लिये जाने को, भाईसाहब, योग सूत्र में ’विपर्यय’ कहते हैं. जो मात्र अपनी आग्रही मान्यताओं तथा सूचनाओं पर निर्भर करता है, नकि तार्किक सोच पर.
आपसे निवेदन है कि आप पुनः मेरी दोनों टिप्पणियों को पढें. विशेषकर नवगीत की समीक्षा वाले भाग को. आप समझेंगे, उस पोस्ट का समापन कैसे हुआ है. आपको स्प्ष्ट होगा कि मैंने भी ढोंगी प्रवृति और तथाकथित सवर्ण-व्यवहार को हर तरह की विद्रूपता का कारण माना है.
सर्वोपरि, मेरी टिप्पणियों का आधार आपकी टिप्पणी थी ही नहीं. वस्तुतः, अपनी टिप्पणियों को पोस्ट करने के बाद मैंने आपकी टिप्पणी देखी थी. मैं भाई रामशंकर वर्माजी से टिप्पणियों के माध्यम से जिस तरह से बातचीत करता चला गया हूँ, उसे भी देख जाइये. खैर..
दो बातें अवश्य कहूँगा -
एक, नवगीत समीक्षा में मैंने यदि कदम बढाये हैं तो यह मेरे अपने मंतव्यो को थोपने का माध्यम नहीं बनेगा. इसके प्रति सभी आश्वस्त रहें.
दो, हर रचनाकार में एक सचेत पाठक अवश्य हो, अन्यथा रचनाकार की आत्ममुग्धता उसे कुछ भी करा सकती है. उसके क्रोध को दिशाहीन कर सकती है. जबकि रचनाकार के हृदय की ज्वाला साहित्य संवर्द्धन के लिए अत्यंत आवश्यक है. समाज वही समरस होता है जिसके सदस्य अपने सार्थक क्रोध को सदिश रख पाते हैं. तभी वे तार्किक ढंग से वैचारिक होते हैं.
जगदीश जी, आपके माध्यम से कुछ सदस्यों को पुनः कहूँगा - संपर्क और सान्निध्य से परिचित हुआ जा सकता है, रचनाकर्मी और साहित्यकार नहीं हुआ जा सकता. वर्ना प्याज लिए बैठे रहेंगे और प्याजी कोई और खायेगा.
मैं कुछ भी हृदय में नहीं रखता. लेकिन यह अवश्य है कि, रचनाओं पर समाज के सापेक्ष परिसंवाद तथा राजनीतिक एवं समाजशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में दिये जाने वाले तर्क दो भिन्न स्थितियाँ पैदा करते हैं. हमारी चैतन्य-सोच इसे समझे और इसे अवश्य गुने. आदरणीय रमाकान्तजी का रचनाकर्म साग्रह हो लेकिन उन्हें गीत-नवगीत की समझ बढ़ानी होगी. वर्ना माहौल बार-बार अग्निमय होगा. क्योंकि गाँठें जब खुल जाती हैं तो बार-बार खुलती हैं
आदरणीय जगदीशजी, हर समय विमर्श के नाम पर लट्ठ भांजना अखाड़ो का आचरण है. हम अखाड़ेबाजी न करें.
