tag:blogger.com,1999:blog-227237262024-02-08T06:41:44.333-08:00नवगीत फेसबुक विमर्शपोस्ट के अनुरूप विमर्शUnknownnoreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-34611649446685724442015-09-27T02:31:00.003-07:002022-09-30T20:56:28.585-07:00माहेश्वर तिवारी का साक्षात्कार<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<b>== विमर्श 07 ==</b></div>
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माहेश्वर तिवारी का साक्षात्कार दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ है। यश मालवीय के साथ नवगीत पर बात करते हुए माहेश्वर तिवारी ने कहा है कि " कवि सम्मेलन जन से जुड़ने का एक सशक्त माध्यम है। मैं मंच से कभी पलायन नहीं करूँगा। कुछ गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है। वैसे आज कवि सम्मेलन की जगह कविता सम्मेलन किए जाने की जरूरत है। जब आप जगह खाली करेंगे तो वह जगह खाली तो रहेगी नहीं, कोई न कोई भांड़, विदूषक या नौटंकीबाज वहाँ काबिज हो जायेगा।"</div>
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कहाँ तक सहमत हैं माहेश्वर तिवारी जी की इस बात से कि "कुछ गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है..."</div>
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जगदीश व्योमजी, पिछले दिनों विमर्श के समूह में इन्हीं विन्दुओं पर हम सबने खुल कर बातें की थीं, आ. माहेश्वर तिवारीजी का उन विशिष्ट विन्दुओं पर तार्किक तौर पर स्पष्ट होना संतुष्ट करता है।</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
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August 24 at 10:10am </div>
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जी सौरभ जी, माहेश्वर तिवारी जी ने प्रकारान्तर से उसी विमर्श को आगे बढ़ाया है इस साक्षात्कार के माध्यम से</div>
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डा० जगदीश व्योम</div>
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August 24 at 10:12am </div>
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सत्य कहा आपने. मैं तो हैरान हूँ कि यशजी के प्रश्नों पर जिस तरह से आ. माहेश्वरजी ने विन्दुवत बातें की हैं इस तरह से आजकी तारीख में बोलने वाले कम रह गये हैं. जो हैं, उन्हें प्रकारान्तर से न सुनने का हठ पाल लिया गया है. </div>
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आपने जिस तरह से उक्त विमर्श को इस समूह में इनिशियेट किया. ’जागरण’ में छपा यह साक्षात्कार उसी का विस्तार सदृश है।</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
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August 24 at 11:20am </div>
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जगदीश व्योम जी ! माहेश्वरी तिवारी जी का साक्षात्कारः पढ़ा ! माहेशवर जी वे नहीं बात कहीं है जो मैंने अपनी पोस्ट में कही थी जिसकी। वजह से मुझे 'ये कौन न्यायाधीश हैं' जैसी उपाधि से विभूषित होना पड़ा ! ख़ैर , माहेशवर जी वे सही कहा है कि मंच गीत/कविता का सशक्ति माध्यम है ! उन्होंने बहुत सटीक बात कही कि चुटकुलेबाज और नौटंकीबाज़ अपना काम करते हैं आप अपना ! आप उन्हें रोक नहीं सकते ! आदरणीय , यदि उन माध्यमों से नवगीत अपने को दूर रखेगा जो श्रोताओं तक पहुँचे का सीधा रास्ता है तो हम अच्छे साहित्य के लिये दूसरों से डर कर नयी राह क्यों तलाशे बल्कि इस कोशिश में लगे कि हल्की बात कहने वाले हमारी राह से घबरा कर पलायन करें 'मेरे रस्ते तो जंगल से ही गुज़रते है , तुझे तकलीफ़ है तो राह बदल सकता है ! ' गीत/कविता की राह इतनी आसान भी नहीं कि जब चाहा क़लम उठायी और लिख मारा !</div>
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-के के भसीन</div>
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August 24 at 2:19pm </div>
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<div style="text-align: justify;"> तिवारी जी ने नवगीत के समकालीन परिदृश्य पर चुप्पी साधते हुए नई पीढ़ी के जो नाम गिनाये हैं वे कहीं इरादतन तो नहीं है? कहीं इससे यह संकेत तो नहीं होता कि नवगीत में भेड़ों की तरह गुट बनाकर चलने की परंपरा मौजूद है?</div>
<div style="text-align: justify;">
-अवनीश सिंह चौहान</div>
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August 24 at 5:24pm </div>
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००००००००००००</div>
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यह साक्षात्कार नवगीत पर एक सार्थक चर्चा कहा जा सकता है। एक गीतकार की दृष्टि से लिया गया यह साक्षात्कार स्वाभाविक भाव से संवेदनाओं को ही अधिक महत्त्व देता है।इस साक्षात्कार में नवगीत को समकालीन कविता के समकक्ष चिंतन वाली विधा तो माना गया है पर समकालीन कविता की मूल प्रवृत्तियों जैसे उत्तर आधुनिकता और नव उदारवादी प्रवृत्तियों को उपेक्षित ही रहने दिया गया है। लेकिन फिर भी नवगीत पर काफ़ी कुछ समेटने की कोशिश यहाँ दिखती है जो स्वागत योग्य है। माहेश्वर तिवारी जी नवगीत को जीते ही नहीं उसे जीवन भी देते हैं।वैसे सभी गीत नवगीत अंतःसलिला से ही फूटते हैं पर इनके तो और गहरे अंतस्तल के ऐसे किसी पाताल तोड़ कुएं को भेद कर आते हैं कि उनके उत्स का छोर ही नहीं मिलता।इन्हें और इनके नवगीतों को अलगाना मुश्किल है। इन्हें-उन्हें परस्पर प्रतिछवियाँ कहा जा सकता है। जैसा कि गीतकार ने स्वयं भी स्वीकारा है और वैसे भी इन्हें पढ़-सुन कर ऐसा लगता है कि जैसे इन्होंने नवगीत नहीं नवगीतों ने इन्हें रचा है।</div>
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-गंगा प्रसाद शर्मा</div>
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August 24 at 6:04pm </div>
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तिवारी जी के अपने रचनाधर्म को लेकर अच्छी चर्चा हुई है। नवगीत को लेकर उसके दोहरे संघर्ष को लेकर जिसके वो साक्षी रहे हैं उस पर और बात होती तो अच्छा लगता.उनके समकालीनो को लेकर भी चर्चा होनी चाहिए....इसी प्रकार नवगीत के इतिहास पर कुछ और सवाल हो सकते थे आदरणीय से..अब भाई यश मालवीय ने प्रश्नावली जैसी बनाई हो वैसे ही उत्तर मिलने स्वाभाविक हैं।</div>
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-भारतेन्दु मिश्र</div>
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August 24 at 6:19pm </div>
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०००००००००००००</div>
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केवल प्रशंसात्मक बातें ही यहाँ न लिखिये... यह विमर्श का मंच है..... यहाँ पहले से ही नवगीत के इसी सन्दर्भ पर चर्चा हो रही थी और इसी बीच आज यह साक्षात्कार प्रकाशित हुआ जो विमर्श के विषय से जुड़ा हुआ है इसीलिए यहाँ इसे पोस्ट किया गया है..... यदि कुछ छूट गया है तो उस पर भी दृष्टि डालें.... ऐसे और कौन से प्रश्न हो सकते हैं जिन्हें साक्षात्कार लेने वाले को पूछना चाहिए था परन्तु नहीं पूछा गया..... या आपकी दृष्टि से कुछ और बहुत महत्त्वपूर्ण जो छूट रहा हो.......</div>
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-डा० जगदीश व्योम</div>
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August 24 at 6:24pm </div>
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००००००००००००</div>
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नवगीत में जातिबोध और अंधभक्ति की भी बड़ी भूमिका रही है - उठाने-गिराने से लेकर जय-जयकार करने तक। लेकिन कुछ विद्वान ऐसे भी हैं जो जातिवादी मानसिकता और भक्ति-भावना से ऊपर उठकर सच कहने का साहस रखते हैं। ऐसे सत्यनिष्ठ गुणीजनों को मैं हृदय से नमन करता हूँ। आ. भारतेंदु जी ने एक गंभीर बात कही है कि 'प्रश्नावली जैसी बनाई हो वैसे ही उत्तर मिलने स्वाभाविक हैं।" यानि कि - प्रश्नावली कैसी है और क्यों है, विचारणीय है? और प्रश्नोत्तर देने वाले ने ऐसे प्रश्नों पर अपना मत कैसे और क्यों रखा, जबकि वह वरिष्ठतम नवगीतकारों में से एक हैं?</div>
<div style="text-align: justify;">
-अवनीश सिंह चौहान</div>
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August 24 at 6:39pm</div>
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०००००००००००००</div>
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पूरा साक्षात्कार पढ़ने पर कई तरह के प्रश्न उभर रहे हैं।पहली चीज तो यह कियश मालवीय ने पृष्ठभूमि को कुछ ज्यादा ही सजा दिया है।सम्मान और प्रशंसा में शब्दों का अलंकरण ऐसा भी न हो कि कविता पीछे छूट जाए और कवि आदमी न होकर बड़़ा आदमी नजर आने लगे।मेघ मंद्र स्वर हवाओं में गूंज रहा है-मुझे नहीं लगता कि माहेश्वर तिवारी या किसी भी समकालीन गीत कवि को ऐसी किसी अलंकारी भाषा की जरूरत है।आज का समय इस भाषा को स्वीकार करने को जरा भी तैयार नहीं।और माहेश्वर तिवारी के गीतों को मानक मानना अभीजल्दबाजी होगी।माहेश्वर तिवारी कहते हैं किगीत लेखन के लिए बहुत भटकना पड़ता हैपर वे भटकते हुए गये कहां?नदी झील पर्वत झरने मरुस्थल के पास वह भी आवारगी करते हुए।आज का नवगीत ऐसी आवारगी कोमान्यता कतई नहीं देता जहां आम आदमी उसकी पीड़ाशोषण अन्यायदिखायी ही न पड़े या बाइचान्स दिखायी भी पड़ जाए तो वहां भी तफरी के लिएजगह बना ली जाए।</div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव</div>
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August 24 at 9:38pm</div>
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०००००००००००</div>
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मैं इस बात से तो सहमत हूँ कि खाली जगह को कोई न कोई भरता ही है। चाहे साहित्य हो, चाहे राजनीति या कोई और क्षेत्र। कवि सम्मेलनों में अच्छे गीतों और छंदों को प्रशंसा हमेशा मिलती रही है, बशर्ते वे गीत-छंद समाज से जुड़े प्रासंगिक विषयों पर केंद्रित रहे हों।</div>
<div style="text-align: justify;">
-ओम प्रकाश तिवारी</div>
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August 24 at 9:59pm</div>
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००००००००००००</div>
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और यह ठीक ही कहा है तिवारी जी ने किआवारगी का बड़ा सहयोग मिला है उनके गीतों को। तभी तो उनके गीत गुनगुनाने के लिए अधिक हैं तथ्य और सत्य की खोज के लिए कम। उनके गीतआधुनिक पेंटिंग की तरह ही हैं जैसा कि वे कहते हैं कि स्वामीनाथन जी ने उनकी प्रशंसा में कभी कहा था।और ये पेंटिगनुमा गीत कभी न तो ठीक ठीक विचार दे पाते हैं और क्रांतिधर्मा तो होते ही नहीं।माहेश्वर जी जब यह कहते हैं कि गम्भीर कवियों ने मंच को अछूत समझकर कविता का बड़ा अपकार किया है तो बात कुछ जचती नहीं।क्या सार्थक कविता मंचों की बदौलत जिन्दा है?सच तो यह है कि आज के मंच ने कविता का व्यापार ही किया हैदिया है तो बस थोड़ा सा मनोरंजन जो कि कोई कीर्तनकार या नौटंकी कार भी अपने तरीके से करता है।हां पहले कवि लोग मंच पर जाते थे पर तब गम्भीर कविता को सुनने सुनानेवाले मौजूद थे।नहीं जनवाद मन से नहीं उपजता जैसा कि माहेश्वर जी कहते हैं।असल में माहेश्वर जी के गीत मन से उपजते हैं।जनवाद तो विचार है दृष्टि है प्रतिबद्धता है।और इन्हीं चीजों का माहेश्वर जी के गीतों में अभाव है।आंखों में आंसू आना औरआंखों से चिंगारी फूटना दो अलग तरह की परिघटनाएं हैंदोनों को कभी कहीं विशेष परिस्थिति में ही जोड़ा जाना चाहिये।व्यक्तिगत भावुकता आशा निराशा प्रेम और सामाजिक सरोकारों के ज्ञानात्मक आवेगों में बड़ फर्क है।माहेश्वर जी उन्हें एक करने की कोशिश में सफल नहीं दिखते।और अंत में नई पीढ़ी केनवगीतकारों के नाम गिनाते हुए भी माहेश्वर तिवारी जी दृष्टि साफ नहीं हैं।ऐसाबुजुर्गगीतकार जिसके पास इतना अनुभव हो ज्ञान हो वह भी किसी मोह में फंसकर जो कुछ नाम गिनारहा है वे किसी भी तरह से विवेकपूर्ण तटस्थ न्यायपूर्ण और तर्क संगत नहीं दिखते।ये चुनाव माहेश्वर जी के गीत व्यक्तित्व को एक और तरह से कमजोर सिद्ध करते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव</div>
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August 24 at 10:25pm</div>
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००००००००००००</div>
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<br /></div>
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माहेशवर तिवारी जी के साक्षात्कारः में अगर ध्यान से मनन करें तो उनकी मन की सहजता का भी पता लगता है ! असल में माहेशवर जी के अन्दर एक सहज गीतकार भी है जो संवेदना एवं गीत के भावात्मक पक्ष से भी जुड़ा है ! उनके साक्षात्कारः में उनका यह पक्ष साफ़ दृष्टिगोचर होता है ! पूरी प्रस्तुति को नवगीत की कसौटी पर ही कैसे देखें?</div>
<div style="text-align: justify;">
-के के भसीन</div>
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August 24 at 11:46pm</div>
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०००००००००००००</div>
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नवगीत के लिए समानांतर मंच की आवश्यकता है जिसमे तथाकथित विदूषको की कोई जगह न हो।जहां गंभीर विमर्श हो।2004 मे आगरा की नवगीत गोष्ठी मे मैने सोमठाकुर जी से पूछा था कि नवगीत दशको का विमर्श क्यो नही कराते..वे उनदिनो हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष थे।मंच पर तिवारी जी भी थे यश मालवीय भी थे राजेन्द्र गौतम ,बुद्धिनाथ मिश्र आदि अनेक नवगीतकार भी थे सबने सहमति दी थी स्वीकार किया गया -सस्थान से किसी को यह कार्य सौपने की बात भी हुई लेकिन ..फिर सब खतम .. सोमठाकुर जी नवगीत दशक 1 के रचनाकार हैं उन्हे भी मंच ही खींचता रहा विमर्श नही ।..जो कविता विमर्श के लिए नही है उसकी पाठ्यचर्या क्यो की जाए ?..ऐसे मंचीय कवियो के सरोकार गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुना दास हो जाते है।लोगो की नजर मे सब रहता है ..माया और राम दोनो को साधने की कोशिश असंभव है। जिनकी श्र्द्धा मंचीय प्रपंचो से जुडी है वे सच्चे अर्थो मे नवगीत के मित्र नही हो सकते।शंभुनाथ जी के शब्दो मे वे नवगीत के शत्रु हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
-भारतेन्दु मिश्र</div>
<div style="text-align: justify;">
August 25 at 7:54am </div>
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०००००००००००००</div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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माहेश्वर तिवारी की बात आंशिक रूप से सही है। कुछ अच्छे कवि भी मंच पर पहुचकर मंचीय़ हो गये। कवि सम्मेलनी व्यवसाय का हिस्सा बनने से</div>
<div style="text-align: justify;">
उनका स्तर गिरा है। इससे हमें बचना चाहिये।</div>
<div style="text-align: justify;">
-राधेश्याम बंधु</div>
<div style="text-align: justify;">
August 25 at 9:07am </div>
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०००००००००००००</div>
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नवगीत की स्वीकारता एवं दर्शकों की जागरूकता में बड़े स्तर पर एक अच्छी सोच पैदा करने की हमारी प्रबल इच्छा और दूसरी तरफ़ अपनी सरहदें खींच कर उन्हीं को प्रवेश देना जो हमारे उसूलों से बँधे हों , हम रेगिस्तान की आँधी में फँस जायेंगे ! अपनी सही दिशा पर विचार गम्भीरता से करें !</div>
<div style="text-align: justify;">
-के के भसीन</div>
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August 25 at 9:33am </div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००००</div>
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<br /></div>
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हिन्दी संस्थान या अन्य साहित्यिक अकादमियों में जिस तरह की साहित्यिक माफियागीरी और राजनीति व्याप्त है, उनसे नवगीत के लिए कोई उम्मीद करना समय खराब करना ही है.... हमें ही नवगीत और हिन्दी साहित्य के लिए अपने स्तर से ही जो कर सकते हैं वह करना है, नवगीत विमर्श इसी पहल का एक सोपान है....... मेरा निवेदन तो सिर्फ यही है कि ---- " बहते जल के साथ न बह / कोशिश कर के मन की कह " .....</div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
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August 25 at 9:36am </div>
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०००००००००००</div>
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<br /></div>
