Saturday, August 29, 2015

मनोज जैन मधुर के नवगीत पर विमर्श

मित्रो, नवगीत विमर्श की गतिविधियाँ प्रभावित करतीं हैं। मैं अपनी एक रचना आप के अवलोकनार्थ मंच पर रख रहा हूँ। यह गीत है या नवगीत मै इसके बारे में नहीं जानता इसका निर्णय आप जैसे समर्थ लोग ही कर सकते हैं।

-मनोज जैन
भोपाल

काश! हम होते नदी के
तीर बाले वट।
हम निरंतर भूमिका
मिलने मिलाने की रचाते।
पांखियों के दल उतर कर
नीड डालों पर सजाते।
चहचहाहट सुन ह्रदय का
छलक जाता घट।

नयन अपने सदा नीरा
से मिला हँस बोल लेते।
हम लहर का परस् पाकर
खिल खिलाते डोल लेते।
मंद मृदु मुस्कान
बिखराते नदी के तट।

साँझ घिरती सूर्य ढलता
थके पांखी लौट आते।
पात दल अपने हिलाकर
हम रूपहला गीत गाते।
झुरमुटों से झांकते हम
चाँदनी के पट।

देह माटी की पकड़कर
ठाट से हम खड़े होते।
जिंदगी होती तनिक सी
किन्तु कद में बड़े होते।
सन्तुलन हम साधते ज्यों
साधता है नट।

-मनोज जैन मधुर
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 इस गीत के लिए हार्दिक बधाई भाईजी.. ऐसी ही चाह हम सभी के मन में है

-सौरभ पाण्डेय
July 7 at 7:42pm
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यह गीत है या नवगीत है .... अपने विचार रखें ताकि अन्य रचनाकारों को भी नवगीत को समझने में सुविधा रहे.....

-डा० जगदीश व्योम
July 8 at 1:01pm
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नवगीत के विश्लेषण और परख पर मेरा अधिक अधिकार नहीं है। पर एक सुंदर प्रवाहमान सांगीतिक लय के साथ मुझे नवगीत का साक्षात्कार हो रहा है। गीत की उदात्तता और नवगीत के विम्ब लिए एक खूबसूरत नवगीत। कम से कम मैं तो अभी इतना सुंदर नवगीत नहीं लिख पाया हूँ।

-रामशंकर वर्मा
July 8 at 5:57pm
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वधाई मनोज जी,अच्छे नवगीत के लिए आपतो मेरे प्रिय नवगीतकार हैं।

-भारतेन्दु मिश्र
July 9 at 8:34am
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टिप्पणी के लिए आभार डा० भारतेन्दु जी ...... इसमें ऐसा क्या है कि इसे एक अच्छा नवगीत कहा जा सकता है.....

-डा० जगदीश व्योम
July 9 at 9:43am
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मेरे विचार से इस गीत को नवगीत नहीं कहा जाना चाहिए। इसमें न तो कथ्य की नवता है न ही शिल्प की और न ही युगबोध का कोई संकेत। यह एक काल्पनिक और वायवीय चाहत का प्रकटीकरण है जिसका मानवीय संवेदनात्मक बिन्दुओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी अपने शैल्पिक कसाव और भाषा के स्तर पर एक उत्तम गीत है जिसके लिए मनोज जैन 'मधुर' सराहना और बधाई के पात्र हैं ।