सादर
-सौरभ पाण्डेय
July 22 at 12:13am
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अवनीश सिंह चौहान प्रिय सौरभ जी, विमर्श के नाम पर लट्ठ भांजने का कार्य कौन कर रहा है और वह भी गुट बनाकर? यह पाठक बखूबी समझ रहे हैं और आदरणीय जगदीश पंकज जी भी संकेत कर चुके हैं। तिस पर भी आप आदरणीय जगदीश पंकज जी को नसीहत दे रहे हैं। आपने तो रमाकांत जी को भी नसीहत दे डाली कि उन्हें अपनी समझ बढ़ानी होगी। आपने आदरणीय डॉ जगदीश व्योम जी को भी कह दिया कि विमर्श के नाम पर यह क्या चल रहा है। आपने यह भी लिखा कि 'संपर्क और सान्निध्य से परिचित हुआ जा सकता है, रचनाकर्मी और साहित्यकार नहीं हुआ जा सकता' - यह भी एक नसीहत है। आपकी टिप्पणियों को अगर ठीक से पढ़ा जाय तो ऐसे कई बिन्दु प्रकट हो जायेंगे जो एकपक्षीय हैं और अखाड़ेबाजी की ओर संकेत करते हैं। आपसे तो यह उम्मीद नहीं थी। आपसे तो बेहतर यहाँ वे आलोचक हैं जिन्होंने शुरू मैं रमाकांत जी द्वारा कही गयी बात - सवर्णवादी मानसिकता - को बाद में अपने ढंग से स्वीकार किया और कहीं भी रमाकांत जी को समझ बढ़ाने की नसीहत नहीं दी, उम्र और अनुभव में बड़े होने के बावजूद भी; और जिन्होंने भिन्न मत भी दिया उन्होंने अपनी भाषा को संयमित बनाये रखा। इसे कहते हैं बड़ी सोच।
-अवनीश सिंह चौहान
July 22 at 8:33am
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किसी रचनाकार के अन्दर की गाँठे ज्यों ज्यों खुलती जाती हैं त्यों त्यों रचनाकार के रूप में उसका कद बढ़ता जाता है, इसलिए मन की गाँठों का खुलना एक रचनाकार के लिए बहुत जरूरी है.... गीत और नवगीत में एक अन्तर यह भी है.... यदि गाँठें लगी हैं तो कम से कम नवगीत को नहीं समझा सकता... नवगीत विमर्श समूह है ही इसलिए कि मन की गाँठे खुल सकें...... और हाँ रमाकान्त ने जो प्रश्न उठाया है उसकी गम्भीरता को धैर्य के साथ समझने की आवश्यकता है यह नवगीत को समझने के लिए भी जरूरी है..... यह केवल एक रमाकान्त का प्रश्न नहीं है सैकड़ों रमाकान्तों का प्रश्न हो सकता है.....
सभी से यह अनुरोध है कि विमर्श को व्यक्तिगत न बनायें...... यहाँ लिखी जाने वाली टिप्पणियाँ न जाने कितने लोग पढ़ रहे हैं ..... इसका ध्यान रखें।
-डा० जगदीश व्योम
July 22 at 7:49am
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अबनीश भाई, जिन कुछ पंक्तियों को आप नसीहत कह रहे हैं, वे अनुरोध हैं. आपकी बातों से इत्तफ़ाक रखता हूँ कि सभी समझ रहे हैं कि कौन क्या कर रहा है. यह सही है भाईजी, कि सभी को भान हो रहा है कि कौन क्या कर रहा है.
जिस तरह से विमर्श के तौर पर जो कुछ पोस्ट होने लगा, जिसे ऊपर के पोस्ट में हमने पढ़े, तब ही मैंने आदरणीय जगदीश व्योम जी से निवेदन किया था कि वे देखें कि विमर्श के नाम पर क्या चल रहा है. उससे पहले आदरणीय रमाकान्त जी के पोस्ट के आधार पर ही टिप्पणी की थी हमने.
साहित्य और रचना की समझ के अनुसार चर्चा हो यही उपलब्धियों के मार्ग प्रशस्त करेगा. भाईजी, आपने मुझे अधिक नहीं सुना है. आदरणीय जगदीश पंकज जी जानते हैं मुझे. इसी कारण उनके कुछ कहे पर मैं इतना चौंक गया था, और फिर, बाद मे उनकी भी समीक्षकीय टिप्पणी पढी. स्पष्ट है कि उनको भ्रम हुआ था कि मैंने उनको कुछ कहा है. इस पर बात हो गयी है. विश्वास है, उनका भी भ्रम निवारण हो गया है.