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भाई रमाकांत जी ने तिवारी जी के इंटरव्यू के निहितार्थ को बखूबी रेखांकित किया है, वहीं "मंचीय कवियो के सरोकार गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुना दास हो जाते है।लोगो की नजर मे सब रहता है ..माया और राम दोनो को साधने की कोशिश असंभव है। जिनकी श्र्द्धा मंचीय प्रपंचो से जुडी है वे सच्चे अर्थो मे नवगीत के मित्र नही हो सकते।शंभुनाथ जी के शब्दो मे वे नवगीत के शत्रु हैं।"- कहकर आ. भारतेंदु जी ने माहेश्वर जी जैसे उन तमाम लोगो के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि ऐसे लोग नवगीत के 'मित्र' नहीं हो सकते। यानि कि ऐसे लोग सच्चे नवगीतकार नहीं। मुझे लगता है कि आ. राधेश्याम जी ("कुछ अच्छे कवि भी मंच पर पहुचकर मंचीय़ हो गये । कवि सम्मेलनी व्यवसाय का हिस्सा बनने से उनका स्तर गिरा है) ने भी तिवारी जी जैसे मंच से जुड़े रचनाकारों की ओर संकेत किया है। भसीन जी कहते हैं - "असल में माहेशवर जी के अन्दर एक सहज गीतकार भी है". यहाँ भी शब्द विचलन की ओर संकेत करता है। एक बार माहेश्वर जी ने दैनिक जागरण में 'सहज गीत' की वकालत की थी। यह वकालत भसीन जी की मीमांसा से मेल खाती है। तो क्या तिवारी जी को सहज गीतकार माना जाना चाहिए (मंच से उनके जुड़ाव और मंच की डिमांड को ध्यान में रखते हुए)?</div>
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-अवनीश सिंह चौहान</div>
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August 25 at 11:08am </div>
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०००००००००००००</div>
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<br /></div>
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मंचीय कवि मंच की वकालत ही करेगा और उसके पक्ष में कुछ न कुछ तर्क गढ़ेगा जैसा कि तिवारी जी ने किया है। और यह संवेदना शब्द आजकल अच्छा प्रचलन में है कुछ भी दाल भात इसके नाम पर परोस दिया जाता है। मंच पर जाकर कौन सी जनता से जुड़ना चाहते हैं और कैसी संवेदना बटोरना चाहते हैं। सही क्यों नहीं कहते कि संवेदना के नाम पैसा बटोरना चाहते हैं। बाज़ार में दुकान सजाकर नवगीत बेचने की वकालत कब तक सुनी जाएगी। जनपक्षीय साहित्य और तथाकथित संवेदना युक्त साहित्य में अंतर होता है। जनपक्षीय साहित्य पैसे नहीं देता। उस पर सीटी और ताली नहीं बजती तो जाहिर है पैसे भी नहीं मिलते। तिवारी जी जनता से संपर्क करना चाहते हैं अपने नवगीत सुनाना चाहते हैं तो चलिए किसी गाँव में बाग़ में जमीन पर बैठते हैं और वहीं दो चार को इकट्ठा कर उन्हें अपने नवगीत सुनाते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
-ब्रजेश नीरज</div>
<div style="text-align: justify;">
August 25 at 6:18pm </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००००००</div>
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<br /></div>
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मुझे नहीं लगता कि मंच ही नवगीत के पोषण का सही स्थल है।तिवारी जी हों या अन्य कोई रचनाधर्मी यदि वे मंचों से जुड़े हैं तो उनके अपने निहितार्थ हैं चाहे वो बाज़ारवादी सोच से ग्रसित हों या तथाकथित संवेदना से।</div>
<div style="text-align: justify;">
हंस क्यों बगुलों के बीच जाकर बैठने लगा??क्या ये स्वस्थ साहित्यिकता से परे नहीं हुआ??</div>
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प्रश्न यह है कि क्या यह साक्षात्कार पूर्व प्रेरित प्रश्नों का समूह तो नहीं।यश जी ने प्रश्नों का जो जाल बुना उत्तर भी उसी दिशा में बहते हुए मंचों की प्रशंसा के सागर में मिल गए।</div>
<div style="text-align: justify;">
साक्षात्कार तो तब उत्कृष्ट बनता और तिवारी जी की सटीक सोच का ताना बाना तब खुलता जब प्रश्नकर्त्ता उनका प्रशंसक न होता और मंचीय प्रावधानों की विचार धारा से दूर होता।</div>
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विमर्श की धारा को मोड़कर सोचना होगा क्या इस तरह के प्रश्न उत्तर से नवगीतकार के मन में मंचों के प्रति अधिष्ठित उदासीनता को समाप्त करने की चेष्टा तो नहीं?</div>
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-अवनीश त्रिपाठी</div>
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August 25 at 7:45pm </div>
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०००००००००००००००</div>
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<br /></div>
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निश्चित रूप से दुकानदारी को प्रोत्साहित करने का प्रयास है। मंच से जुड़ाव के पीछे पैसे का लालच ही काम करता है भले ही तुर्रा जनता से जुड़ाव का हो। मुझे समझ नहीं आता मंच पर बैठे नशे में टुन्न ये महान साहित्यकार संगीत के आठवें सुर के सहारे कौन सी जनता से कैसा संवाद स्थापित करना चाहते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
-ब्रजेश नीरज</div>
<div style="text-align: justify;">
August 25 at 8:18pm </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
क्या अभी ऐसे कुछ लोग हैं जो मंचों पर लोकप्रिय हैं, जिन्होंने मंचों से खूब पैसा भी कमाया है और उनके अन्दर का नवगीतकार अभी तक जिन्दा है ? यदि ऐसे कोई कवि या कवयित्रियाँ हों तो उनके नाम बतायें ......और उनका एक एक प्रतिनिधि नवगीत भी बता दें.....</div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
<div style="text-align: justify;">
August 25 at 9:36pm</div>
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००००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Saurabh Pandey क्या मंच का मतलब सिर्फ़ पैसा है ? गोष्ठियों की परम्परा पर बात क्यों न हो ?</div>
<div style="text-align: justify;">
-सौरभ पाण्डेय</div>
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August 26 at 1:55am </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सौरभ जी, बात क्या करनी...... बातें तो होती ही रहती हैं...... नवगीत गोष्ठी शुरू कर दीजिये.... देखा देखी कुछ अन्य लोग भी अपने अपने स्तर से ऐसी पहल करने लगेंगे..... हाँ यह ध्यान रखना होगा कि नवगीत गोष्ठियों को मंच के गलेबाजों और दसियों साल से एक दो गीत गाने वालों से बचना चाहिए .....</div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
<div style="text-align: justify;">
August 26 at 9:43am </div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आपने बिल्कुल सटीक बातें की हैं, जगदीश व्योमजी. मैं इस सार्थक समूह में चल रही चर्चां-टिप्पणियों से निस्सृत बहुत सारे विन्दुओं को उनकी प्रतिच्छाया के सापेक्ष भी देखता हूँ. सब समझ में आता है. </div>
<div style="text-align: justify;">
//अपने तईं हमने नवगीत गोष्ठी शुरु कर दीजिये //</div>
<div style="text-align: justify;">
एक शुरुआत हो गयी है. उसकी आवृति को नियत करना है. यह आरम्भिक दौर है, यह भी हो जायेगा. ऐसे ही एक प्रयास के अंतर्गत आप भी दिल्ली के ’विश्व पुस्तक मेला २०१५’ में हुई नवगीत-गोष्ठी का हिस्सा बने थे. </div>
<div style="text-align: justify;">
//यह ध्यान रखना होगा कि नवगीत गोष्ठियों को मंच के गलेबाजों और दसियों साल से एक दो गीत गाने वालों से बचना चाहिए //</div>
<div style="text-align: justify;">
गोष्ठियों में ऐसी कोई ’विकलांगता’ तुरत पकड़ में आ जाती है. गले का उपयोग स्वीकार्य है लेकिन नवगीत के शिल्प और कथ्य की कीमत पर नहीं. गोष्ठियों का स्वरूप चूँकि अध्ययनपरक तथा विधासम्मत होता है, अतः वातावरण कभी व्यावसायिक नहीं हो सकता. </div>
<div style="text-align: justify;">
इन्हीं संदर्भों को लेकर मैं इस समूह में अपनी टिप्पणियाँ करता रहा हूँ. अब यह अलग बात है कई ’सज्जन’ मंच का अर्थ उसी मंच से लेते हैं जिसका विरूपीकरण हो चुका है. ऐसे कई सज्जनों को जानता हूँ जो चाहें जितना बोलें, व्यक्तिगत जमावड़े से अलग अन्य किसी ’मंच’ के अनुभव से शायद ही परिचित हों तथा तदनुरूप लाभान्वित हुए हों।</div>
<div style="text-align: justify;">
-सौरभ पाण्डेय</div>
<div style="text-align: justify;">
August 26 at 12:26pm</div>
<div style="text-align: justify;">
००००००</div>
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<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: justify;"><br /></div>
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<br /></div>
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Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-16040557193122821242015-09-25T04:20:00.001-07:002015-09-25T04:20:31.978-07:00शैलेन्द्र शर्मा के नवगीत पर विमर्श<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
[ कृपया इस गीत पर विचार करें।क्या इस गीत को लिखते हुए गीतकार ने सम्यक् दृष्टि अपनायी है?निचले तबके को सम्बोधित करते हुए गीतकार किस मानसिकता से ग्रसित है?क्या माना जाए कि गीत नवगीत में सवर्णवादी मानसिकता हावी है?</div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव ]</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
शैलेन्द्र शर्मा का नवगीत-</div>
<div style="text-align: justify;">
-------</div>
<div style="text-align: justify;">
रमधनिया की जोरू धनिया</div>
<div style="text-align: justify;">
जीत गई परधानी में </div>
<div style="text-align: justify;">
रमधनिया की पौ-बारा है </div>
<div style="text-align: justify;">
आया ' ट्विस्ट ' कहानी में</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पलक झपकते कहलाया वो </div>
<div style="text-align: justify;">
रमधनिया से रामधनी </div>
<div style="text-align: justify;">
घूरे के भी दिन फिरते हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
सच्ची-मुच्ची बात सुनी</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लम्बरदार- चौधरी रहते </div>
<div style="text-align: justify;">
अब उसकी अगवानी में</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जो बेगार लिया करते थे</div>
<div style="text-align: justify;">
आदर से बैठाते हैं </div>
<div style="text-align: justify;">
उसकी बाँछें खिली देखकर</div>
<div style="text-align: justify;">
अंदर से जल जाते हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तिरस्कार की जगह शहद है </div>
<div style="text-align: justify;">
उनकी बोली-बानी में</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पाँच साल के भीतर-भीतर </div>
<div style="text-align: justify;">
झुग्गी से बन गया महल </div>
<div style="text-align: justify;">
उसकी ओर न रुख करते थे </div>
<div style="text-align: justify;">
वे करते हैं आज टहल</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब वह मौज़ लिया करता है </div>
<div style="text-align: justify;">
उनकी गलत- बयानी में</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहले जो डपटा करते थे </div>
<div style="text-align: justify;">
उसे देख मुस्काते हैं </div>
<div style="text-align: justify;">
वही दरोगा वही बी.डी.ओ. </div>
<div style="text-align: justify;">
आकर हाथ मिलाते हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आने लगा मज़ा अब उसको </div>
<div style="text-align: justify;">
' ऐय्याशी- दीवानी ' में</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-शैलेन्द्र शर्मा </div>
<div style="text-align: justify;">
( " राम जियावन बाँच रहे हैं " से उद्धरित )</div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गीत पर विचार करने से पहले इस बात पर विचार करना उचित होगा कि क्या नवगीत विधा में भी अगडा, पिछडा, दलित, स्त्री, सर्वहारा के नाम पर गोलबन्दी किया जाना उचित होगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
July 10 at 8:12pm</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाशंकर वर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समूचा समाज जातीय मानसिकता के घेरों में कैद है और राजनीति दलों के दलदल में फँसी हुई है.... साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है..... यह नवगीत समाज का एक चित्र उपस्थित कर रहा है। July 11 at 5:30pm</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बेहेतरीन नवगीत है, जो अपने सामाजिक सरोकार को जस का तस प्रस्तुत करने मे सक्षम है। रमधनिया के चरित्र का विस्तार(जिसमें उसकी प्रगति / दुर्गति भी शामिल है)हुआ है। शैलेन्द्र शर्मा जी को बधाई इस सुन्दर नवगीत के लिए ।</div>
<div style="text-align: justify;">
July 11 at 5:56pm </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-भारतेन्दु मिश्र</div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारतेन्दु मिश्र जी कह रहे हैं कि यह बेहतरीन नवगीत हैऔर मुझे इस पर आश्चर्य हो रहा है।किस लिहाज से यह बेहतरीन नवगीत हो सकता है?रमधनिया की जोरू धनिया यह तुक ताल भिड़ाने वाली मानसिकता कौन सी है?क्या किसी उच्च जाति के पात्र को भी इसी अन्दाज में गीतकार ने सम्बोधित किया है?आप कहते हो कि रमधनिया के चरित्र का विस्तार किया गया है जब कि वह सम्बोधन से लेकर प्रस्तुतीकरण तक गीतकार के व्यंग्य वाणों की चुभन के बीच है।रमधनिया की पौ बारा है -इसका क्या मतलब?मतलब गीतकार को यह सहन नहीं हो रहा है?कुछ पाने पर खुशी किसको नही होती?रमधनिया को भी है तो किसी को इतना क्यों खले कि पौ बारा जैसा वाहियात मुहावरे का वह इस्तेमाल करे।जमीनी सच्चाई तो यह हा कि अधिकतम दलित प्रधान स्वतंत्र होकर काम नही कर पाते।वे सदैव किन्हीं पंडित जी या ठाकुर साहब के दबाव में ही काम करने को लाचार हैं।कोई स्वतंत्र होकर काम करना चाहे तो उसके खिलाफ हजार साजिशें हैं हथकंडे हैं।यह झूठ है अतिरंजना है कि लम्बरदार चौधरी उसकी अगवानी में रहते हैं।अभी स्थितियां इतनी नही बदली हैं।आपको परेशानी यह भी है कि उस दलित ने पांच साल में महल खड़ा कर लिया।महल कहां किसने खड़ा कर लिया?आप खड़ा करने दोगे तब ना?झुग्गी की जगह घर बना लिया कहते तो भी ठीक था।जो सदियों से महल खड़ा करते रहे और अब भी कर ही रहे है उन पर किसी की दृष्टि नहीं जाती।और रमधनिया कोअंत में ऐसा पटका गीतकार ने कि आने लगा मजा अब उसकोऐय्याशी दीवानी में।नही ;गीतकार ने जानबूझकर रमधनिया को यहां तक गिराया है।गीतकार इस पात्र के प्रतिपक्ष में शुरू से खड़ा हुआजान पड़ता है।उसकी अपनी मर्जी कि वह जिसको जहां चाहे गिरा दे?मैं फिर कह रहा हूं कि पीढ़ियो से जो ऐय्याशी कर रहे हैं उनकी तरफ हमारी दृष्टि क्यों नहीं जाती?और यह भी कहां तक उचित है कि हम या कि हम जिनकी पैरवी में हैं वे मौज मस्ती ऐय्याशी का जीवन जियें और दूसरों से हम अपेक्षा करें कि वे त्याग तपस्या में आदर्श उपस्थित करें।अफसोस है कि गीत नवगीत ने दलित साहित्य केपुरजोर हस्तक्षेप के बावजूद अभी सामंती रुख ही अपनाये रखा है।अगर कही कुछ है भी तो कृत्रिम बनावटी असंतुलित।क्या कोई दलित या दलित साहित्यकार इस गीत को पसन्द करेगा?मगर आप उनकी चिन्ता क्यों करेंगे?</div>
<div style="text-align: justify;">
July 12 at 11:14am </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव</div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आ.राम शंकर जी बृजनाथ जी जगदीश व्योम जी भारतेन्दु मिश्र जी आप सब की सारगर्भित टिप्पणी के लिये बहुत-बहुत हार्दिक आभार</div>
<div style="text-align: justify;">
July 12 at 1:44pm </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-शैलेन्द्र शर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रमाकांत जी जरा किसी दलित बहुल गांव मे /आदर्श गांव मे जाकर देखें/जहां के प्रधान दलित हैं या उनकी पत्नियां प्रधान हैं।वे सब मनुवादी /सामंतवादी आचरण वाले हो गए हैं कि नही..यह भी देखने की बात है।तमाम ब्रहमण नेताओ को बहन जी के पांव छूते आपने न देखा हो मैने देखा है।..तो मेरा पैतृक गांव दलित बहुल है।मैने सीतापुर,ललितपुर,उन्नाव,हरदोई,लखनऊ आदि के गांव देखे हैं वहां रहा हूं नौकरी की मजबूरी से।अब सब जगह बदलाव आ चुका है कहीं कम कहीं ज्यादा।मेरा अवधी उपन्यास भी इसी तरह के चरित्रो प आया है -नईरोसनी-..खैर हर रचनाकार का अपना अनुभव क्षेत्र होता है ।केवल रायबरेली या एक जगह रहकर जाति समस्या पर या उसके आकलन पर टिप्पणी करना उचित नही है।सत्ता मिलते ही मनुष्य सामंतवादी/मनुवादी आदि हो ही जाता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
July 12 at 8:22pm </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-भारतेन्दु मिश्र</div>
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०००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पूर्वाग्रह रहित होकर ही किसी रचना पर सार्थक टिप्पणी की जा सकती है। नवगीतकार ने नवगीत के मुखड़े में ही "आया ट्विस्ट कहानी में"' कहकर तथाकथित सामाजिक परिवर्तन की ओर संकेत किया है। राजनीति और समाजसेवा अब सिर्फ जेब भरने और ऐय्यासी के लिए है। यह सर्वविदित है। बड़ी कुर्सियों से होते हुए सत्ता का नशा अब गाँव पंचायत की चौपाल तक चढ़ गया है। कुर्सी और नशा दोनों जातिनिरपेक्ष हैं। रमधनिया तो एक प्रतीक मात्र है उस परिवर्तन का, जिसमें वही लिप्साएँ और भोकाल की प्रव्रत्ति घर कर गयी है, जिसके लिए पूर्ववर्ती को पानी पी कर कोसा था। निचले तबके का जनप्रतिनिधि अगर अपने पद का दुरुपयोग कर सरकारी धन की बंदरबांट करता है, तो उसका यह कहकर बचाव नहीं किया जा सकता कि पीढ़ियों से अन्य लोग भी यही कर रहे थे और यह उसका नैसर्गिक और मौलिक अधिकार है। रबड़ी देवी को राबड़ी देवी कह देने से मात्र से किसी की प्रतिष्ठा में चार चाँद नहीं लगते। अगर उसमें नैतिक गुण हैं तो वह रबड़ी देवी होकर भी प्रतिष्ठित है। नवगीत में कटु यथार्थ है, और यह समय को व्यक्त करने में सक्षम है।</div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाशंकर वर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