-जगदीश पंकज
July 9 at 3:13pm
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सबसे पहले तो आभार आप जैसे महापुरुषों का जिन्होंने मुझ जैसे तुकबंदिये की रचना को आदरणीय मंच पर चर्चा के लिए अनुमोदित कर दिया। उनका भी आभार जिन्हें यह तुकबंदी पसंद आई उनका तो विशेष आभार जिन्होंने रचना को गीत नही माना उनका कोटि कोटि आभार जो इसे नवगीत नहीं मान रहे है।मैंने प्रारम्भ में ही निवेदन कर दिया था यह रचना है ,न यह गीत है ,न नवगीत। अब जहां आप जैसे विज्ञजन हो भला वहां मेरी सहमति असहमति के क्या मायने ? फिर भी सम्मानीय मंच के समक्ष अर्जी तो लगा ही सकता हूँ ,अगर मंचस्थ लोगों का हुकुम हो तो ?
हुज़ूर मेरा प्रश्न है इस रचना में मानवीय संवेदनात्मक बिंदुओं से कोई सम्बन्ध कैसे नहीं है ? यह बात मेरी समझ से परे है ?
युगबोध कैसा होता है ?
गीत है या नवगीत इस
पर अंतिम मोहर
कौन लगता है ?
बिंदु बार उत्तर मिले तो गंगा नहा लूँ।

-मनोज जैन मधुर
July 9 at 6:23pm
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मैं आभारी हूँ सर्व श्री भाई जयराम जय जी सौरभ पाण्डेय जी जगदीश व्योम जी रामशंकर वर्मा जी आदरणीय भारतेंदु मिश्र भाईसाहब का जगदीश पंकज जी साथ ही मेरी तुकबंदी पसंद करने बाले सभी मित्रों का।

-मनोज जैन मधुर
July 9 at 6:28pm
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व्योम जी, आपका प्रश्न स्वाभाविक है किंतु गीत और नवगीत के पक्ष और विपक्ष मे तर्क करने के लिए यह मंच बहुत उपयुक्त नही जान पडता क्योकि यहां हर गीतकार अपना प्रवाचक भी है तर्क पूर्ण है या नही इस का विवेक किए बिना ही।इसके मै पहले भी मनोज जैन की पुस्तक पढ चुका हूं और टिप्पणी भी कर चुका हूं।रही बात इस गीत के नवगीत होने या न होने की तो ये फेसबुक की एक टिप्पणी मे समझाना सहज नही होगा।कभी अवसर मिले तो इसी विषय पर विस्तार से मित्रो से चर्चा की जा सकती है। यहां गंभीर विवेचन कर पाना संभव नही है।किसी एक लक्षण से कोई गीत नवगीत नही हो जाता।नवगीत का रचनाविधान है जिस पर विस्तार से बात की जा सकती है।अधिकृत विद्वानो से बहस /परिचर्चा की जानी चाहिए।उपयुक विद्वानो के साक्षात्कार आदि भी होने चाहिए।बात एक मनोज जैन के नवगीत /गीत की नही है।आपने देखा कि मनोज जैन स्वय्ं ही दुविधा मे हैं..ये दुविधा अनेक गीतकारो/नवगीतकारो मे होती है।

-भारतेन्दु मिश्र
July 9 at 7:52pm
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जी हाँ डा० भारतेन्दु जी... आप सही कह रहे हैं..... गीत और नवगीत के अन्तर को समझना ही होगा

-डा० जगदीश व्योम
July 9 at 8:00pm
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लेकिन ये चर्चा, विमर्श और बहस इतनी शास्त्रीय न हो कि सामान्य रूप से यह ऊपर ऊपर से ही निकल जाये.... सहजता के साथ सरल भाषा में इस अन्तर को नये रचनाकारों को बताना जरूरी है....

-डा० जगदीश व्योम
July 9 at 8:13pm
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मनोज जी की इस रचना में नदी के किनारे पर वट वृक्ष बनने की आकांक्षा कवि की है वह किसी वैयक्तिक सुख के लिए नहीं बल्कि पक्षियों को आश्रय देने की चाह के लिए है ... कवि जन सामान्य की चिन्ता करता है और उनके सामान्य कष्ट दूर करने की आकांक्षा रखता है....रचना का यह कथ्य उसे नवगीत के पाले में लाकर खड़ा कर देता है.....