मंचीय मठाधीशी पर संभवतः आजतक कभी किसी ने नहीं देखा है मुझे. अतः भाईजी, सादर निवेदन है कि ऐसे भ्रम न पालें, न साझा करें. उम्र का लिहाज हम खूब करते हैं, इज़्ज़त करते हैं. लेकिन यह भी सही है कि समीक्षकीय टिप्पणियों और रचनाओं से कोई रचनाकार बड़ा बनता है. रचनाएँ और तदनुरूप समझ बड़ी हों तभी साहित्य का सही रूप से भला होगा. और मेरा ऐसा कुछ कहना मेरी कोई नसीहत नहीं, आजतक आप सबों के सान्निध्य में आयी हुई समझ ही समझी जाय. अन्यथा मठ और मठाधीशी कैसी और कहाँ हो रही है, हमसभी खूब समझते हैं. व्यक्तिगत हम कभी नहीं होते. किन्तु, वास्तविकता को मानते हैं.
सादर
-सौरभ पाण्डेय
July 22 at 12:37pm
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Saurabh Pandey //मन की गाँठों का खुलना एक रचनाकार के लिए बहुत जरूरी है.... गीत और नवगीत में एक अन्तर यह भी है.... यदि गाँठें लगी हैं तो कम से कम नवगीत को नहीं समझा सकता. //
सटीक है, आदरणीय जगदीश व्योमजी. हम समझ से आगे बढ़ें. यही श्रेयस्कर है.
शुभ-शुभ
-सौरभ पाण्डेय
July 22 at 12:33pm
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Ramshanker Verma तो क्या नवगीत के श्रेष्ठ समीक्षक बताने की कृपा करेंगे कि गीतकार और गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है? क्योंकि अब तो तथाकथित गुटों ने काफी समुद्रमन्थन कर लिया है उत्स प्राप्त हो जाना चाहिए।
-राम शंकर वर्मा
July 22 at 1:45pm
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सीमा अग्रवाल कोई भी रचना रचनाकार की बस तभी तक रहती है जब तक वो उसकी डायरी में महफूज़ है । सार्वजनिक होते ही रचना पर पाठकों का अधिकार हो जाता है। रचनाकार को उसी क्षण उस पर से अपना दावा छोड़ देना चाहिए । इसके बाद यह मायने नहीं रखता की रचनाकार उसमे क्या कहना चाहता था (विशेष विवादित परिस्थितियों को छोड़ कर)
हर पाठक की मानसिक स्थिति का अपना रंग होता है
जिसके पृष्ठभूमि पर रख कर वो रचना को देखता है इसलिए हर दीवार पर उस एक रचना की रंगत भी भिन्न होगी ही होगी । अब अगर किसी को यह रचना जातिवादी मानसिकता की लगी तो यह उसका अपना मत है जबरन सबको उसी मत का हिस्सा नही बनाया जा सकता उन पाठकों का अभिमत भी उतना ही महत्व स्खता है जिनको इस रचना में ऐसा कुछ नहीं दिखा । इस पर विवाद क्यों ?
मुझे यह रचना सिर्फ एक सामान्य मनोविज्ञान की खूबसूरत बानगी लगी । जिसे शैलेन्द्र जी ने बहुत बारीकी से समझा है और मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया है । एक गंभीर विषय को बेहद सहजता और सादगी से पेश किया है ।
विमर्श का विषय रचना में प्रस्तुत कथ्य का सम्प्रेषण तथा वो कितना सत्य व् सार्वभौमिक है यह होना चाहिए ।
गीत के कथ्य के पक्ष में एक छोटा सा उदाहरण .......
कक्षा में हर महीने मॉनीटर बदले जाते थे ।एक छोटे से परिवेश में ही मुझ जैसी कोने की सीट पकड़ कर बैठने वाली और कम नंबर पाने वाली छात्रा का ओहदा बदलतते ही चाल मिजाज़ आवाज़ सब बदल जाता था
वही तो गीत कह रहा है बस कैनवास बड़ा है
एक सामाजिक या आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग जब बड़ा ओहदा पाता है तो न केवल वो दुनिया के लिए बदलता है बल्कि दुनिया भी अपना आचारण बदल लेती है । सटीक मानसिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है शैलेन्द्र जी ने दोनों पक्षों का ।
बहुत बहुत बधाई ।
-सीमा अग्रवाल
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