July 13 at 1:55pm </div>
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<br /></div>
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००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यह विमर्श व्यक्तिगत आक्षेप की ओर जा रहा है..... इसे कृपया यहीं बन्द करें...... सभी से अनुरोध है कि विमर्श नवगीत पर केन्द्रित रखें..... व्यक्तिगत टीकाटिप्णी से बचें.....</div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
<div style="text-align: justify;">
July 13 at 3:39pm </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नवगीत में नवता - गेयता दो अपरअधिकार िहार्य तत्व होने चाहिए। वे दोनों इस नवगीत में हैं. नवगीत का कथ्य चौंकाता है चूंकि अब तक यह प्रवृत्ति कम रचनाओं में सामने आई है. अपने सेवाकाल में कितने ही विधायक पतियों, सरपंच पतियों और पार्षद पतियों से सामना हुआ है. अपनी ही पत्नी से उसके पद के अधिकार संविधानेतर तरीकों से छीन लेना, पत्नी के पद की सरकारी मुहर अपनी जेब में रखना, उसके हस्ताक्षरों के जगह खुद हस्ताक्षर करना और उसकी जगह खुद बैठक में पहुँच जाना इस युग का सत्य है. इस प्रवृत्ति के विरुद्ध प्रधान मंत्री भी बोल चुके हैं. तुलसी के अनुसार प्रभुता मद काहि मद नाहीं …। अपने अधिकारों की रक्षा हेतु गुहार लगानेवाला अन्यों के अधिकार छीनने लगे यह कैसे स्वीकार्य हो? नवगीत में कहीं किसी पर कोई आक्षेप नहीं है. तथाकथित शोषितों द्वारा सत्ता मिलते ही अपने ही वर्ग के कमजोर लोगों का शोषण न्ययोचित कैसे माना जाए? नवगीत को दुर्बलतम के हित में खड़ा होना ही चाहिए.</div>
<div style="text-align: justify;">
-संजीव वर्मा सलिल</div>
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July 14 at 10:23am </div>
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००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भाई सलिल जी सत्य वचन ।माना भारत का अतीत सामाजिक संगठन की दृष्टि से स्वस्थ नहीं कहा जा सकता किन्तु उन्हीं अपमूल्यों की पुनरावृत्ति को भी उचित नहीं कहा जा सकता ।अतीत में "अ"ने "ब"का शोषण किया । समय बदला अब "ब" के द्वारा "अ"का शोषण किया जाने लगा। उचित तो तब होता जब "ब"इतना दबाव बनाता कि "अ"शोषण से बाज आता और "ब"स्वयं शोषण न करता ।किन्तु न पहले और न आज ही समाज और समसयाओं से किसी को लेना देना है ।सभी क्षेत्रों में अवमूल्यन का एकमात्र कारण येनकेन प्रकारेण सत्ता छीनना भोगना और निपोटिज्म के एजेंडे पर काम करना भाड़ में जाय देश जनकल्याण और मानवता ।सब खेल जर जोरू जमीन की लूट का है ।अपराध जितने अधिक होगें जनता को प्राणरक्षा की उतनी ही समस्या होगी और जितनी अधिक समस्या होगी अपनी समसयाओं में उलझी रहेगी तथा दबाव में रहेगी और सत्ता भोग निष्कंटक चलता रहेगा।भाई अधिकार सुख बड़ा ही मादक होता है। सत्ता सुख चाहने वालों का एक उद्देश्य और एक ढंग होता है ।जाति धर्म के भेद के बिना।</div>
<div style="text-align: justify;">
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव</div>
<div style="text-align: justify;">
July 14 at 5:46pm </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
होते हुए सामाजिक परिवर्तन को हूबहू परिलक्षित करता सार्थक नवगीत !बधाई भाई शैलेन्द्र जी !</div>
<div style="text-align: justify;">
-रामेश्वर प्रसाद सारस्वत</div>
<div style="text-align: justify;">
July 14 at 8:01pm </div>
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०००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अवनीश सिंह चौहान उपर्युक्त टिप्पणियों को पढ़कर मुझे लगता है कि साहित्य की आलोचना करना इतना आसान नहीं। यहाँ ज्यादातर साहित्यकार अपनी-अपनी ढपली बजा रहे हैं। काश इनमें से दो-तीन भी ठीक से आलोचनाएँ होती तो यह बहस सार्थक होती।</div>
<div style="text-align: justify;">
-अवनीश सिंह चौहान</div>
<div style="text-align: justify;">
July 15 at 10:37am </div>
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००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समसामयिक परिस्थितियों का यथार्थ चित्रण. सटीक अभिव्यक्ति...सुंदर नवगीत...</div>
<div style="text-align: justify;">
-त्रिलोक सिंह ठकुरेला</div>
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July 15 at 5:09pm </div>
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०००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वर्तमान राजनैतिक जीवन का यथार्थ चित्रण है, इसे किसी जाति या वर्ग से न जोड़ा जाय तोअच्छा है।</div>
<div style="text-align: justify;">
बसन्त शर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
July 17 at 9:35pm</div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आदरणीय भाई श्री अवनीश सिंह चौहान जी निवेदन है कि सार्थक आलोचना करके मार्गदर्शन प्रदान करने की कृपा करें। ताकि कुछ मानक और सीमाएं निर्धारित हो सके और आलोचना की दिशा तय की जा सके। धन्यवाद</div>
<div style="text-align: justify;">
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव</div>
<div style="text-align: justify;">
July 18 at 8:13am </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
यादव जी यह तो व्यंग है और सत्ता का चरित्र उघरता है......मुझे नहीं लगता कोई भी सच्चा रचनाकार सवर्ण या कुछ और होता वह केवल मूल्यों के साथ खड़ा होता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
-वेद शर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
July 19 at 7:45pm </div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पर सच्चे रचनाकार हैं कितने?जाति धर्म से परे होना इतना आसान है क्या?गीत में एक दलित पात्र को जिस तरह सम्बोधित किया गया है क्या किसी सवर्ण को भी ऐसे ही सम्बोधित किया है? मैं कहता हूं सारे रचनाकार जातिवादी हैं।जो होते हुए भी नहीं मानते हैं वे पाखंडी हैं।पाखंडी होना ही सबसे बुरा है।</div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव</div>
<div style="text-align: justify;">
July 19 at 7:56pm</div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आप या मैं कुछ भी कहें पर उसके पीछे वस्तुनिष्ठताहोनी चाहिए ...कवि शायद कहनाचाह रहा है कि माया आते ही नाम सम्बोधन बदल जाते हैं सत्ता मिलतेह ी आदमी वही करने लगता है जिसके लिये वह दूसरों को कोसता है ....</div>
<div style="text-align: justify;">
-वेद शर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
July 19 at 8:54pm </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गीत में कोई दलित पात्र है ऐसी तो कहीं कोई बात नहीं कही गई है ।हाँ यह जरूर बताया गया है कि सत्ता का नशा और अधिकार सुख बड़ा ही मादक होता है येन केन प्रकारेण उसे पाकर यह दो टाँग का आदमी नामक जानवर मानवता के प्रति कितना हिंसक और अवमूल्यित हो जाता है यह पढ़े लिखे और अनपढ़ किसी से छिपा नहीं यह मद ही समाज में फैली अधिकां अव्यवस्थाओं की जड़ है और इस मद का समर्थक है निपोटिज्म।यह मद अगड़े पिछड़े दलित के विषय में सर्वथा अनभिज्ञ होता है ।हाँ यह मद शंकर गौतम बुद्ध महावीर स्वामी कबीर महात्मा गाँधी लालबहादुर शास्त्री पर नहीं सवार हुआ ।सबसे अधिक मदमस्त था देवराज इंद्र ।और आज हर गली कूंचे में इंद्र की औलादें घूम रही हैं ।</div>
<div style="text-align: justify;">
-ब्रजनाथ श्रीवास्तव</div>
<div style="text-align: justify;">
July 20 at 8:09am </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
Ramakant Yadav बृजनाथ जी क्या आप अपने अलावा सब को मूर्ख समझते हो?रमधनिया की जोरू धनिया क्या ठाकुर है ब्राह्मण है श्रीवास्तव है ?आप लोग सदा ही औरों को मूर्ख बनाते आये हो और यही अब भी कर रहे हो।उपदेश देने में बड़ी बड़ी बातें करने में आप सब बहुत निपुण हो।मैं देख रहा हूं कि एक भी व्यक्ति ने मैने जो सवाल उठाये हैं उन पर विचार नहीं किया।तो यह किस तरह की मानसिकता है?कोई अन्य विधा होती तो ऐसी प्रस्तुति को शायद बहुमत न मिलता।पर गीत नवगीत अभी भीपिछली शताब्दियों में जी रहा है।शोषितों को अभी मुश्किल से मौका मिलना शुरू हुआ है कि हम उन्हें गरियाने लग गये।हम यह नही देखते कि व्यवस्था अभी भी हमारी बनायी हुई चल रही हैऔर हर अव्यवस्था में हमारा भी कहीं न कहीं हाथ है।हम यह नहीं कहते कि कोई दलित बुरा नहीं हो सकता पर उसका चित्रण करते हुए हमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है।हमें समय और समाज को समग्रता से देखना परखना होगा।वंचितों को एकदम से दोष देना ठीक नहीं।हम उनको गरियाने का भी तरीका सीखें।पहले स्वयं पूर्वाग्रह से मुक्त हों तब दूसरों को कहें।जब गीतकार अपनी प्रस्तुति में पूर्वाग्रह से युक्त दिखता है तो वह अपनी प्रस्तुति और दूसरों के साथ कैसे न्याय कर पायेगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव</div>
<div style="text-align: justify;">
July 20 at 9:16am </div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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अवनीश सिंह चौहान आदरणीय भाईसाहब बृजनाथ श्रीवास्तव जी, मुझे यह कहते हुए बहुत कष्ट हो रहा है कि आप आदरणीय रमाकांत जी द्वारा की गयी सार्थक आलोचना को ही स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। उनके द्वारा उठाये गए प्रश्नों का उत्तर भी आपके पास नहीं है। दुखद यह भी कि आपके गुट के तमाम लोग आँखों पर पट्टी बांधकर यहाँ टिप्पणी कर रहे हैं। मुझे तो लगता है कि इस गीत को लेकर आपकी दृष्टि ठीक नहीं है, या आप अपनी दृष्टि को 'सार्वभौमिक सत्य' मानकर चल रहे हैं। ऐसे में यदि मैंने कुछ लिख दिया तो आप कैसे मेरी बात समझ पाएंगे।</div>
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-अवनीश सिंह चौहान</div>
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July 20 at 10:05am </div>
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०००००००००</div>
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Ramshanker Verma विमर्श के नाम पर व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप उचित नहीं है। नवगीत में सहज सम्प्रेषण और कथ्य पारदर्शी है। विमर्श भी उसी पर आधारित है। कौन किसके गुट में है, यह मेरी समझ से परे है। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि पुराने मुहावरों का प्रयोग करने में सावधानी बरतने की जरूरत है। घूरे के दिन बहुरने में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को आपत्ति क्यों होगी। हाँ एतराज की बात तब अवश्य होती जब उसे घूर बने रहने की वकालत की जाए। दूसरा "'घायल की गति घायल जाने की जिन घायल होय"' यह भी सत्य है। पीड़ा, लांछन, तिरस्कार का भुक्तभोगी अपनी अन्तर्व्यथा जिन शब्दों में व्यक्त कर सकता, उसी तरह कोई दूसरा व्यक्त करने में सक्षम नहीं हो सकता। पर वह कवि भी हो जरूरी नहीं। उसकी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए समाज के किसी भी वर्ग का संवेदनशील व्यक्ति आगे आ सकता है। सवाल यह है कि निचले तबके के प्रतीक शब्द "'रम धनिया'"' का प्रयोग क्या नवगीत में असंसदीय है। दूसरा आक्षेप इसके कथ्य को लेकर है कि ऐसे चित्रण में सावधानी की आवश्यकता है। तो यह सावधानी और चुनौती तो रचनाकार को हर स्तर पर है।</div>
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-रमाशंकर वर्मा</div>
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July 20 at 1:06pm </div>
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०००००००००</div>
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अवनीश सिंह चौहान मैंने जिस गुटबंदी की ओर संकेत किया था उसकी एक परत खुलकर आई। अभी कई और परतें हैं जो सामने आएंगी।</div>
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-अवनीश सिंह चौहान</div>
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July 20 at 1:45pm </div>
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०००००००००</div>
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Ramshanker Verma छींटाकशी से इस विमर्श में कोई सार्थक मंतव्य नहीं निकलेगा।</div>
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-रमाशंकर वर्मा</div>
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July 20 at 2:22pm </div>
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०००००००००००</div>
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शैलेन्द्र शर्मा जी के गीत 'रमधनिया की जोरू धनिया 'पर बहस में रमाकांत यादव जी द्वारा जो प्रश्न उठाये गए हैं उन पर बहस में भाग लेने वाले टिप्पणीकारों ने एक का भी समुचित उत्तर नहीं दिया है बल्कि गीत में प्रयुक्त 'आया ट्विस्ट कहानी में' को चरितार्थ करते हुए गीत की अनुकूल व्याख्या की जा रही है। कोई भी रचनाकार अपने समय से निरपेक्ष नहीं रह सकता एवं परिस्थितियों के संघात से चेतना में हुए परिवर्तन के अनुसार उसकी मानसिकता ,मंतव्य और प्रतिबद्धता निर्मित होती है। रचनाकार के लेखन में उसी चेतन -अवचेतन मानसिकता की अभिव्यक्ति होती है। भारतीय समाज व्यवस्था पतनोन्मुख सामन्ती और विकासशील पूंजीवादी मूल्यों के दौर से गुजर रही है। जिसमें वर्ग और वर्ण के मूल्य समाज के हर व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के अनुसार चेतना पर हावी रहते हैं। प्रगतिगामी सोच वाला मनुष्य अपने अध्ययन ,सामाजिक संपर्क और स्वविवेक से अपने मंतव्यों और मानसिकता को बदलने में सफल हो जाता है जिसे वर्गहीनता की श्रेणी के रूप में ग्रहण किया जाता है। एक साहित्यकार से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने लेखन में निष्पक्ष भाव से समय और समाज का विश्लेषण करते हुए अपनी समकालीनता पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता हुआ न्याय ,समता ,बंधुता के सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों की रक्षा करे।</div>
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-जगदीश पंकज</div>
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July 20 at 10:17pm </div>
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०००००००००</div>
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प्रस्तुत गीत में शैलेन्द्र शर्मा जी ग्राम के प्रभुत्वशाली वर्ग की पीड़ा का उल्लेख ही कर रहे हैं। उन्होंने अपने वर्ग की जिस त्रासदायक कसमसाहट ,मिस्मिसाहट और असहाय स्थिति का चित्रण किया है वह उसमें सफल रहे हैं। शैलेन्द्र जी जिस वर्ग या वर्ण से सम्बन्ध रखते हैं उसके वर्गहित पर पहुंची चोट और बेबसी को ही तो गीतके माध्यम से व्यक्त किया गया हैं। जिस व्यक्ति रमधनिया के माध्यम से स्थानीय सत्ता के सबसे निम्न पद पर पत्नी का चुनाव होने से मनोविज्ञान में हुए परिवर्तन और पांच साल में झुग्गी से महल तक की यात्रा का वर्णन किया है वह उसी सामंती संस्कारों में जीने वाले प्रभावशाली और प्रभुत्व वाले लोगों की दया-कृपा से तो चुना ही नहीं गया होगा बल्कि वह अपनी और अपने जैसे लोगों की संयुक्त शक्ति से ही देश-प्रदेश की दलितों /पिछड़ों /महिलाओं के प्रतिनिधत्व की नीति के कारण ही यह चुनाव जीत पाया है। उस दबंग वर्ग की त्रासदी यह है कि उन्हें उस दलित वर्ग से अपना चाटुकार और जी हुजूरी करने वाला कोई नहीं मिला या मिला भी तो वह चुनाव जीत नहीं पाया। तभी तो कसमसाहट है कि जिससे दबंग अब तक बेगार कराते थे अब उसकी अगवानी करने को विवश हैं। इसी के साथ शासन-प्रशासन के अधिकारियों का उसे तरजीह देना भी देखा नहीं जा रहा है। इस गीत से यह भी प्रकट होता है कि पहले जो नैतिक-अनैतिक ,वैध-अवैध लाभ जिस प्रभुत्वशाली वर्ग को मिलता था और जिसके द्वारा वे भी पांच साल में महल खड़े करते थे वे उससे वंचित हो गए हैं तथा वह व्यक्ति भी इतना सशक्त है कि उसका कुछ बिगाड़ नहीं पा रहे और उस दलित की दबंगई के आगे बेबस हैं। शैलेन्द्र जी अपनी और अपने वर्ग की पीड़ा को व्यक्त करने में सफल रहे हैं।पूरे गीत में ऐसा कोई संकेत नहीं है कि यह सब देश की सामाजिक -राजनैतिक व्यवस्था की देन है। यदि गीत में ऐसा कुछ संकेत होता तब भी गीतकार की मानसिकता पर इतने प्रश्न नहीं उठते किन्तु जाने या अनजाने में शैलेन्द्र शर्मा उत्पीड़क/शोषक दबंग वर्ग के पक्षधर की भूमिका निभा रहे हैं। समूह में यह गीत रमाकान्त यादव जी के प्रश्नों के कारण बहस में आ गया है। गीत की भाषा -शैली कथ्य के अनुरूप है।पूरे गीत में जाति का उल्लेख नहीं है लेकिन भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में जो लोग बेगार करने को विवश हैं वे दलित ही हैं चाहे जाति कोई भी हो। मेरा निवेदन है कि सुविज्ञ जन प्रस्तुत गीत और उसके निहितार्थ को दृष्टिगत रखते हुए अपना अभिमत रखेंगे तो सार्थक विमर्श हो सकेगा। </div>
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-जगदीश पंकज</div>
<div style="text-align: justify;">