-डा० जगदीश व्योम
July 9 at 8:22pm
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देखिए समीक्षा रचनाकारो को बहुत अच्छी नहीं लगती हैं। जो अच्छी लगती है वो समीक्षा नहीं होती है उसे प्रापर्टी डीलिंग जैसा कुछ समझ लें। विमर्श के लिए रचना को समझना जितना आवश्यक है उतना ही रचनाकार के लिए आवश्यक है कि वो रचना विधान की बारीकियों को समझे। सारे गीतकार/नवगीतकार एक ही जैसा क्यों सोचें..यदि सब एक जैसा लिखने लगें तो फिर मौलिकता कैसे निश्चित की जाएगी ?.विविधता ..ये नवगीत माने पाठ्यचर्या वाला गीत केवल गाये जाने वाला गीत नहीं।

-भारतेन्दु मिश्र
July 9 at 8:23pm
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आदरणीय भारतेंदु मिश्र भाईसाहब सचमानिये मैं आलोचना मे पूरी आस्था रखता हूँ बेशर्ते वह पूरी निष्पक्षता के साथ भर हो मेरे इस नवगीत पर आने बाली आलोचना का में स्वागत करता हूँ।

-मनोज जैन मधुर
July 9 at 9:55pm
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जी व्योम जी आपने सही चिन्हित किया।कथ्य नया नहीं है, न हो किंतु पारंपरिक विषय का नवाचार /भंगिमा की नवता भी गीत को नये पाठ्य के साथ नवगीत बनाती है।

-भारतेन्दु मिश्र
July 9 at 10:16pm
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मित्रों मनोज जैन मधुर जी का गीत आज अचानक पढ़ा ,सभी विद्वानों के विमर्श को भी।मेरे विचार से इसमें नवगीत के समस्त लछण है।और अब समय आ गया है कि गीत नवगीत के पचडे में न पड़ कर श्रेष्ठ सृजन की ओर ध्यान दिया जाय। ज्यादानवता के चक्कर मे कहीं गीत की बधिया न बैठ जाय।गीत के साथ कोई भी विशेषण जोड़ ले पृथक पहचान के लिए किन्तु उसमें गीत के सभी तत्व हैं कि नहीं इसे पहले जाँचना परखना होगा।नदी सतत प्रवहमान संस्कृति की प्रतीक है तट पर खड़ा वट संस्कृति का रछक और पोषक है ,वट होने का परोपकारी भाव जिसमें आ जाय वह विराट व्यक्तित्व का धनी स्वयं मेव हो जायेगा।भाई मनोज जी श्रेष्ठ रचना केलिए बधाई।

-डा० विनय भदौरिया
July 10 at 7:18am
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गीत और नवगीत के अन्तर की खाई को इतना चौड़ा भी न कर दें कि दोनों के मध्य संवाद भी संभव न रह सके..... साठ सत्तर साल पहले के एक युवा में और आज के युवा में जो अन्तर है वहीं अन्तर गीत और नवगीत में भी है.....

-डा० जगदीश व्योम
July 10 at 12:14pm
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मुझे नहीं लगता कि मनोज जैन मधुर जी को अपने नवगीत के नवगीत होने में कोई संशय है। वे इसके बहाने नवगीत पर विमर्श चाहते थे। जहाँ तक मेरी समझ है सार्थक मुखड़ा, अंतरे सहित रचना नवगीत के शिल्प में है। पर नवता और युगबोध के नाम पर हम नवगीत की सीमारेखा क्यों खींचे। नैतिकता और मानवीय मूल्य सनातन और पुरातन होते हुए भी आज अधिक प्रासंगिक हैं। ह्रास होते नैतिक मूल्यों की चाह रखना क्या युगबोध नहीं है। बढ़ती जाती दूरियों और टकराहट के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने की चाह, दूसरे के आनंद में सुख ढूँढ़ना, थके हारों का आश्रय होने की चाह, कगार पर खड़े न जाने कब काल के गाल में समा जाने वाली अत्यल्प ज़िन्दगी में भी बड़प्पन ढूँढना, विषम परिस्थितियों में नट सा संतुलन थामना, झुरमुटों से चाँदनी के झाँकने के विम्ब के अतिरिक्त भी अन्य विंबों के साथ यह नवगीत क्यों नहीं है।

-रामशंकर वर्मा
July 10 at 5:06pm
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