July 20 at 10:17pm </div>
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००००००००००</div>
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<div style="text-align: justify;">
यौवनं धनसम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकता </div>
<div style="text-align: justify;">
एकैकं अनर्थाय किम् तत्र चतुष्टयम् !!</div>
<div style="text-align: justify;">
यौवन धन सम्पत्ति प्रभुत्व और अविवेक.. इनमें से एक-एक अनर्थकारी है.. जिसके पास ये चारों हों वहाँ या उसका क्या ? अर्थात उसका कैसा आचरण होगा ? </div>
<div style="text-align: justify;">
महती यह नहीं कि किसने क्या किया, महत्त्वपूर्ण है कि प्रवृति क्या थी. क्या हम इस आलोक में कभी सोचना शुरु कर पायेंगे. या भँड़ास निकालने के तहत व्यवस्था का विरोध नहीं, अपितु स्वीकार्य अनुमन्य व्यक्तियों को पोषित करते हुए प्रवृति विशेष को ही प्रश्रय देते रहेंगे. यदि ऐसी सोच के अंतर्गत हम वैचारिक हो रहे हैं, तो अफ़सोस हमारे जैसा वाचाल, दुराग्रही और ढोंगी विचारक और कोई नहीं होगा. ऐसी स्थिति में हम विचारक नहीं, अपनी बारी की प्रतीक्षा करते घोर अवसरवादी ही होंगे. अगर ऐसी संज्ञा और मान से परहेज नहीं है तो फिर वर्ण-वर्ग भेद पर सारा विमर्श, सारी परिचर्चा अनावश्यक ही नहीं, थोथी बकवाद है. जिसकी ओट में आजतक मुट्ठियाँ भींची जाती रही हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे न उच्च, न दलित, किसी से कुछ नहीं लेना देना. बस ये बस ये देखना है कि क्या आमजन सहज है ? या, रुपहले पर्दे पर चलचित्र के किसी नायक के नकली गुस्से पर तालियाँ पीटता हुआ अपने को लगातार अप्रासंगिक करता हुआ मूर्ख है ? करोड़ों में खेलने वाला तथाकथित वह नायक सफल हो कर जिस प्रवृति को जीता है, उसकी प्रतिच्छाया में मुग्ध एवं तुष्ट रहना यदि किसी वर्ग या व्यक्ति-समूह को रोमांचित करता है, तो फिर मुझे कुछ नहीं कहना. अन्यथा, यह सालता है, बहुत-बहुत सालता है, कि हम दलित मनोविज्ञान की समझ के नाम पर अपनी दमित इच्छाओं का पोषण चाहते हैं. ऐसी इच्छा किसी दलित या पीड़ित आंदोलन का हेतु कभी नहीं रही है. तभी ऐसे आंदोलन प्राणवान भी रहे हैं. </div>
<div style="text-align: justify;">
वैसे यह सही है, कि सदियों-सदियों से पीड़ित-शोषित वर्ग एक बार में अपनी दमित इच्छाओं से निस्संग, निस्पृह नहीं हो सकता. किन्तु, यह भी सही है, इस घर को सबसे अधिक खतरा घर के चिरागों से ही है, जो वैचारिक रूप से दिशाहीन हैं या शातिर-दबंगों तथा ’शास्त्रीय’ शोषकों के हाथों की कठपुलली हैं. ऐसी ही एक कठपुतली का ज़िक्र यह नवगीत गा रहा है. </div>
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एक बात: </div>
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किसी नाम के साथ शर्मा, श्रीवास्तव, मिश्र, पाण्डेय, सिंह या वर्मा या ऐसे ही ’आदि-अनादि’ ’प्रत्यय’ देख कर, अपने मत और मंतव्य बनाने हैं, चीख-चिल्लाहट मचानी है, तो यह परिचर्चा के क्रम में महाभारी उथलापन और गलीज छिछलापन का द्योतक होगा. यह कत्तई साहित्य नहीं. ऐसे साहित्य को, क्षमा कीजियेगा, साहित्य नहीं घटिया राजनीति से प्रभावित परिवाद कहते हैं. फिर तो पीड़ितों व शोषितों के नाम पर आज ’एक वर्ग’ विशेष सबसे अधिक --जायज-नाजायज रूप से-- लाभान्वित होने का दोषी है. उक्त वर्ग से ताल्लुक रखने वाला आज हर तरह से रंगा सियार है. उसके किसी दिखावटी और थोथे गुस्से से कोई क्यों प्रभावित होने लगे ? ऐसी सोच क्या घटिया सोच नहीं होगी ? अवश्य होगी. अतः साहित्य को साहित्य ही रहने दिया जाय. सारी सड़कें राजधानी से गुजरती हैं का आलाप कितना कुछ बरबाद कर चुका है इसे क्या अब भी समझना बाकी है ?</div>
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अब इस नवगीत पर - </div>
<div style="text-align: justify;">
यह एक व्यंग्य है जो आजके समाज की नंगई को उघाड़ कर सामने लाने में सक्षम है. रमधनिया स्वयं रामधनी बने या किसी शातिर का मुहरा बना प्रधानपति श्री रामधनी कहलाता फिरे , वह दोनों स्थितियों में अपने वर्ग और समाज केलिए एक निपट गद्दार है. वह सिर्फ़ अपना भला देख रहा है. इस व्यक्तिवाची सोच का यदि कोई वर्ग समर्थन करता है तो यह स्वार्थी सोच का पोषण ही कहलायेगा. </div>
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ऐसे ही ’गद्दारों’ के दुष्कृत्य से ही विसंगतियाँ पैदा होती हैं. यही समाज में आज तक व्याप रही विद्रूपता का मूल कारण है. विद्रूपता को तारी करने का ठेका किसी वर्ग विशेष के माथे डाल कर कोई दोषी इकाई या वर्ग मुक्त नहीं हो सकता. </div>
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आगे, यह भी स्पष्ट करता चलूँ, कि इस नवगीत के इंगितों में जिस तरह से शातिरों के प्रभाव को रेखांकित किया गया है जिसकी प्रभावी पकड़ में रमधनिया और उसकी प्रधान बीवी है, उसकी ओर यदि समीक्षा के समय दृष्टि नहीं जा रही है, तो यह समीक्षकों की समझ का दोष है. </div>
<div style="text-align: justify;">
नवगीतकार इस प्रस्तुति के माध्यम से उच्च स्तर के व्यंग्य केलिए बधाई का पात्र है. नवगीत आज के पद्य-साहित्य की यदि धुरी है तो इस धुरी की कड़ियों को टुच्ची राजनीतिक् सोच से कमजोर न किया जाय.</div>
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शुभ-शुभ</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
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July 21 at 1:27am </div>
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०००००००००</div>
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<br /></div>
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अब कुछ परतें खुल चुकी हैं। अभी भी कुछ परतें बाकी हैं, जो इससे भी बड़ी हो सकती हैं।</div>
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-अवनीश सिंह चौहान</div>
<div style="text-align: justify;">
July 21 at 11:03am </div>
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००००००००००</div>
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आदरणीय जगदीश व्योम जी, ये कैसी गतिविधियाँ हैं ? ये क्या चल रहा है ? प्रतिक्रिया स्वरूप वन-लाइनर उलटबासियों से किसका भला हो रहा है ? साहित्य का तो कदापि नहीं. मैं किसी वाद या मठ का न हिस्सा था, न हूँ. ऐसे में थाहने की कोई कोशिश अन्यथा कर्म ही होगा.</div>
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<br /></div>
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जगदीश व्योम -- </div>
<div style="text-align: justify;">
"सभी सदस्यों से अनुरोध है कि यहाँ नवगीत विषयक अपनी राय, नवगीत विषयक प्रश्न, नवगीत विषयक टिप्पणी, चर्चा आदि में सहभागिता करें.. यह आवश्यक नहीं कि आप किसी की बात से पूरी तरह सहमत हों.. परन्तु इसे वैयक्तिक न बनायें.... सभ्य भाषा का प्रयोग करें... नवगीत को अनेकानेक लोग समझना चाहते हैं...... यहाँ हम सब मिलकर अपनी अपनी सामर्थ्य से नवगीत के इर्द गिर्द घिरे कोहरे को सहज विमर्श के द्वारा हटाने में सफल हो सकेंगे..... इसी अनुरोध के साथ सभी सदस्यों का स्वागत है.."</div>
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<br /></div>
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सही है.. लेकिन जिन्हें राजनीति करनी है वे करें न. खुल कर करें. किसने रोका है ? लेकिन साहित्यांगन में उनका क्या काम है ? रसोईघर को गुसलखाना समझ लिया है क्या ? व्यवस्था विरोध के नाम पर किसी ’मंतव्य विशेष’ का पृष्ठपोषण न उचित था, न है. न कभी मेरे लिए उचित होगा. लाचारों से लम्बी दौड़ संभव नहीं होती.</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
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July 21 at 2:04pm </div>
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०००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वाह क्या निष्कर्ष निकला पूरे विमर्श का। चूँ-चूँ का मुरब्बा। जब केवल इस नवगीत के कथ्य पर विमर्श हुआ तो वही बात आदरणीय भारतेन्दु मिश्र, आचार्य संजीव सलिल, व्योम जी, बृजनाथ जी, जगदीश पंकज जी, सौरभ जी, वेद शर्मा जी सहित सभी मर्मज्ञों ने कही। क्या निकला, यही कि सत्ता पाते ही उस वर्ग में भी वही नैतिक पतन के कीटाणु प्रवेश कर गए, जो सत्ताच्युत वर्ग में थे। यही कि नवगीत में यथार्थ की सांचबयानी है। शेष तो अपनी-अपनी विचारधारा को नवगीत पर आरोपित कर दिया गया।</div>
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-रमाशंकर वर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
July 21 at 2:20pm </div>
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०००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
किसी साहित्यिक रचना में कथ्य उसका प्राण होता है। प्रस्तुत गीत में रमाकांत यादव जी द्वारा कथ्य पर ही प्रश्न उठाये हैं जो अभी भी उत्तर मांग रहे हैं। प्रश्नों में जिस कटु सत्य का उल्लेख किया गया है वह कुछ मित्रों द्वारा पचाया नहीं जा रहा तथा अपने पूरे पांडित्य प्रदर्शन के बावजूद वैचारिक अजीर्ण की स्थिति से ग्रस्त होकर अनर्गल टिप्पणी करके रोदन कर रहे हैं। मान्यवर, विचार का विचार से और तर्क का तर्क से उत्तर दें तो विमर्श को सार्थक दिशा मिलेगी। अपने आप्त वचनों से समूह को समृद्ध करके और अपनी खीज और तिलमिलाहट को विमर्श के नाम पर उगल कर आपने क्या कमी छोड़ी है अपनी मानसिक दुर्गन्ध को समूह में फेंकने की? आप कहते हैं कि आपका किसी वाद या विचारधारा से कोई लेना देना नहीं क्या यह भी किसी यथास्थिति का वाद या विचार नहीं? वाह-वाह सुनने वाले कान सार्थक असहमति के स्वर सुनने से क्यों कतरा रहे हैं ?बहरहाल ,मेरा पुनः निवेदन है कि पलायन करने के बजाय रमाकांत यादव द्वारा प्रस्तुत नवगीत पर उठाये गए साहित्यिक प्रश्नों का साहित्यिक उत्तर दें तो समूह के विमर्श और संवाद-परिसंवाद के लिए हितकर रहेगा तथा अनेक मित्र जो इस विमर्श पर टिप्पणी न करते हुए भी ध्यान से पढ़ रहे हैं उन्हें भी अच्छा लगेगा।</div>
<div style="text-align: justify;">
-जगदीश पंकज</div>
<div style="text-align: justify;">
July 21 at 3:18pm</div>
<div style="text-align: justify;">
०००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भाइयों! पहले ये तय कीजिए कि आप नवगीत पर बहस कर रहे हैं या जाति की सवर्णवादी मानसिकता पर।दोनो का विमर्श अलग अलग रूप/तर्को/उदाहरणो से होना चाहिए।मेरे विचार से खुरपी से दाढी नही बनाई जा सकती और ब्लेड से घास नही छीली जा सकती।तो मेरा मानना है कि पहले तो हम ये तय करें फिर तार्किक ढंग से बात करें।व्यक्तिगत आक्षेप करना उचित नही है।..जहां तक रमाकांत यादव जी का प्रश्न है कि ये गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है..ये सही बात है ..लेकिन ये मानसिकता कवि के साथ नही बल्कि रमधनिया से रामधनी बनने के बीच जो उसके चरित्र मे परिवर्तन हुआ है उस सत्ता सुख के साथ जुडी है तात्पर्य ये कि जब कोई सत्ता तक पहुंच जाता है तो वह सवर्णता वादी /मनुवादी आचरणो व्यवहारो को सहज मे ही अपना लेता है।जीवंत उदाहरण मायावती जी है -उनके तमाम सवर्ण पैर छूते हैं। उनपर लाखो के नोटो के हार चढाये जाते हैं/ उनकी मूर्तियो का निर्माण भी हो चुका है।जब ये सब हो रहा था तब सतीश मिश्रा जी उनके सलाहकार थे।उनकी हर बात उन्हे स्वीकार करनी होती थी।..मै इसे गलत नही मानता हूं।ये सामाजिक प्रक्रिया है।कभी नाव पानी पर कभी पानी नाव पर भी होता है।विकासवादी समाजशास्त्री विचारको से पता करें।..तो मित्रो हमे व्यक्तिगत आक्षेपो से अपने को और नवगीत को बचाना है।ये अगडे पिछ्डे दलित आदि विमर्शो से ऊपर उठकर रचना को समझने के लिए आवश्यक है।..जाति और समाजशास्त्र पर बहस अलग से करें-विनम्र आग्रह है।</div>
<div style="text-align: justify;">
-भारतेन्दु मिश्र</div>
<div style="text-align: justify;">
July 21 at 6:32pm </div>
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००००००००००००</div>
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<br /></div>
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आप क्या कह रहे और किस तरह की बात कर गये आदरणीय जगदीश जी ? ऐसा भी क्या आग्रह कि सारी बातें पाण्डित्य प्रदर्शन लगीं ? क्या आजतक ऐसा लगता रहा है आपको ? आपके ही नवगीत पर मैं आजतक क्या पाण्डित्य प्रदर्शन करता रहा हूँ ? और पलायन ? या मैंने अन्यथा चर्चा से स्वयं को विलग किया है ? आप मेरा सीधा मेरा नाम ले सकते हैं, साधिकार ले सकते हैं, आदरणीय. आपको इंगितों में कह ने की क्या विवशता हो गयी, आदरणीय ? यह कैसी साहित्य चर्चा है? जो व्यक्तिगत प्रहार को अपनी उपलब्धि समझती है ? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
//रमाकांत यादव द्वारा प्रस्तुत नवगीत पर उठाये गए साहित्यिक प्रश्नों का साहित्यिक उत्तर दें तो समूह के विमर्श और संवाद-परिसंवाद के लिए हितकर रहेगा तथा अनेक मित्र जो इस विमर्श पर टिप्पणी न करते हुए भी ध्यान से पढ़ रहे हैं उन्हें भी अच्छा लगेगा //</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
निवेदन है, आप धैर्य से एक बार अपने लिखे को पढ जायँ. क्या ऐसा भी सोचा गया है कि रमाकान्तजी के कहे को पढा भी नहीं मैंने ? ये कैसी खौंझ है जो अपने को इतना अहंमन्य बना देती है ?</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
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July 21 at 6:32pm </div>
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०००००००००</div>
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<br /></div>
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भारतेन्दुजी, मेरा स्पष्ट मानना है कि ब्रह्मणवादी कोई व्यक्ति नहीं एक प्रवृति होती है. यदि इस महीन अंतर तक को नहीं जानता या किसी मंतव्य और वाद के तहत उसे जानने नहीं दिया जाता, तो समाज का हित नहीं. फिर सारी बातें चर्चा विमर्श आदि व्यक्तिगत क्रोध का पर्याय हैं. हम फिर लाख आमजन की बात करते रहें.. उसकी परिणति ’मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू’ से अधिक नहीं होने वाली. और हम आमजन की बात करते हुए किसी पर अहसान नहीं कर रहे हैं. फिर भी यह सोच है जो गलत को गलत और सही को सही ठहराने की चेतना देती है. यदि इस सोच पर ही प्रहार होने लगे. तो फिर सबकुछ भले होता दिखे, साहित्य चर्चा नहीं. और तुर्रा ये कि अनर्गल रोदन का पर्याय कहा जाता है. आखिर यह मतभेद है. लेकिन मनभेद के बीज रोपने को श्रेष्ठता कहा जा रहा है ? किसने किनको कितना चढ़ा दिया है भाईजी ? </div>
<div style="text-align: justify;">
एक बात और, जहाँ-जहाँ दोयम दर्ज़े का निरंकुश विचार हावी होता है, वहीं ब्राह्मणवाद हावी होता है, जो स्वयं को प्रभावी बताने के लिए हर तरह की धुर्तई और वाचालता अपनाता है।</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
<div style="text-align: justify;">
July 21 at 6:44pm </div>
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००००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
प्रिय सौरभ जी ,आपको मेरी टिप्पणी से आघात पहुंचा कि मुझे स्पष्ट कह देना चाहिए था और हमारे बीच के व्यक्तिगत संबंधों का उल्लेख किया है। मेरा कहना है कि आपकी पोस्ट से पहले भी कई लोगों ने अपने विचार प्रकट किये हैं तथा मेरी टिप्पणी के ठीक बाद आपका मत पोस्ट हुआ है जिसमें बहुत कुछ कहा गया है ,प्रासंगिक भी और अप्रासंगिक भी ,जिसे कई किस्तों में आगे बढ़ाया गया है। जिनसे यही निष्कर्ष निकलता है कि मेरी टिप्पणी पढ़कर आप विचलित हो गए जबकि मैंने एक बहस को आगे बढ़ाते हुए अपना विचार रखा था और चाहा था कि रमाकांत यादव के प्रश्नों को दृष्टिगत रखते हुए विमर्श हो। आपके लगातार कई कमेंट्स से यही प्रकट हो रहा था कि आप प्रस्तुत नवगीत और नवगीतकार के बचाव में मुझ पर परोक्ष प्रहार कर रहे हैं। आपकी बेचैनी का कारण कुछ भी रहा हो।मैंने अपने मंतव्य में एक सामान्य चर्चा की है जिसे आपकी टिप्पणियों में अन्यथा लिया गया और परोक्ष रूप से कहा गया कि राजनीति चल रही है। जहां तक शैलेन्द्र जी का प्रश्न है मैं स्वयं उनके गीतों का प्रसंशक रहा हूँ तथा यथास्थान टिप्पणियाँ भी की हैं। और आपसे तो मेरे अनुजवत सम्बन्ध हैं। मेरा आशय नवगीत तक ही सीमित है, हम असहमत हो सकते हैं, विचार भिन्नता हो सकती है किन्तु कटुता से बचना उचित है। जहां तक रमाकांत यादव का प्रश्न है मेरा उनसे कोई व्यक्तिगत परिचय भी नहीं है तथा इसी समूह की एक अन्य पोस्ट पर मेरे उनसे भिन्न विचार हैं। मैंने अपने विचार बिना किसी दबाव और दुराग्रह के रखे हैं। इस पोस्ट की शुरुआत रमाकांत यादव द्वारा कुछ प्रश्नों के साथ की गयी है और उनका उत्तर चाहा है। मैं भारतेंदु मिश्र जी के साहस की सराहना करता हूँ कि उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है,… //..जहां तक रमाकांत यादव जी का प्रश्न है कि ये गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है..ये सही बात है ..लेकिन ये मानसिकता कवि के साथ नही बल्कि रमधनिया से रामधनी बनने के बीच जो उसके चरित्र मे परिवर्तन हुआ है उस सत्ता सुख के साथ जुडी है तात्पर्य ये कि जब कोई सत्ता तक पहुंच जाता है तो वह सवर्णता वादी /मनुवादी आचरणो व्यवहारो को सहज मे ही अपना लेता है।// .... और पूरी तार्किकता से अपनी बात के समर्थन में जीवंत सामाजिक उदाहरण दिए हैं। वे उदाहरण साहित्येतर हो सकते हैं किन्तु काल्पनिक नहीं हैं । विमर्श में मतभिन्नता तो होनी ही है अतः अपने विपरीत मत और उसके आशय को समझने का स्थान बनाये रखना चाहिए। मैं समझता हूँ कि इस नवगीत पर काफी विमर्श हो चुका है और आगे बढ़ने पर तल्खियाँ ही बढ़ने का भय है अतः अब विराम देकर समापन की ओर बढ़ा जाये। </div>
<div style="text-align: justify;">
सादर,</div>
<div style="text-align: justify;">
-जगदीश पंकज</div>
<div style="text-align: justify;">
July 21 at 11:31pm </div>
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००००००००००००</div>
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Saurabh Pandey इस तरह से कुछ भी समझ लिये जाने को, भाईसाहब, योग सूत्र में ’विपर्यय’ कहते हैं. जो मात्र अपनी आग्रही मान्यताओं तथा सूचनाओं पर निर्भर करता है, नकि तार्किक सोच पर. </div>
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आपसे निवेदन है कि आप पुनः मेरी दोनों टिप्पणियों को पढें. विशेषकर नवगीत की समीक्षा वाले भाग को. आप समझेंगे, उस पोस्ट का समापन कैसे हुआ है. आपको स्प्ष्ट होगा कि मैंने भी ढोंगी प्रवृति और तथाकथित सवर्ण-व्यवहार को हर तरह की विद्रूपता का कारण माना है. </div>
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सर्वोपरि, मेरी टिप्पणियों का आधार आपकी टिप्पणी थी ही नहीं. वस्तुतः, अपनी टिप्पणियों को पोस्ट करने के बाद मैंने आपकी टिप्पणी देखी थी. मैं भाई रामशंकर वर्माजी से टिप्पणियों के माध्यम से जिस तरह से बातचीत करता चला गया हूँ, उसे भी देख जाइये. खैर.. </div>
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<br /></div>
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दो बातें अवश्य कहूँगा - </div>
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एक, नवगीत समीक्षा में मैंने यदि कदम बढाये हैं तो यह मेरे अपने मंतव्यो को थोपने का माध्यम नहीं बनेगा. इसके प्रति सभी आश्वस्त रहें. </div>
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दो, हर रचनाकार में एक सचेत पाठक अवश्य हो, अन्यथा रचनाकार की आत्ममुग्धता उसे कुछ भी करा सकती है. उसके क्रोध को दिशाहीन कर सकती है. जबकि रचनाकार के हृदय की ज्वाला साहित्य संवर्द्धन के लिए अत्यंत आवश्यक है. समाज वही समरस होता है जिसके सदस्य अपने सार्थक क्रोध को सदिश रख पाते हैं. तभी वे तार्किक ढंग से वैचारिक होते हैं. </div>
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<br /></div>
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जगदीश जी, आपके माध्यम से कुछ सदस्यों को पुनः कहूँगा - संपर्क और सान्निध्य से परिचित हुआ जा सकता है, रचनाकर्मी और साहित्यकार नहीं हुआ जा सकता. वर्ना प्याज लिए बैठे रहेंगे और प्याजी कोई और खायेगा. </div>
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<br /></div>
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मैं कुछ भी हृदय में नहीं रखता. लेकिन यह अवश्य है कि, रचनाओं पर समाज के सापेक्ष परिसंवाद तथा राजनीतिक एवं समाजशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में दिये जाने वाले तर्क दो भिन्न स्थितियाँ पैदा करते हैं. हमारी चैतन्य-सोच इसे समझे और इसे अवश्य गुने. आदरणीय रमाकान्तजी का रचनाकर्म साग्रह हो लेकिन उन्हें गीत-नवगीत की समझ बढ़ानी होगी. वर्ना माहौल बार-बार अग्निमय होगा. क्योंकि गाँठें जब खुल जाती हैं तो बार-बार खुलती हैं </div>
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<br /></div>
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आदरणीय जगदीशजी, हर समय विमर्श के नाम पर लट्ठ भांजना अखाड़ो का आचरण है. हम अखाड़ेबाजी न करें.</div>
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सादर</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
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July 22 at 12:13am </div>
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०००००००००</div>
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अवनीश सिंह चौहान प्रिय सौरभ जी, विमर्श के नाम पर लट्ठ भांजने का कार्य कौन कर रहा है और वह भी गुट बनाकर? यह पाठक बखूबी समझ रहे हैं और आदरणीय जगदीश पंकज जी भी संकेत कर चुके हैं। तिस पर भी आप आदरणीय जगदीश पंकज जी को नसीहत दे रहे हैं। आपने तो रमाकांत जी को भी नसीहत दे डाली कि उन्हें अपनी समझ बढ़ानी होगी। आपने आदरणीय डॉ जगदीश व्योम जी को भी कह दिया कि विमर्श के नाम पर यह क्या चल रहा है। आपने यह भी लिखा कि 'संपर्क और सान्निध्य से परिचित हुआ जा सकता है, रचनाकर्मी और साहित्यकार नहीं हुआ जा सकता' - यह भी एक नसीहत है। आपकी टिप्पणियों को अगर ठीक से पढ़ा जाय तो ऐसे कई बिन्दु प्रकट हो जायेंगे जो एकपक्षीय हैं और अखाड़ेबाजी की ओर संकेत करते हैं। आपसे तो यह उम्मीद नहीं थी। आपसे तो बेहतर यहाँ वे आलोचक हैं जिन्होंने शुरू मैं रमाकांत जी द्वारा कही गयी बात - सवर्णवादी मानसिकता - को बाद में अपने ढंग से स्वीकार किया और कहीं भी रमाकांत जी को समझ बढ़ाने की नसीहत नहीं दी, उम्र और अनुभव में बड़े होने के बावजूद भी; और जिन्होंने भिन्न मत भी दिया उन्होंने अपनी भाषा को संयमित बनाये रखा। इसे कहते हैं बड़ी सोच।</div>
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-अवनीश सिंह चौहान</div>
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July 22 at 8:33am </div>
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००००००००००००००</div>
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किसी रचनाकार के अन्दर की गाँठे ज्यों ज्यों खुलती जाती हैं त्यों त्यों रचनाकार के रूप में उसका कद बढ़ता जाता है, इसलिए मन की गाँठों का खुलना एक रचनाकार के लिए बहुत जरूरी है.... गीत और नवगीत में एक अन्तर यह भी है.... यदि गाँठें लगी हैं तो कम से कम नवगीत को नहीं समझा सकता... नवगीत विमर्श समूह है ही इसलिए कि मन की गाँठे खुल सकें...... और हाँ रमाकान्त ने जो प्रश्न उठाया है उसकी गम्भीरता को धैर्य के साथ समझने की आवश्यकता है यह नवगीत को समझने के लिए भी जरूरी है..... यह केवल एक रमाकान्त का प्रश्न नहीं है सैकड़ों रमाकान्तों का प्रश्न हो सकता है..... </div>
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सभी से यह अनुरोध है कि विमर्श को व्यक्तिगत न बनायें...... यहाँ लिखी जाने वाली टिप्पणियाँ न जाने कितने लोग पढ़ रहे हैं ..... इसका ध्यान रखें।</div>
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-डा० जगदीश व्योम</div>
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July 22 at 7:49am </div>
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००००००००००</div>
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अबनीश भाई, जिन कुछ पंक्तियों को आप नसीहत कह रहे हैं, वे अनुरोध हैं. आपकी बातों से इत्तफ़ाक रखता हूँ कि सभी समझ रहे हैं कि कौन क्या कर रहा है. यह सही है भाईजी, कि सभी को भान हो रहा है कि कौन क्या कर रहा है. </div>
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जिस तरह से विमर्श के तौर पर जो कुछ पोस्ट होने लगा, जिसे ऊपर के पोस्ट में हमने पढ़े, तब ही मैंने आदरणीय जगदीश व्योम जी से निवेदन किया था कि वे देखें कि विमर्श के नाम पर क्या चल रहा है. उससे पहले आदरणीय रमाकान्त जी के पोस्ट के आधार पर ही टिप्पणी की थी हमने. </div>
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साहित्य और रचना की समझ के अनुसार चर्चा हो यही उपलब्धियों के मार्ग प्रशस्त करेगा. भाईजी, आपने मुझे अधिक नहीं सुना है. आदरणीय जगदीश पंकज जी जानते हैं मुझे. इसी कारण उनके कुछ कहे पर मैं इतना चौंक गया था, और फिर, बाद मे उनकी भी समीक्षकीय टिप्पणी पढी. स्पष्ट है कि उनको भ्रम हुआ था कि मैंने उनको कुछ कहा है. इस पर बात हो गयी है. विश्वास है, उनका भी भ्रम निवारण हो गया है.</div>
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मंचीय मठाधीशी पर संभवतः आजतक कभी किसी ने नहीं देखा है मुझे. अतः भाईजी, सादर निवेदन है कि ऐसे भ्रम न पालें, न साझा करें. उम्र का लिहाज हम खूब करते हैं, इज़्ज़त करते हैं. लेकिन यह भी सही है कि समीक्षकीय टिप्पणियों और रचनाओं से कोई रचनाकार बड़ा बनता है. रचनाएँ और तदनुरूप समझ बड़ी हों तभी साहित्य का सही रूप से भला होगा. और मेरा ऐसा कुछ कहना मेरी कोई नसीहत नहीं, आजतक आप सबों के सान्निध्य में आयी हुई समझ ही समझी जाय. अन्यथा मठ और मठाधीशी कैसी और कहाँ हो रही है, हमसभी खूब समझते हैं. व्यक्तिगत हम कभी नहीं होते. किन्तु, वास्तविकता को मानते हैं. </div>
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सादर</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
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July 22 at 12:37pm </div>
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०००००००००००००</div>
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Saurabh Pandey //मन की गाँठों का खुलना एक रचनाकार के लिए बहुत जरूरी है.... गीत और नवगीत में एक अन्तर यह भी है.... यदि गाँठें लगी हैं तो कम से कम नवगीत को नहीं समझा सकता. //</div>
<div style="text-align: justify;">
सटीक है, आदरणीय जगदीश व्योमजी. हम समझ से आगे बढ़ें. यही श्रेयस्कर है.</div>
<div style="text-align: justify;">
शुभ-शुभ</div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
<div style="text-align: justify;">
July 22 at 12:33pm </div>
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०००००००००</div>
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Ramshanker Verma तो क्या नवगीत के श्रेष्ठ समीक्षक बताने की कृपा करेंगे कि गीतकार और गीत सवर्णवादी मानसिकता से ग्रस्त है? क्योंकि अब तो तथाकथित गुटों ने काफी समुद्रमन्थन कर लिया है उत्स प्राप्त हो जाना चाहिए।</div>
<div style="text-align: justify;">
-राम शंकर वर्मा</div>
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July 22 at 1:45pm </div>
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००००००००००००००</div>
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<div style="text-align: justify;">
सीमा अग्रवाल कोई भी रचना रचनाकार की बस तभी तक रहती है जब तक वो उसकी डायरी में महफूज़ है । सार्वजनिक होते ही रचना पर पाठकों का अधिकार हो जाता है। रचनाकार को उसी क्षण उस पर से अपना दावा छोड़ देना चाहिए । इसके बाद यह मायने नहीं रखता की रचनाकार उसमे क्या कहना चाहता था (विशेष विवादित परिस्थितियों को छोड़ कर)</div>
<div style="text-align: justify;">
हर पाठक की मानसिक स्थिति का अपना रंग होता है</div>
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जिसके पृष्ठभूमि पर रख कर वो रचना को देखता है इसलिए हर दीवार पर उस एक रचना की रंगत भी भिन्न होगी ही होगी । अब अगर किसी को यह रचना जातिवादी मानसिकता की लगी तो यह उसका अपना मत है जबरन सबको उसी मत का हिस्सा नही बनाया जा सकता उन पाठकों का अभिमत भी उतना ही महत्व स्खता है जिनको इस रचना में ऐसा कुछ नहीं दिखा । इस पर विवाद क्यों ? </div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे यह रचना सिर्फ एक सामान्य मनोविज्ञान की खूबसूरत बानगी लगी । जिसे शैलेन्द्र जी ने बहुत बारीकी से समझा है और मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया है । एक गंभीर विषय को बेहद सहजता और सादगी से पेश किया है । </div>
<div style="text-align: justify;">
विमर्श का विषय रचना में प्रस्तुत कथ्य का सम्प्रेषण तथा वो कितना सत्य व् सार्वभौमिक है यह होना चाहिए ।</div>
<div style="text-align: justify;">
गीत के कथ्य के पक्ष में एक छोटा सा उदाहरण .......</div>
<div style="text-align: justify;">
कक्षा में हर महीने मॉनीटर बदले जाते थे ।एक छोटे से परिवेश में ही मुझ जैसी कोने की सीट पकड़ कर बैठने वाली और कम नंबर पाने वाली छात्रा का ओहदा बदलतते ही चाल मिजाज़ आवाज़ सब बदल जाता था</div>
<div style="text-align: justify;">
वही तो गीत कह रहा है बस कैनवास बड़ा है </div>
<div style="text-align: justify;">
एक सामाजिक या आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग जब बड़ा ओहदा पाता है तो न केवल वो दुनिया के लिए बदलता है बल्कि दुनिया भी अपना आचारण बदल लेती है । सटीक मानसिक विश्लेषण प्रस्तुत किया है शैलेन्द्र जी ने दोनों पक्षों का । </div>
<div style="text-align: justify;">
बहुत बहुत बधाई ।</div>
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-सीमा अग्रवाल</div>
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०००००००००००</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-20145715351953111672015-09-25T02:57:00.001-07:002015-09-25T03:02:01.407-07:00== विमर्श 05==<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
--योगेन्द्र दत्त शर्मा के नवगीत पर विमर्श--<br />
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भूल चुका हर कठिन समय को</div>
<div style="text-align: justify;">
खोज रहा हूँ खोई लय को </div>
<div style="text-align: justify;">
चाह रहा कुछ और देखना</div>
<div style="text-align: justify;">
पर कुछ और देखना पड़ता</div>
<div style="text-align: justify;">
नैतिकता की अग्नि-परीक्षा</div>
<div style="text-align: justify;">
निष्ठा-धर्म शूल-सा गड़ता</div>
<div style="text-align: justify;">
चलते हुए महाभारत में</div>
<div style="text-align: justify;">
याद कर रहा हूँ संजय को</div>
<div style="text-align: justify;">
अंधभक्ति की अंध प्रतिज्ञा</div>
<div style="text-align: justify;">
अंधा युग, अंधी मर्यादा</div>
<div style="text-align: justify;">
कपट-कवच का महिमा-गायन</div>
<div style="text-align: justify;">
सच का उतरा हुआ लबादा</div>
<div style="text-align: justify;">
देख रहा हूँ मुँदे नयन से</div>
<div style="text-align: justify;">
मूल्यों के इस क्रय-विक्रय को</div>
<div style="text-align: justify;">
ढहते बरगद, उखड़े गुंबद</div>
<div style="text-align: justify;">
ध्वस्त शिखर, विपरीत हवाएँ</div>
<div style="text-align: justify;">
रथ के पहियों ने कुचली हैं</div>
<div style="text-align: justify;">
बांसुरियों की दंत-कथाएँ</div>
<div style="text-align: justify;">
हारे हुए विजेताओं में</div>
<div style="text-align: justify;">
ढूँढ़ रहा हूँ शत्रुंजय को</div>
<div style="text-align: justify;">
आपाधापी, छीन-झपट में</div>
<div style="text-align: justify;">
तन-मन क्या, आत्मा तक झोंकी</div>
<div style="text-align: justify;">
किन्तु मिला क्या, यह असफलता</div>
<div style="text-align: justify;">
अनचाही शैया तीरों की</div>
<div style="text-align: justify;">
धीरे-धीरे पल-पल मरते</div>
<div style="text-align: justify;">
देख रहा हूँ मृत्युंजय को</div>
<div style="text-align: justify;">
घनी धुंध में पता न चलता</div>
<div style="text-align: justify;">
कैसी, कहाँ काल की गति है</div>
<div style="text-align: justify;">
जीने को है एक मरण बस</div>
<div style="text-align: justify;">
सहने को विकलांग नियति है</div>
<div style="text-align: justify;">
सोच रहा हूँ, कैसे चीरूँ</div>
<div style="text-align: justify;">
भीतर-बाहर छाये भय को</div>
<div style="text-align: justify;">
-योगेन्द्र दत्त शर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
०००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सुंदर और सामयिक पर,आत्मा शब्द की जगह कुछ और होता तो खटकती नही लय ! शेष क्षमा यदि कुछ गलत कहा !</div>
<div style="text-align: justify;">
-रंजना गुप्ता</div>
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०००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
महाभारत के मिथक का प्रयोग करते हुए समकालीन व्वस्था पर प्रभावी कटाक्ष है । सुंदर एवं सार्थक. नवगीत ।</div>
<div style="text-align: justify;">
-आर.वी. आचार्य</div>
<div style="text-align: justify;">
००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
हर कठिन समय को भूल चुका और खोई लय को खोजने वाला चरित्र पूरे गीत में कहीं नहीं दिखा।अतिशय निराशा में अतीत के महाभारत को वर्तमान तक खींचा गया है।तब के महाभारत ने सत्य को कहीं कुछ अंशों तक बचाया भी था पर इस गीतकार को सब कुछ ध्वस्त हुआ ही नजर आता है।फिर मुखड़ा क्या कहता है पता नहीं।लगता है गीतकार कहना चाहता था कुछ और पर कह गया कुछ और।जीने को जब मरण ही बचा है तो फिर क्या सोचना कैसे सोचना?</div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव</div>
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००००००००००००</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बेहतर और कसा हुआ छन्द, पौराणिक प्रतीक और वर्तमान स्थितियों का सुन्दर चित्रण ।</div>
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बधाई।</div>
<div style="text-align: justify;">
-मुकुन्द कौशल</div>
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००००००००००</div>
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<br /></div>
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आदरणीय यादव जी कविता गद्य तोनहीं होती कवि जिस लय को पाना चाहताहै वह है कहाँ पात्र बदलते हैं पर मूल्य ?...स्थितियां इतने समय बाद भी .....शिल्प शब्द चयन कहन अपनी टिप्पणी पर फिर से विचार करें इस तरह के गीत आजकल गिने चुने लोग ही लिख रहे हैं/ लिख सकते हैं ........</div>
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-वेद शर्मा</div>
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०००००००००००</div>
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<br /></div>
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जब कोई रचनाकार अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए प्रासंगिक मिथकीय प्रतीकों का अपनी रचना में प्रयोग करता है तब उसके सामने सत्य को सशक्त रूप में प्रस्तुत करने की सदिच्छा होती है। मिथकीय पात्र ,कथानक तथा भूमिकाएं अपने अभिधात्मक अर्थ के बजाय लाक्षणिकता के साथ रचना में प्रयोग करते हुए रचनाकार कहाँ तक सफल होता है यह उसके व्यक्तिगत और रचनात्मक अभ्यास और कौशल पर निर्भर करता है। कोई भी व्यक्ति रचनाकार के सृजन की सार्थकता से सहमत या असहमत हो सकता है किन्तु रचनाकार की नीयत,आशय और उसके मंतव्य की पृष्ठभूमि में ही रचना का मूल्यांकन करना उचित है। योगेन्द्र शर्मा जी के प्रस्तुत गीत में प्रयुक्त महाभारत के प्रासंगिक बिन्दुओं का प्रयोग समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने का प्रयास है। रचना के अंत में गीतकार अपने आप से प्रश्न करता हुआ उत्तर के लिए पाठक को सोचने के लिए बाध्य करता है। यहाँ विकल्पहीनता नहीं बल्कि समय का बहुआयामी विद्रूप यथार्थ है जिसका किसी एक विकल्प से मुकाबला नहीं किया जा सकता। पूरे गीत को समग्रता में समझने के लिए अंत से आरम्भ करते हुए उन स्थितियों तक आएं जिनमे आज का भूमंडलीकृत नागरिक जीवन की आपाधापी में फंस कर स्वयं से ही असंतुष्ट होकर स्वयं से ही प्रतिस्पर्धा कर रहा है और असफल होने पर आज के हताशा,अवसाद और असंतोष जैसे युगीन रोगों से जूझ रहा है। आज जब सत्य का वही रूप दिखाया जा रहा है जो दिखाने वाले प्रसार माध्यमों और उनके आकाओं के अनुकूल है तब रचनाकार किसी संजय के मिथक का प्रयोग कर रहा है तो यह प्रयोग उचित ही है। जब आज का यथार्थ अपनी तीव्रता में अतीत की स्मृतियों के भयावह यथार्थ से भी अधिक गहन और तीव्र है और उसकी अनुभूतियों की लय भी विगत की अनुभूतियों से अधिक सशक्त है तब पुरानी लय कैसे याद आएगी? आज जब नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन और सांस्कृतिक प्रदूषण का ख़तरा बढ़ता जा रहा है तब निरंतर जटिल होते समयगत यथार्थ को योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा अपनी रचना में बहुत सफलता से अभिव्यक्त किया गया है। रचना में व्यक्त आशय को ग्रहण करके हर व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्या करने को स्वतंत्र है। आवश्यक नहीं कि मेरे विचार से सबकी सहमति संभव हो किन्तु प्रस्तुत नवगीत कथ्य,शिल्प,भाषा , आशय और सम्प्रेषणीयता के बिन्दुओं पर एक उत्कृष्ट रचना है।</div>
<div style="text-align: justify;">
-जगदीश पंकज</div>
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००००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भाषा, कथ्य और शिल्प के स्तर पर समृद्ध नवगीत। गीतकार को हार्दिक बधाई</div>
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-जय चक्रवर्ती</div>
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०००००००००</div>
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<br /></div>
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संवेदनशील मनुष्य की विवशता को मुखर करता कठिन समय का नवगीत है।</div>
<div style="text-align: justify;">
-भारतेन्दु मिश्र</div>
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०००००००००</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कठिन समय से सघर्ष करते एक संवेदनशील मनुष्य की पीड़ा को अभिव्यंजित करता नवगीत है...." चाह रहा कुछ और देखना</div>
<div style="text-align: justify;">
पर कुछ और देखना पड़ता" एक नौकरशाह इन पंक्तियों को अपने मन की पंक्तियाँ भी कह सकता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
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०००००००००</div>
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<br /></div>
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इस नवगीत के मुखड़े से जैसी सकारात्मकता निस्सृत हो रही है वही नवगीतों का वैशिष्ट्य है. बचे-खुचे को समेटते-बटोरते हुए अपने आप को पुनः तैयार करना एक ज़ुनून की मांग करता है, जीने का ज़ुनून ! प्रस्तुत नवगीत मुखड़े से ही अपनी गति साध लेता है. भूल चुका हर कठिन समय को / खोज रहा हूँ खोई लय को.. </div>
<div style="text-align: justify;">
आगे के बन्द विद्रूप हो गये / हो चले क्षण-पलों के परिदृश्य समक्ष लाते हुए हैं, जो संवेदनशील इस मनुष्य ने भोगे हैं. इन्हीं पलों में एक अदद संजय का ढूँढा जाना अवश हो चली परिस्थितियों और अवस्था का इंगित है. संजय सूचना-प्रदाता था. आज दायित्व निर्वहन करता ’संजय’ कहाँ है ? किनके प्रति आश्वस्त हों ? लगभग सभी तो बिके हुए हैं. या फिर, रथ के पहियों ने कुचली हैं / बांसुरियों की दंत-कथाएँ.. </div>
<div style="text-align: justify;">
इन पंक्तियों के माध्यम से रचनाकार ने अत्यंत गूढ़ तथ्य को कितनी सहजता से समक्ष किया है ! कृष्ण के बारे में प्रचलित हो चुकी समस्त कोमल-कथाओं के सापेक्ष भीष्म के विरुद्ध कृष्ण के नये किन्तु अतुकान्त रूप को प्रस्तुत करते हुए कितनी गहरी बात कही है ! अद्भुत ! </div>
<div style="text-align: justify;">
आपाधापी, छीन-झपट में / तन-मन क्या, आत्मा तक झोंकी / किन्तु मिला क्या, यह असफलता / अनचाही शैया तीरों की / धीरे-धीरे पल-पल मरते / देख रहा हूँ मृत्युंजय को </div>
<div style="text-align: justify;">
कवि ने भीष्म के कुल प्रयास और उसके गूढ़ चरित्र को स्वर दे कर अपने भीतर के उस मनुष्य की कही सुनाता हुआ दिख रहा है, जो अपनी किंकर्तव्यविंमूढ़ता और अपने विभ्रम को दायित्व का मुखौटा दे कर हर तरह के असहज कर्म को सार्थक बताने की कुटिल चाल चलता है. कहना न होगा, भीष्म महाभारत का एक क्लिष्ट पात्र है जो अपनी समस्त कमियों को सात्विकता का जामा पहनाता है. भीष्म की स्वामिभक्ति तक दोयम दर्ज़े की रही है. इसतरह के आचरण के अनुकरण के पश्चात स्वयं को ’धीरे-धीरे पल-पल मरते’ महसूस करना अतिशयोक्ति भी होगी क्या ? </div>
<div style="text-align: justify;">
अंतिम बन्द तो मानो जीवन के सनातन स्वरूप को सापेक्ष करता हुआ अकर्म की दशा बताता हुआ है - जीने को है एक मरण बस / सहने को विकलांग नियति है ! </div>
<div style="text-align: justify;">
मेरा आशय इतना ही है कि इतने से इस प्रस्तुति की गहनता समझी जा सकती है. </div>
<div style="text-align: justify;">
इस नवगीत में जिस सार्थकता से पौराणिक पात्रों के माध्यम से आजके मनुष्य की मनोदशा को पूरी संवेदना के साथ सस्वर किय अगया है वह श्लाघनीय तो है ही, इस तरह् अके नवगीतों के प्रति अभ्यासरत रचनाकारों के लिए अनुकरणीय भी है. </div>
<div style="text-align: justify;">
कथ्य और शिल्प की कसौटी पर एक सार्थक नवगीत केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय योगेन्द्र दत्त शर्माजी..</div>
<div style="text-align: justify;">
-सौरभ पाण्डेय</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-2382108339180031002015-09-02T20:25:00.000-07:002015-09-02T20:25:01.673-07:00== विमर्श 03 ==<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक गीत/नवगीत .... क्या कोई बता सकता है कि इसके रचनाकार कौन हैं.... क्या इसे नवगीत कहा जा सकता है ?<br />
====================<br />
एक हाथ में हल की मुठिया<br />
एक हाथ में पैना<br />
मुँह में तिक-तिक बैल भागते<br />
टालों का क्या कहना<br />
भइ टनन टनन का गहना<br />
सिर पर पाग बदन पर बंडी<br />
कसी जाँघ तक धोती<br />
ढलक रहे माथे से नीचे<br />
बने पसीना मोती<br />
टँगी मूँठ में हलकी थैली<br />
जिसमें भरा चबेना<br />
भइ गुन गुन का क्या कहना<br />
जोड़ी लिए जुए को जाती<br />
बँधा बँधा हल खिंचता<br />
गरदन हिलती टाली बजती<br />
दिल धरती का सिंचता<br />
नाथ-जेबड़े रंग बिरंगे<br />
बढ़िया गहना पहना<br />
भइ सजधज का क्या कहना<br />
गढ़ी पैंड की नोंक जमीं पे<br />
खिंच लकीर बन जाती<br />
उठती मिट्टी फिर आ गिरती<br />
नोंक चली जब जाती<br />
बनी हलाई, हुई जुताई<br />
सुख का सोता बहता<br />
भइ इस सुख का क्या कहना<br />
भइ टनन टनन का गहना<br />
<br />
-[यह रचना " विश्वनाथ राघव " की है, " धरती के गीत" संग्रह में 1959 में प्रकाशित]<br />
<br />
--------------------------<br />
<br />
टिप्पणियाँ -<br />
<br />
<br />
व्योम जी क्या इस सौन्दर्य बोध को आज के गाँव की पीढ़ी आस्वाद कर पायेगी?? जब कि मुझे जूए मे जुते बैलों की जोड़ी खेत की तरफ जाते हुए मूर्त हो उठे<br />
<br />
-शिवमूर्ति तिवारी<br />
July 1 at 9:55am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
जमीन से जुड़ा सार्थक नवगीत. कॉंवेंटी मस्तिष्क इसका रसास्वादन नहीं कर सकते, यह उनका दुर्भाग्य है<br />
<br />
-संजीव वर्मा सलिल<br />
July 1 at 10:16am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
बिलकुल ठेठ ग्राम्य सौंदर्य बोध से प्लावित नवगीत !रचियता का नाम जानना चाहूँगी<br />
<br />
-रंजना गुप्ता<br />
July 1 at 7:01pm<br />
...............................<br />
·<br />
<br />
यह भी एक प्रयोग है... कि क्या किसी रचना की कथ्य, शैली.... से किसी रचनाकार को पहचाना जा सकता है..... क्या हम उन्हीं रचनाकारों को सहजता से पहचान पाते हैं जिनकी रचनाएँ विभिन्न कोर्स की किताबों में आ गई.... थोड़ी माथापच्ची करें तो नाम मिल जायेगा..... देखते हैं कि कौन सही रचनाकार तक पहुँच पाता है.... जो पहले पहुँच पाता है उनके लिए "नवगीत २०१३" पुरस्कार स्वरूप भेजी जायेगी......<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 1 at 10:33am<br />
...............................<br />
<br />
हां यह गीत है।नवगीत कहें तोभी उतना ही सार्थक।सदाबहार गीत।शहरी गीतकार भी इसे पसन्द करेंगे बशर्ते उन्हें लोक जीवन लोक संस्कृति की थोड़ी समझ हो।कृपयारचनाकार का नाम बताएं<br />
<br />
-रमाकान्त यादव<br />
July 1 at 10:33am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
रचनाकार की भाषा तो बाबा नागार्जुन या त्रिलोचन जैसी लग रही है<br />
<br />
-प्रदीप शुक्ल<br />
July 1 at 10:44am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
खेती किसानी में पैना, पैंड़ शब्दों का प्रयोग इधर अवध क्षेत्र में होता हो, लगता नहीं है, मुझे लगता है यह नईम, दिवाकर वर्मा या गुलाब सिंह में से किसी का हो सकता है। हालांकि इनके अधिक नवगीत पढ़ने का सुयोग नहीं मिल पाया मुझे। जब कोई नवगीत गीत के मानक पर भी खरा उतरे तो उसका क्या कहना। नवगीतों में लय गेयता और प्रवाह का निर्वाह दुष्कर है। बढ़ते शहरीकरण और जड़ों से कटने के कारण लोकसंप्रक्ति से दूरी नवगीतों में नयी कविता जैसा शब्दाडम्बर पैदा कर रही है। "'भाई भइ टनन टनन का गहना" एक अभिनव प्रयोग है, क्योकि नवगीत का मुखड़ा तो- एक हाथ में हल की मुठिया<br />
एक हाथ में पैना<br />
मुँह में तिक-तिक बैल भागते<br />
टालों का क्या कहना से ही पूरा हो जाता है। पर गहना (घंटा) का प्रयोग जहां इसे नवगीत बना देता है, वहीं "'भाई टनन टनन का गहना" की अतिरिक्त पंक्ति लोकसंप्रक्ति से लपेट देती है। पाठक को खेत जुताई का सम्पूर्ण विम्ब अद्भुत है। मेरी दृष्टि में यह मानक नवगीत है। गीत तो है ही।<br />
<br />
-रामशंकर वर्मा<br />
July 1 at 11:24am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
मुझे रचनाकार का तो पता नहीं पर इस गीत को पढ़ कर मन अत्यंत आनंदित हो गया. ऐसे गीत को खोज लाने के लिये व्योम जी आपको बधाई<br />
<br />
-सन्तोष कुमार सिंह<br />
July 1 at 12:31pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
आदरणीय व्योम जी, विषयवस्तु और शैली के हिसाब से तो इसे 500 फीसद नवगीत ही माना जाना चाहिए। रचनाकार का मुझे पता नहीं। लेकिन जो भी है उसे शत् शत् नमन<br />
<br />
-ओमप्रकाश तिवारी<br />
July 1 at 1:06pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
मेरा अध्ययन अत्यल्प है किन्तु मैं आदरणीय नचिकेता जी का नाम लेना चाहूँगा। उनके कुछ गीत मैंने पढ़े हैं। कुछ-कुछ वैसी ही शैली लग रही है।<br />
<br />
-शुभम् श्रीवास्तव ओम<br />
July 1 at 1:29pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
Nirmal Shukla आदरणीय !<br />
यह नवगीत है भाषा तथा शिल्प के हिसाब से महेश अनघ सम्भवत: इसके रचनाकार हैँ...........<br />
<br />
-निर्मल शुक्ल<br />
July 1 at 2:03pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
रचनाकार का नाम खोजने का थोड़ा और प्रयास करें... बाबा नागार्जुन, त्रिलोचन, नईम, दिवाकर वर्मा, गुलाब सिंह, नचिकेता, महेश अनघ ... इनमें से इस गीत का कोई रचनाकार नहीं है<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 1 at 3:32pm<br />
...............................<br />
·<br />
<br />
व्योम जी आप और कितनी धैर्य की परीक्षा लेंगे..बता ही दीजिए मुझे लगता है कि संभवत: ये रमेश रंजक जी का जनगीत हो सकता है।..मैने इसे कहीं सुना या पढा है पर याद नही<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 1 at 6:30pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
जी भारतेन्दु जी... बताता हूँ जल्दी ही...... रमेश रंजक जी का नहीं है..... .<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 1 at 9:01pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
कहीं कैलाश गौतम तो नहीं<br />
<br />
-रामशंकर वर्मा<br />
July 1 at 10:13pm<br />
...............................<br />
<br />
शुभम् श्रीवास्तव ओम जगदीश सर कहीं इसके रचयिता स्वयं आप ही तो नहीं। हम सभी के धैर्य की परीक्षा लेना बंद करें और रहस्य पर से अनावरण करें<br />
<br />
=शुभम् श्रीवास्तव ओम<br />
July 1 at 10:31pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
रमाशंकर जी कैलाश गौतम जी का गीत नहीं है<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 2 at 9:22am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
शुभम जी, मेरा तो जन्म भी नहीं हुआ था जब यह रचना प्रकाशित हुई<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 2 at 9:24am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
कही निराला जी तो नही<br />
<br />
-रंजना गुप्ता<br />
July 2 at 9:56am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
शुभम् श्रीवास्तव ओम आदरणीय जगदीश सर। सही उत्तर चाहे जो भी दे किन्तु नवगीत-2013 की सर्वाधिक आवश्यकता मुझ प्रवेशार्थी को ही है। अत: आप मुझे सही उत्तर मैसेज बाक्स में दें। मैं उसे पटल पर रख देता हूँ<br />
<br />
-शुभम् श्रीवास्तव ओम<br />
July 2 at 1:04pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
भाई जी अब तो बता ही दीजिये। बहुत अच्छा अभ्यास और नए-पुराने गीतकारों का स्मरण इस बहाने से हो गया<br />
<br />
-रामशंकर वर्मा<br />
July 2 at 5:23pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
एक बात जो मेरे मन में आ रही है कि कोई अच्छा गीत/नवगीत पाँच दशक या और भी अधिक समय तक अपरिचित बना रहता है यदि उसके रचनाकार को कोई बड़ा पुरस्कार नहीं मिल पाता है अथवा आलोचना के मठाधीशों की कृपा नहीं होती .....<br />
दूसरी बात यह कि यदि कोई गीत/नवगीत प्रभावशाली है तो वह कभी न कभी पाठकों की पसंद बन ही जाता है.... गीत का रचनाकार कौन है यह जाने बिना भी..... इस रचना को बिना नाम के होने पर भी नवगीत के वरिष्ठ रचनाकारों ने भरपूर सराहा बिना यह जाने कि यह किसका लिखा हुआ है ..... इस बहाने एक भूला बिसरा नवगीत चर्चा में आ सका... आप सभी का आभार......<br />
यह रचना " विश्वनाथ राघव " की है, " धरती के गीत" संग्रह में 1959 में प्रकाशित।<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 3 at 5:26am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
वाह ! आपके कोष के क्या कहने !<br />
<br />
-राजेन्द्र वर्मा<br />
July 3 at 7:47am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
Jagdish Vyom क्या विश्वनाथ राघव के विषय में किसी को कोई जानकारी है<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 3 at 5:03pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
वाह व्योम जी आप तो ऐसे ही श्रेष्ठ गीतो का खजाना दोस्तो को दिखाते रहें।मैने सन 1984 मे म.प्र. सरकार के कृषि विभाग द्वारा संकलित -धरती के लाल -शीर्षक गीत संग्रह मे किसानी के गीतो मे किसान जीवन के अनेक गीत पढे हैं,उसमे ..हे ग्राम देवता नमस्कार/सोने चांदी से नही किंतु /तुमने मिट्टी से किया प्यार ।..जैसी रचनाए भी थीं।संभवत:तभी कहीं इसे पढा है।तब मै ललितपुर के जखौरा ब्लाक मे प्रौढशिक्षा विभाग मे पर्यवेक्षक था ।लेकिन राघव जी की यह रचना है इस रूप मे मुझे याद नही आता।..बहरहाल किसान चेतना का बेहतरीन गीत तो ये है ही। राघव जी के बारे मे थोडा विस्तार कीजिए तो और अच्छा लगेगा।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 3 at 7:16pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
जी भारतेन्दु जी, आप गीतों पर जैसी पैनी दृष्टि रखते हैं वह अनुकरणीय है..... राघव जी के विषय में मेरे पास और जानकारी नहीं है...... यह संग्रह मेरे पास है... खोजता हूँ ...... इसी बहाने कुछ चर्चा गीत नवगीत पर होती रहे ....<br />
<br />
-जगदीश व्योम<br />
July 4 at 10:19am<br />
...............................<br />
<br />
<br />
मुझे गीति रचना इसलिए भी अच्छी लगी क्योंकि में ग्रामीण परिवेश में ही पला बढ़ा और वर्षों रहा हूँ ,शेष रचनाकार का नाम रहस्य में रखकर विमर्श करने कराने का यह प्रकार अधिक नहीं भाया<br />
उस पर भी जाने माने लोग अनुमान ज्ञान में शून्य सावित हुए वह भी अकारण सीधी बात होनी चाहिए थी।<br />
<br />
-मनोज जैन मधुर<br />
July 3 at 9:40pm<br />
...............................<br />
<br />
<br />
आदरणीय व्योम जी यह विडम्बना है गीत प्रकाशित होना एक बात है और प्रकाश में आना अलग बात है इसी तरह से कितने और रचनाकार होंगे और न जाने कितने और गीत होंगे जो ऐसे ही प्रकाशित होते हुए भी अप्रकाशित रह गये होंगे .....जब तक कहीं चर्चा न हो तब तक तो वे समय के गर्त में ही माने जायेंगे....जब तक कहीं किसी संज्ञान में नहीं आयेंगे तब तक इस संबंध में किसी का भी अनुमान शून्य ही होगा.....आप के द्वारा नवगीत काल के आरंभिक दिनो के इस नवगीत को पाठकों एवं मेरे जैसे विद्यार्थियों तक पहुचाने हेतु आभार.......<br />
<br />
-निर्मल शुक्ल<br />
July 3 at 11:01pm<br />
................................<br />
<br />
<br />
तीनों नवगीत दशकों के 30 नवगीतकारों में से आधो का नाम भी लोगों को शायद न मालूम हो। शुक्ल जी सही कह रहे हैं,गीत अपने आप में कठिन साधना है और नवगीत आधुनिक समय में उस कठिन साधना के परिणाम स्वरूप उपजा नवनीत है।..अब आज के कवियों में शब्द छन्द रस अर्थ बोध के स्तर तक पहुंचने का अवकाश नहीं बचा है। युगीन सत्य को गीत में उतार पाना किसी समय में कतई सहज नहीं रहा।..हम आज कम पढ़ने वाले ज्यादा कहने वाले मंच गोंचने वाले मित्रों से रूबरू हैं और इस अकविता के नए युग में खड़े हैं।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 4 at 7:08pm<br />
------------------------------- </div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-18458343496479228582015-08-29T08:08:00.003-07:002015-08-29T08:08:33.145-07:00गीत गागर में नचिकेता का लेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
गीत गागर में नचिकेता का लेख</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
== हर कविता की इच्छा अन्ततः गीत बन जाना है ==</div>
<div style="text-align: justify;">
"गीत गागर" पत्रिका [सम्पादक दिनेश प्रभात] के अप्रैल-जून २०१५ अंक में नचिकेता द्वारा लिखे गए "केदारनाथ अग्रवाल के गीतों की बनावट और बुनावट" शीर्षक लम्बे लेख की दूसरी कड़ी प्रकाशित की गई है.... नचिकेता जी ने केदारनाथ अग्रवाल के गीतों के बहाने गीत पर महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं.. </div>
<div style="text-align: justify;">
अरुन कमल के कविता विषयक विचार इस लेख में देखें--</div>
<div style="text-align: justify;">
" हर कविता की इच्छा अन्ततः गीत बन जाना है। क्योंकि संगीत के सबसे पास का बिन्दु है, दो देहों के बीच बस एक स्पंदित भित्ति तक पहुँचना ही कविता का ध्येय है और श्रेय भी। जहाँ पहुँच कर भाषा बहुत हल्की भारहीन हो जाती है, शब्द अपनी पीठ से सारे माल असबाब, सारे स्थूल अर्थ को छोड़ते हुए, केवल छायाओं-प्रच्छायाओं को, आभासों को वरण करते हुए उस भाव दशा को व्यक्त करते हैं जिसमें पूरी जीवन-स्थिति अन्ततः तिरोहित या स्त्रवित होती है"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
<div style="text-align: justify;">
...........................</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>टिप्पणियाँ-</b></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जिसमें पूरी जीवन स्थिति अन्तत:तिरोहित यास्त्रवित होती है। कृपया स्पष्ट करें।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रमाकान्त यादव</div>
<div style="text-align: justify;">
June 17 at 3:42p</div>
<div style="text-align: justify;">
---------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब जब तक नचिकेता जी के उद्धरणो की पडताल न कर ली जाए कुछ कहना कठिन है।अरुन कमल जी अच्छे कवि है किंतु वे गीत /नवगीत के विचारक भी हैं यह मेरे लिए नई जानकारी है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारतेन्दु मिश्र</div>
<div style="text-align: justify;">
June 17 at 8:03pm </div>
<div style="text-align: justify;">
----------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैने केदार बाबू के गीतो पर केन्द्रित जो लेख उनकी जंन्मशती के अवसर पर लिखा था (छन्दप्रसंग ब्लाग पर और प्रवक्ता डाट काम पर उपलब्ध है, उससे नचिकेता जी का आलेख कितना भिन्न है गीतगागर को पढे बिना नही कह सकता।जिज्ञासु चाहें तो लिंक देख कर अंतर समझ सकते हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
http://2.bp.blogspot.com/.../s1600/Kedarnath_Agarwal.jpg</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भारतेन्दु मिश्र</div>
<div style="text-align: justify;">
June 18 at 9:15am </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
---------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-44276284211893724342015-08-29T07:53:00.000-07:002015-08-29T07:53:15.334-07:00गीत गागर में नचिकेता का लेख<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
गीत गागर पत्रिका के अप्रैल-जून २०१५ अंक में नचिकेता द्वारा लिखे गए "केदारनाथ अग्रवाल के गीतों की बनावट और बुनावट" शीर्षक लम्बे लेख की दूसरी कड़ी प्रकाशित की गई है.... नचिकेता जी ने केदारनाथ अग्रवाल के गीतों के बहाने गीत पर महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं.. यह लेख नवगीतकारों को पढ़ना चाहिए.... इस लेख में आपको अपने मन में उठने वाले तमाम प्रश्नों के उत्तर मिल सकते हैं..... लेख का एक अंश देखें-</div>
<div style="text-align: justify;">
" आज की आधुनिक काव्य-दृष्टि के अनुसार आज की बौद्धिक कविताओं की संरचना जितनी जटिल और उसके अर्थ निर्माण की प्रक्रिया जितनी अबूझ, अमूर्त और अर्थहीन होगी वह उतनी ही श्रेष्ठ कविता होगी। जो कविता पाठकों की समझ में नहीं आयेगी वह प्रभावशाली, कलात्मक और सोद्देश्य क्या खाक होगी ? .... जिस कवि से जनता सीधे संवाद करती हो उसे आज की अबूझ और निरी गद्यात्मक कविता जो व्यापक जन-जीवन से पूरी तरह विस्थापित हो चुकी है, से प्यार कैसे हो सकता है। इसलिए आज की नितान्त जटिल और पहेलीनुमा अबूझ गद्य कविता की वर्तमान स्थित को देखते हुए केदारनाथ अग्रवाल ने क्षुब्ध स्वर में कहा है कि आज-</div>
<div style="text-align: justify;">
" कविता को नंगा कर दिया गया है, उसकी रीढ़ तोड़ दी गई है, उसे हर तरह से अपंग कर दिया गया है, उसकी स्वर और ध्वनियाँ छीन ली गईं हैं, उसे भाषायी संकेतबद्धता से वंचित कर दिया गया है, उसे कवि के अचेतन मस्तिष्क में ले जाकर ऊलजलूल में भरपूर भुला-भटका दिया गया है ... अब आज जब सब दफ्तर के बाबू हो गए हैं.. छोटे-बड़े नगरों में खोये हुए और खाये गए हैं.. जनता से कट-कटा चुके हैं.. बोलने में बुदबुदाते हैं... लिखने को कविता लिखते हैं, मगर कविता नहीं लिवर लिखते हैं, नये-नये वाद-विवाद के चक्कर में डालडा के खाली डिब्बे पीटते हैं... करते कुछ नहीं, काफी हाउस में बकवास करते हैं.. पराये ( विदेशी कविता) की नकल में अकल खर्च करते हैं... और कविता को अपनी तरह बेजान बनाते हैं.. भाषा को चीर-फाड़ कर चिथड़े-चिथड़े कर देते हैं।" (गीत गागर, पृष्ठ 44)</div>
<div style="text-align: justify;">
[केदारनाथ अग्रवाल के गद्यात्मक कविता पर उनके इन विचारों से आप कहाँ तक सहमत हैं ]</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-डा० जगदीश व्योम</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<b>टिप्पणियाँ-</b></div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बिलकुल सच कहा !जिस तरह आधुनिक पेन्टिंग को समझने के लिए एक जटिल व कृत्रिम बौद्धिकता और वाहियात समझ की जरूरत है, उसी भांति आज की बड़ी बड़ी साहित्यिक हिन्दी पत्रिकायें दुरूह और पहेली संरचना की कविताएँ छाप क्र जनता के सरोकारों से पूरी तरह विमुख है !उन्होंने तो नारी और काम पर ,कामशास्त्र को भी पानी पिला रखा है,और आलोचक पूरी तरह जुगाड़ू ,पक्षपाती , स्वजन हितैषी ,पेड न्यूज चैनल बन गए है!</div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-रंजना गुप्ता</div>
<div style="text-align: justify;">
June 8 at 1:02pm </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस आलेख का पहला अंक हमने पढ़ा है. इसके बाद वाला अंक जिसकी चर्चा हुई है, अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। नचिकेताजी के आलेख से जो आपने उद्धरण दिया है वह अत्यंत सटीक और सार्थक है. इन तथ्यों का प्रचार आवश्यक है और समय की मांग भी. यह अवश्य है, कि पाठक के स्तर को सकारात्म्क आयाम मिले, इसके लिए भी रचनाकार को प्रयास करना है. अर्थात रचनाकार से मात्र भावमय पंक्तियों की सपाट अपेक्षा कभी नहीं होगी. तो दूसरी ओर, पाठक की अध्ययनप्रियता और सकारात्मक वैचारिकता रचना और रचनाकार दोनों के प्रति रचनात्मक सहयोग होंगी।</div>
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<br /></div>
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-सौरभ पाण्डेय</div>
<div style="text-align: justify;">
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Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-69094501680791203112015-08-29T05:52:00.001-07:002015-08-29T05:52:54.835-07:00श्रीकृष्ण तिवारी के नवगीत पर विमर्श<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
श्रीकृष्ण तिवारी के नवगीत पर विमर्श</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नवगीत की जब चर्चा होती है तो कुछ नवगीतों के मुखड़े तुरन्त याद आ जाते हैं, इनमें से एक नवगीत है- " भीलों ने बाँट लिये वन, राजा को खबर तक नहीं.." इस नवगीत की आलोचना भी खूब की गई फिर भी इसमें कुछ ऐसा है कि सिर चढ़कर बोलता है..... कुछ विमर्श इस पर भी हो... बिना किसी पूर्वाग्रह के तथा इसकी परवाह न करते हुए कि इस नवगीत की आलोचना में पहले क्या-क्या कहा गया है? और किसने-किसने कहा है?.....</div>
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<br /></div>
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-डा० जगदीश व्योम</div>
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-------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
भीलों नें बाँट लिये वन</div>
<div style="text-align: justify;">
राजा को खबर तक नहीं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पाप चढ़ा राजा के सिर</div>
<div style="text-align: justify;">
दूध की नदी हुई जहर</div>
<div style="text-align: justify;">
गाँव, नगर धूप की तरह</div>
<div style="text-align: justify;">
फैल गयी यह नयी खबर</div>
<div style="text-align: justify;">
रानी हो गयी बदचलन</div>
<div style="text-align: justify;">
राजा को खबर तक नहीं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कच्चा मन राजकुँवर का</div>
<div style="text-align: justify;">
बे-लगाम इस कदर हुआ</div>
<div style="text-align: justify;">
आवारा छोरों का संग</div>
<div style="text-align: justify;">
रोज खेलने लगा जुआ</div>
<div style="text-align: justify;">
हार गया दाँव पर बहन</div>
<div style="text-align: justify;">
राजा को खबर तक नहीं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उल्टे मुँह हवा हो गयी</div>
<div style="text-align: justify;">
मरा हुआ साँप जी गया</div>
<div style="text-align: justify;">
सूख गये ताल-पोखरे</div>
<div style="text-align: justify;">
बादल को सूर्य पी गया</div>
<div style="text-align: justify;">
पानी बिन मर गये हिरन</div>
<div style="text-align: justify;">
राजा को खबर तक नहीं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक रात काल देवता</div>
<div style="text-align: justify;">
परजा को स्वप्न दे गये</div>
<div style="text-align: justify;">
राजमहल खण्डहर हुआ</div>
<div style="text-align: justify;">
छत्र-मुकुट चोर ले गये</div>
<div style="text-align: justify;">
सिंहासन का हुआ हरण</div>
<div style="text-align: justify;">
राजा को खबर तक नहीं</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-श्रीकृष्ण तिवारी</div>
<div style="text-align: justify;">
-----------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये मंचीय गीत है-लोक कथा को गीत का रूप देने की जतन की गई है। ,चमत्कारिक भाषायी प्रयोग के लिए लोग इसका खूब उदाहरण देते हैं।पूरा गीत एक तरह से -अन्धेर नगरी चौपट राजा वाली -(बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय की)चेतना का प्रतीक है।अर्थ की दृष्टि से इसमे कुछ ज्यादा नही निकलने वाला है।हां -राजा को खबर तक नही-बस ये एक पंक्ति है जो इसे नवगीत के समक्ष खडा करती है।कुछ उलटबांसियां भी इस गीत को चमत्कारी बनाती है-उल्टे मुँह हवा हो गयी</div>
<div style="text-align: justify;">
मरा हुआ साँप जी गया</div>
<div style="text-align: justify;">
सूख गये ताल-पोखरे</div>
<div style="text-align: justify;">
बादल को सूर्य पी गया..इत्यादि</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-भारतेन्दु मिश्र</div>
<div style="text-align: justify;">
July 11 at 6:27pm </div>
<div style="text-align: justify;">
--------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बिखरे बिखरे अर्थोंवाला गीत।अपनी रव में बहता हुआ गीतकार बहक बहक जाता है।सरोकारों के प्रति भी दृष्टि स्पष्ट नहीं।भीलों का वन बाट लेने में और रानी के बदचलन होने को एक ही तराजू से तोल दिया गया है।आखिर राजा का कैसा चरित्र चाहता है गीतकार?दिमाग बाहर रखकर गुनगुनाने में कई बार मजा आता है।हमने आदत जो बना रखी है इस तरह की।कथित ज्ञानियों ने हमें सोचने ही कब दिया ? उनके सम्मोहन के अपने तरी के हैं।क्योंकि हम तो सुनने वाले ही रहे!मूकदृष्टा ही रहे!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-रमाकान्त यादव</div>
<div style="text-align: justify;">
July 11 at 8:19pm </div>
<div style="text-align: justify;">
----------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने इस गीत/नवगीत का मुखड़ा शायद किसी नवगीत संकलन की भूमिका में पढ़ा था, पर इसके बारे में पूर्व में क्या कहा गया है, से परिचित नहीं हूँ। मुखड़े में भी रचनाकार समय का कौन सा प्रसंग व्यक्त कर रहा है, कम से कम मैं समझने में असमर्थ हूँ। "'भीलों ने बाँट लिए वन"' अब सरसरी तौर पर तो यही लगता है, भील तो वनों में रहते हैं, तो वन के वे सहज उत्तराधिकारी हैं, अगर उन्होने बाँट भी लिए तो क्या। आगे अंतरों में राजतंत्र के बदचलन होने का जिक्र है, फलस्वरूप सत्ता हाथ से जाने का जिक्र है, पर "'छत्र-मुकुट चोर ले गये"' अगर राज्य क्रांति भी हुई तो क्रांतिधर्मा तो नायक हुए, चोर कैसे हो गए। पर इस गीत में किस्सागोई है और लय प्रभावित करती है। यह भी की इतना सब कुछ हो गया और राजा को खबर तक न हुई।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रामशंकर वर्मा</div>
<div style="text-align: justify;">
July 13 at 4:01pm </div>
<div style="text-align: justify;">
---------------------------</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
गीत का मुखड़ा आकर्षित करता है ,लेकिन भीलों का प्रयोग किसके लिए किया गया है यह स्पष्ट नहीं हो पाता,यदि भ्रष्टाचार के संबंध में प्रयुक्त करे तो दूसरे बन्ध से भाव असम्पृक्त हो जाता है।गीत में भावान्वित का अभाव प्रतीत होता है।क्योंकि यदि नई पीढ़ी के लिए राज कुअँर का प्रयोग करें तो वह भी युक्त संगति नहीं है पूरी पीढ़ी तो गुमराह नही है ,कुल मिलाकर अस्पष्ट है । अर्थभावन की दृष्टि से गीत ?</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
डा० विनय भदौरिया</div>
<div style="text-align: justify;">
July 23 at 9:14am </div>
<div style="text-align: justify;">
------------------</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-59171286863131800502015-08-29T05:02:00.001-07:002015-08-29T05:02:38.952-07:00मनोज जैन मधुर के नवगीत पर विमर्श<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मित्रो, नवगीत विमर्श की गतिविधियाँ प्रभावित करतीं हैं। मैं अपनी एक रचना आप के अवलोकनार्थ मंच पर रख रहा हूँ। यह गीत है या नवगीत मै इसके बारे में नहीं जानता इसका निर्णय आप जैसे समर्थ लोग ही कर सकते हैं।<br />
<br />
-मनोज जैन<br />
भोपाल<br />
<br />
काश! हम होते नदी के<br />
तीर बाले वट।<br />
हम निरंतर भूमिका<br />
मिलने मिलाने की रचाते।<br />
पांखियों के दल उतर कर<br />
नीड डालों पर सजाते।<br />
चहचहाहट सुन ह्रदय का<br />
छलक जाता घट।<br />
<br />
नयन अपने सदा नीरा<br />
से मिला हँस बोल लेते।<br />
हम लहर का परस् पाकर<br />
खिल खिलाते डोल लेते।<br />
मंद मृदु मुस्कान<br />
बिखराते नदी के तट।<br />
<br />
साँझ घिरती सूर्य ढलता<br />
थके पांखी लौट आते।<br />
पात दल अपने हिलाकर<br />
हम रूपहला गीत गाते।<br />
झुरमुटों से झांकते हम<br />
चाँदनी के पट।<br />
<br />
देह माटी की पकड़कर<br />
ठाट से हम खड़े होते।<br />
जिंदगी होती तनिक सी<br />
किन्तु कद में बड़े होते।<br />
सन्तुलन हम साधते ज्यों<br />
साधता है नट।<br />
<br />
-मनोज जैन मधुर<br />
---------------------------<br />
<br />
इस गीत के लिए हार्दिक बधाई भाईजी.. ऐसी ही चाह हम सभी के मन में है<br />
<br />
-सौरभ पाण्डेय<br />
July 7 at 7:42pm<br />
------------------------<br />
<br />
यह गीत है या नवगीत है .... अपने विचार रखें ताकि अन्य रचनाकारों को भी नवगीत को समझने में सुविधा रहे.....<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
July 8 at 1:01pm<br />
----------------------<br />
<br />
नवगीत के विश्लेषण और परख पर मेरा अधिक अधिकार नहीं है। पर एक सुंदर प्रवाहमान सांगीतिक लय के साथ मुझे नवगीत का साक्षात्कार हो रहा है। गीत की उदात्तता और नवगीत के विम्ब लिए एक खूबसूरत नवगीत। कम से कम मैं तो अभी इतना सुंदर नवगीत नहीं लिख पाया हूँ।<br />
<br />
-रामशंकर वर्मा<br />
July 8 at 5:57pm<br />
--------------------<br />
<br />
वधाई मनोज जी,अच्छे नवगीत के लिए आपतो मेरे प्रिय नवगीतकार हैं।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 9 at 8:34am<br />
---------------------<br />
<br />
टिप्पणी के लिए आभार डा० भारतेन्दु जी ...... इसमें ऐसा क्या है कि इसे एक अच्छा नवगीत कहा जा सकता है.....<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
July 9 at 9:43am<br />
--------------------<br />
<br />
मेरे विचार से इस गीत को नवगीत नहीं कहा जाना चाहिए। इसमें न तो कथ्य की नवता है न ही शिल्प की और न ही युगबोध का कोई संकेत। यह एक काल्पनिक और वायवीय चाहत का प्रकटीकरण है जिसका मानवीय संवेदनात्मक बिन्दुओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी अपने शैल्पिक कसाव और भाषा के स्तर पर एक उत्तम गीत है जिसके लिए मनोज जैन 'मधुर' सराहना और बधाई के पात्र हैं ।<br />
<br />
-जगदीश पंकज<br />
July 9 at 3:13pm<br />
-------------------------<br />
<br />
सबसे पहले तो आभार आप जैसे महापुरुषों का जिन्होंने मुझ जैसे तुकबंदिये की रचना को आदरणीय मंच पर चर्चा के लिए अनुमोदित कर दिया। उनका भी आभार जिन्हें यह तुकबंदी पसंद आई उनका तो विशेष आभार जिन्होंने रचना को गीत नही माना उनका कोटि कोटि आभार जो इसे नवगीत नहीं मान रहे है।मैंने प्रारम्भ में ही निवेदन कर दिया था यह रचना है ,न यह गीत है ,न नवगीत। अब जहां आप जैसे विज्ञजन हो भला वहां मेरी सहमति असहमति के क्या मायने ? फिर भी सम्मानीय मंच के समक्ष अर्जी तो लगा ही सकता हूँ ,अगर मंचस्थ लोगों का हुकुम हो तो ?<br />
हुज़ूर मेरा प्रश्न है इस रचना में मानवीय संवेदनात्मक बिंदुओं से कोई सम्बन्ध कैसे नहीं है ? यह बात मेरी समझ से परे है ?<br />
युगबोध कैसा होता है ?<br />
गीत है या नवगीत इस<br />
पर अंतिम मोहर<br />
कौन लगता है ?<br />
बिंदु बार उत्तर मिले तो गंगा नहा लूँ।<br />
<br />
-मनोज जैन मधुर<br />
July 9 at 6:23pm<br />
---------------------------<br />
<br />
मैं आभारी हूँ सर्व श्री भाई जयराम जय जी सौरभ पाण्डेय जी जगदीश व्योम जी रामशंकर वर्मा जी आदरणीय भारतेंदु मिश्र भाईसाहब का जगदीश पंकज जी साथ ही मेरी तुकबंदी पसंद करने बाले सभी मित्रों का।<br />
<br />
-मनोज जैन मधुर<br />
July 9 at 6:28pm<br />
---------------------<br />
<br />
व्योम जी, आपका प्रश्न स्वाभाविक है किंतु गीत और नवगीत के पक्ष और विपक्ष मे तर्क करने के लिए यह मंच बहुत उपयुक्त नही जान पडता क्योकि यहां हर गीतकार अपना प्रवाचक भी है तर्क पूर्ण है या नही इस का विवेक किए बिना ही।इसके मै पहले भी मनोज जैन की पुस्तक पढ चुका हूं और टिप्पणी भी कर चुका हूं।रही बात इस गीत के नवगीत होने या न होने की तो ये फेसबुक की एक टिप्पणी मे समझाना सहज नही होगा।कभी अवसर मिले तो इसी विषय पर विस्तार से मित्रो से चर्चा की जा सकती है। यहां गंभीर विवेचन कर पाना संभव नही है।किसी एक लक्षण से कोई गीत नवगीत नही हो जाता।नवगीत का रचनाविधान है जिस पर विस्तार से बात की जा सकती है।अधिकृत विद्वानो से बहस /परिचर्चा की जानी चाहिए।उपयुक विद्वानो के साक्षात्कार आदि भी होने चाहिए।बात एक मनोज जैन के नवगीत /गीत की नही है।आपने देखा कि मनोज जैन स्वय्ं ही दुविधा मे हैं..ये दुविधा अनेक गीतकारो/नवगीतकारो मे होती है।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 9 at 7:52pm<br />
-----------------------<br />
<br />
जी हाँ डा० भारतेन्दु जी... आप सही कह रहे हैं..... गीत और नवगीत के अन्तर को समझना ही होगा<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
July 9 at 8:00pm<br />
--------------------------<br />
<br />
लेकिन ये चर्चा, विमर्श और बहस इतनी शास्त्रीय न हो कि सामान्य रूप से यह ऊपर ऊपर से ही निकल जाये.... सहजता के साथ सरल भाषा में इस अन्तर को नये रचनाकारों को बताना जरूरी है....<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
July 9 at 8:13pm<br />
-------------------------<br />
<br />
मनोज जी की इस रचना में नदी के किनारे पर वट वृक्ष बनने की आकांक्षा कवि की है वह किसी वैयक्तिक सुख के लिए नहीं बल्कि पक्षियों को आश्रय देने की चाह के लिए है ... कवि जन सामान्य की चिन्ता करता है और उनके सामान्य कष्ट दूर करने की आकांक्षा रखता है....रचना का यह कथ्य उसे नवगीत के पाले में लाकर खड़ा कर देता है.....<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
July 9 at 8:22pm<br />
--------------------<br />
<br />
देखिए समीक्षा रचनाकारो को बहुत अच्छी नहीं लगती हैं। जो अच्छी लगती है वो समीक्षा नहीं होती है उसे प्रापर्टी डीलिंग जैसा कुछ समझ लें। विमर्श के लिए रचना को समझना जितना आवश्यक है उतना ही रचनाकार के लिए आवश्यक है कि वो रचना विधान की बारीकियों को समझे। सारे गीतकार/नवगीतकार एक ही जैसा क्यों सोचें..यदि सब एक जैसा लिखने लगें तो फिर मौलिकता कैसे निश्चित की जाएगी ?.विविधता ..ये नवगीत माने पाठ्यचर्या वाला गीत केवल गाये जाने वाला गीत नहीं।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 9 at 8:23pm<br />
--------------------------<br />
<br />
आदरणीय भारतेंदु मिश्र भाईसाहब सचमानिये मैं आलोचना मे पूरी आस्था रखता हूँ बेशर्ते वह पूरी निष्पक्षता के साथ भर हो मेरे इस नवगीत पर आने बाली आलोचना का में स्वागत करता हूँ।<br />
<br />
-मनोज जैन मधुर<br />
July 9 at 9:55pm<br />
-----------------------<br />
<br />
जी व्योम जी आपने सही चिन्हित किया।कथ्य नया नहीं है, न हो किंतु पारंपरिक विषय का नवाचार /भंगिमा की नवता भी गीत को नये पाठ्य के साथ नवगीत बनाती है।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 9 at 10:16pm<br />
---------------------<br />
<br />
मित्रों मनोज जैन मधुर जी का गीत आज अचानक पढ़ा ,सभी विद्वानों के विमर्श को भी।मेरे विचार से इसमें नवगीत के समस्त लछण है।और अब समय आ गया है कि गीत नवगीत के पचडे में न पड़ कर श्रेष्ठ सृजन की ओर ध्यान दिया जाय। ज्यादानवता के चक्कर मे कहीं गीत की बधिया न बैठ जाय।गीत के साथ कोई भी विशेषण जोड़ ले पृथक पहचान के लिए किन्तु उसमें गीत के सभी तत्व हैं कि नहीं इसे पहले जाँचना परखना होगा।नदी सतत प्रवहमान संस्कृति की प्रतीक है तट पर खड़ा वट संस्कृति का रछक और पोषक है ,वट होने का परोपकारी भाव जिसमें आ जाय वह विराट व्यक्तित्व का धनी स्वयं मेव हो जायेगा।भाई मनोज जी श्रेष्ठ रचना केलिए बधाई।<br />
<br />
-डा० विनय भदौरिया<br />
July 10 at 7:18am<br />
--------------------------<br />
<br />
गीत और नवगीत के अन्तर की खाई को इतना चौड़ा भी न कर दें कि दोनों के मध्य संवाद भी संभव न रह सके..... साठ सत्तर साल पहले के एक युवा में और आज के युवा में जो अन्तर है वहीं अन्तर गीत और नवगीत में भी है.....<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
July 10 at 12:14pm<br />
---------------------------<br />
<br />
मुझे नहीं लगता कि मनोज जैन मधुर जी को अपने नवगीत के नवगीत होने में कोई संशय है। वे इसके बहाने नवगीत पर विमर्श चाहते थे। जहाँ तक मेरी समझ है सार्थक मुखड़ा, अंतरे सहित रचना नवगीत के शिल्प में है। पर नवता और युगबोध के नाम पर हम नवगीत की सीमारेखा क्यों खींचे। नैतिकता और मानवीय मूल्य सनातन और पुरातन होते हुए भी आज अधिक प्रासंगिक हैं। ह्रास होते नैतिक मूल्यों की चाह रखना क्या युगबोध नहीं है। बढ़ती जाती दूरियों और टकराहट के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की चाह, दूसरे के आनंद में सुख ढूँढ़ना, थके हारों का आश्रय होने की चाह, कगार पर खड़े न जाने कब काल के गाल में समा जाने वाली अत्यल्प ज़िन्दगी में भी बड़प्पन ढूँढना, विषम परिस्थितियों में नट सा संतुलन थामना, झुरमुटों से चाँदनी के झाँकने के विम्ब के अतिरिक्त भी अन्य विंबों के साथ यह नवगीत क्यों नहीं है।<br />
<br />
-रामशंकर वर्मा<br />
July 10 at 5:06pm<br />
<div>
.......................................</div>
</div>
Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-22723726.post-65540310750626994322015-08-29T04:10:00.000-07:002015-08-29T04:10:44.211-07:00निर्मल शुक्ल के गीत पर विमर्श<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सुन्दर शृंगार गीत है बधाई। लेकिन यह नवगीत नही हैं। श्रंगार एक प्रकार से नैसर्गिक सनातन मूल्य है और इस विषय वस्तु पर अब से पहले करोडों की संख्या मे गीत लिखे जा चुके हैं। नवगीत विमर्श में परंपरा में भी नवता का अनिवार्य आग्र्ह होता है। यदि वह नहीं दिखाई देता है तो उसे हम नवगीत कैसे कहेंगे। इस गीत की भाषा भी छायावादी काव्य भाषा से आगे बढी हुई नहीं दिखती है। आदरणीय शुक्ल जी का सम्मान करते हुए असहमत हूं। शुक्ल जी श्रेष्ठ नवगीतकार है लेकिन उनका यह गीत नवगीत नहीं लगता। इससे नई पीढी के नवगीतकारों में भ्रम पैदा न हो केवल इसलिए यह टिप्पणी कर रहा हूँ।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
<br />
00000<br />
एक गीत यह भी....<br />
निर्मल शुक्ल का गीत<br />
सागर की प्यास...<br />
बेसुध हैं<br />
रोम रंध्र<br />
विकल मनाकाश<br />
मैं ठहरा<br />
तुम ठहरे<br />
सागर की प्यास<br />
चंदा की कनी कनी<br />
चंदन में सनी सनी<br />
हौले से उतर आई<br />
आंगन में छनी छनी<br />
मैं भीगा<br />
तुम भीगे<br />
सारा अवकाश<br />
मेंहदी के पात पात<br />
रंग लिए हाथ हाथ<br />
चुपके से थाप गये<br />
सेमर के गात गात<br />
मैं डूबा<br />
तुम डूबे<br />
आज अनायास<br />
सांसो की गंध गंध<br />
मदिर मदिर मंद मंद<br />
जाने कब खोल गए<br />
तार तार बंध बंध<br />
मैं भूला<br />
तुम भूले<br />
सारा इतिहास<br />
<br />
-निर्मल शुक्ल<br />
२३ जून २०१५.<br />
--------------------------------<br />
Comment-<br />
आ०भारतेन्दु जी आप ठीक कह रहे हैं.इसे मैने सुधार दिया है यह गीत मेरे गीत संग्रह 'नील वनो के पार'मे संग्रहीत है .शीर्षक में ,भूलवश गीत के स्थान पर नवगीत पोस्ट हो गया था.जिसे अब सुधार दिया गया है।<br />
<br />
-निर्मल शुक्ल<br />
June 23 at 6:30pm<br />
<br />
------------------------<br />
जी आपने सही किया।किंतु इसी बहाने नवगीत और गीत का फर्क समझने वाले मित्रो /किसी मित्र को भी आप और हम सही दिशा दे सकते हैं।मेरा लक्ष्य आपके गीत की समीक्षा के साथ ही इस अंतर को भी दोस्तो के सामने रखना था।आप तो नवगीत पर लगातार काम करते आ रहे हैं। आपकी समझ पर कोई प्रश्नचिन्ह नही लगा रहा हूं।उत्तरायण के अंक नवगीत की समझ को विकसित करने मे लगातार अग्र्णी भूमिका निभाते रहे हैं।लेकिन पिता और पुत्र मे जो नाम गुण विचार आदि के तमाम अंतर होते हैं,वे सब गीत और नवगीत मे भी हैं।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
June 23 at 7:11pm<br />
---------------------------<br />
<br />
पिता और पुत्र के सम्बंध के संकेत से गीत और नवगीत को आपने बखूबी समझा दिया है।<br />
-राजेन्द्र वर्मा<br />
July 4 at 7:33pm<br />
---------------------------<br />
<br />
जी राजेन्द्र जी दोनो एक कुल गोत्र के होते हुए भी एक कैसे हो सकते हैं।दोनो की धमनियो मे प्रवाहित रक्त ,नाक -नक्श,आवाज-,आचरण -व्यवहार आयु -विचार आदि एक ही नही हो सकते।..लेकिन कुछ मित्र गीत को ही नवगीत साबित करने मे हलाकान हुए जा रहे हैं और अपना कन्धा छिलवाए ले रहे हैं।..तो समझदारी से स्वीकार करना चाहिए किए दोनो आलग है।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
July 4 at 7:42pm<br />
---------------------------<br />
<br />
आदरणीय भारतेन्दु जी यह तो सर्वविदित है कोई भी दो व्यक्ति सोच, विचार, मनन,ज्ञान आचरण ,व्यवहार आदि की दृष्टि से एक जैसे नहीं होते. आपकी विद्वता का कौन कायल नहीं होगा ...जिस गीत पर आप यहाँ विमर्ष कर रहे हैं ....उस पोस्ट को आपने अपनी विद्वता के चलते आनन फानन में "नवगीत की पाठशाला" से टिप्पणियों सहित कापी कर के "नवगीत विमर्ष "में पोस्ट कर दिया .....आपने सोचा होगा कि कन्धे छिलवाये हुये मित्रों मे से चलो एक को उजागर कर दें ...आप इतनी हडबडी में थे कि आपने यहाँ यह भी नहीं देखा कि वह पहले ही सुधार सहित वहीं एडिट किया जा चुका है जहाँ से आपने इसे उठाया था..अभी तक बात आई गई हो चुकी होती किन्तु आज आपने राजेन्द्र वर्मा की पोस्ट पर अपनी विद्वता की छाप छोडने का एक बार पुन: प्रयास किया है....मै , आपकी दष्टि में एक अदना सा तुकबन्दी करने वाला ही सही किन्तु आज मैं आहत हूँ कि मुझे अब इस आयु में पिता पुत्र कुल गोत्र के संबंध में जानकारी प्राप्त करनी पडेगी.........<br />
<br />
-निर्मल शुक्ल<br />
July 4 at 9:07pm<br />
----------------------------<br />
<br />
जिस रचना पर यहाँ विमर्श हो रहा है.... उसे निर्मल शुक्ल जी ने गीत ही कहा है नवगीत नहीं.... इस विषयक कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए......<br />
<br />
-डा० जगदीश व्योम<br />
July 4 at 9:24pm<br />
--------------------------<br />
<br />
<br />
Manoj Jain Madhur कृपया वे कौन से मानक है जिनके आधार पर उक्त रचना को गीत संज्ञा से नवाज गया यह भी स्पस्ट करें कि प्रस्तुत रचना नवगीत क्यों नहीं है ?<br />
मनोज जैन मधुर<br />
July 4 at 10:15pm<br />
-------------------<br />
<br />
भारतेंदु जी ! आप विधा के आधिकारिक विद्वान हैं, पर निर्मल जी वरिष्ठ रचनाकार हैं- वे गीत और नवगीत में अंतर समझते हैं. ग्रुप में रचना पोस्ट करने में उनसे त्रुटि हुई है जिसे उन्होंने सुधार भी लिया था- इसलिए उनकी रचना को केंद्र में रखकर नवगीत पर विमर्श अपेक्षित न था. बहरहाल, अब इसे यहीं समाप्त किया जाना उपयुक्त रहेगा।<br />
<br />
-राजेन्द्र वर्मा<br />
July 4 at 10:53pm<br />
---------------------------<br />
<br />
राजेन्द्र भाई आप सही कह रहे हैं किंतु ये विमर्श शुक्ल जी पर केन्द्रित न हो कर नवगीत पर केन्द्रित है। इस मंच का नाम ही नवगीत विमर्श है। अब शुक्ल जी इसे यदि अपने गीत से अलग करके नहीं देख रहे तो इसमे क्या किया जाए ? मैंने एक भी शब्द उनके लिए नहीं कहा है। इस गीत रचना के बारे में जो सही लगा बस वही कहा है। किंतु यदि शुक्ल जी को कहीं मेरे किसी शब्द से कष्ट पहुंचा है तो उसके लिए खेद है(हालांकि समीक्षा मे खेद व्यक्त करना भी उचित नही है) वे मेरे लिए आदरणीय हैं। किंतु यह भी सच है कि तमाम मंचीय आत्ममुग्ध लोग(जिन्हे मैने छिले हुए कन्धे वाले कह्ने की ओर संकेत किया है ) लगातार अपने गीतों को नवगीत साबित करने की योजना मे लगे रहे हैं। मैने भी कई गीत और नवगीत लिखे हैं।अनुभव की सीढी मे भी कई गीत और नवगीत एकत्र संकलित भी हैं।..मेरी समझ से किसी भी प्रकाशित हो चुकी रचना पर बात करना व्यक्ति पर बात करना नही होता है।..आप सब नही चाहते हैं तो इस गीत पर मेरी ओर से बात समाप्त।<br />
<br />
-भारतेन्दु मिश्र<br />
00000000000</div>
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