Saturday, August 29, 2015

निर्मल शुक्ल के गीत पर विमर्श

सुन्दर शृंगार गीत है बधाई। लेकिन यह नवगीत नही हैं। श्रंगार एक प्रकार से नैसर्गिक सनातन मूल्य है और इस विषय वस्तु पर अब से पहले करोडों की संख्या मे गीत लिखे जा चुके हैं। नवगीत विमर्श में परंपरा में भी नवता का अनिवार्य आग्र्ह होता है। यदि वह नहीं दिखाई देता है तो उसे हम नवगीत कैसे कहेंगे। इस गीत की भाषा भी छायावादी काव्य भाषा से आगे बढी हुई नहीं दिखती है। आदरणीय शुक्ल जी का सम्मान करते हुए असहमत हूं। शुक्ल जी श्रेष्ठ नवगीतकार है लेकिन उनका यह गीत नवगीत नहीं लगता। इससे नई पीढी के नवगीतकारों में भ्रम पैदा न हो केवल इसलिए यह टिप्पणी कर रहा हूँ।

-भारतेन्दु मिश्र

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एक गीत यह भी....
निर्मल शुक्ल का गीत
सागर की प्यास...
बेसुध हैं
रोम रंध्र
विकल मनाकाश
मैं ठहरा
तुम ठहरे
सागर की प्यास
चंदा की कनी कनी
चंदन में सनी सनी
हौले से उतर आई
आंगन में छनी छनी
मैं भीगा
तुम भीगे
सारा अवकाश
मेंहदी के पात पात
रंग लिए हाथ हाथ
चुपके से थाप गये
सेमर के गात गात
मैं डूबा
तुम डूबे
आज अनायास
सांसो की गंध गंध
मदिर मदिर मंद मंद
जाने कब खोल गए
तार तार बंध बंध
मैं भूला
तुम भूले
सारा इतिहास

-निर्मल शुक्ल
२३ जून २०१५.
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Comment-
 आ०भारतेन्दु जी आप ठीक कह रहे हैं.इसे मैने सुधार दिया है यह गीत मेरे गीत संग्रह 'नील वनो के पार'मे संग्रहीत है .शीर्षक में ,भूलवश गीत के स्थान पर नवगीत पोस्ट हो गया था.जिसे अब सुधार दिया गया है।

-निर्मल शुक्ल
June 23 at 6:30pm

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जी आपने सही किया।किंतु इसी बहाने नवगीत और गीत का फर्क समझने वाले मित्रो /किसी मित्र को भी आप और हम सही दिशा दे सकते हैं।मेरा लक्ष्य आपके गीत की समीक्षा के साथ ही इस अंतर को भी दोस्तो के सामने रखना था।आप तो नवगीत पर लगातार काम करते आ रहे हैं। आपकी समझ पर कोई प्रश्नचिन्ह नही लगा रहा हूं।उत्तरायण के अंक नवगीत की समझ को विकसित करने मे लगातार अग्र्णी भूमिका निभाते रहे हैं।लेकिन पिता और पुत्र मे जो नाम गुण विचार आदि के तमाम अंतर होते हैं,वे सब गीत और नवगीत मे भी हैं।

-भारतेन्दु मिश्र
June 23 at 7:11pm
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 पिता और पुत्र के सम्बंध के संकेत से गीत और नवगीत को आपने बखूबी समझा दिया है।
-राजेन्द्र वर्मा
July 4 at 7:33pm
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 जी राजेन्द्र जी दोनो एक कुल गोत्र के होते हुए भी एक कैसे हो सकते हैं।दोनो की धमनियो मे प्रवाहित रक्त ,नाक -नक्श,आवाज-,आचरण -व्यवहार आयु -विचार आदि एक ही नही हो सकते।..लेकिन कुछ मित्र गीत को ही नवगीत साबित करने मे हलाकान हुए जा रहे हैं और अपना कन्धा छिलवाए ले रहे हैं।..तो समझदारी से स्वीकार करना चाहिए किए दोनो आलग है।

-भारतेन्दु मिश्र
July 4 at 7:42pm
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आदरणीय भारतेन्दु जी यह तो सर्वविदित है कोई भी दो व्यक्ति सोच, विचार, मनन,ज्ञान आचरण ,व्यवहार आदि की दृष्टि से एक जैसे नहीं होते. आपकी विद्वता का कौन कायल नहीं होगा ...जिस गीत पर आप यहाँ विमर्ष कर रहे हैं ....उस पोस्ट को आपने अपनी विद्वता के चलते आनन फानन में "नवगीत की पाठशाला" से टिप्पणियों सहित कापी कर के "नवगीत विमर्ष "में पोस्ट कर दिया .....आपने सोचा होगा कि कन्धे छिलवाये हुये मित्रों मे से चलो एक को उजागर कर दें ...आप इतनी हडबडी में थे कि आपने यहाँ यह भी नहीं देखा कि वह पहले ही सुधार सहित वहीं एडिट किया जा चुका है जहाँ से आपने इसे उठाया था..अभी तक बात आई गई हो चुकी होती किन्तु आज आपने राजेन्द्र वर्मा की पोस्ट पर अपनी विद्वता की छाप छोडने का एक बार पुन: प्रयास किया है....मै , आपकी दष्टि में एक अदना सा तुकबन्दी करने वाला ही सही किन्तु आज मैं आहत हूँ कि मुझे अब इस आयु में पिता पुत्र कुल गोत्र के संबंध में जानकारी प्राप्त करनी पडेगी.........

-निर्मल शुक्ल
July 4 at 9:07pm
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जिस रचना पर यहाँ विमर्श हो रहा है.... उसे निर्मल शुक्ल जी ने गीत ही कहा है नवगीत नहीं.... इस विषयक कोई भ्रम नहीं रहना चाहिए......

-डा० जगदीश व्योम
July 4 at 9:24pm
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Manoj Jain Madhur कृपया वे कौन से मानक है जिनके आधार पर उक्त रचना को गीत संज्ञा से नवाज गया यह भी स्पस्ट करें कि प्रस्तुत रचना नवगीत क्यों नहीं है ?
मनोज जैन मधुर
July 4 at 10:15pm
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भारतेंदु जी ! आप विधा के आधिकारिक विद्वान हैं, पर निर्मल जी वरिष्ठ रचनाकार हैं- वे गीत और नवगीत में अंतर समझते हैं. ग्रुप में रचना पोस्ट करने में उनसे त्रुटि हुई है जिसे उन्होंने सुधार भी लिया था- इसलिए उनकी रचना को केंद्र में रखकर नवगीत पर विमर्श अपेक्षित न था. बहरहाल, अब इसे यहीं समाप्त किया जाना उपयुक्त रहेगा।

-राजेन्द्र वर्मा
July 4 at 10:53pm
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राजेन्द्र भाई आप सही कह रहे हैं किंतु ये विमर्श शुक्ल जी पर केन्द्रित न हो कर नवगीत पर केन्द्रित है। इस मंच का नाम ही नवगीत विमर्श है। अब शुक्ल जी इसे यदि अपने गीत से अलग करके नहीं देख रहे तो इसमे क्या किया जाए ? मैंने एक भी शब्द उनके लिए नहीं कहा है। इस गीत रचना के बारे में जो सही लगा बस वही कहा है। किंतु यदि शुक्ल जी को कहीं मेरे किसी शब्द से कष्ट पहुंचा है तो उसके लिए खेद है(हालांकि समीक्षा मे खेद व्यक्त करना भी उचित नही है) वे मेरे लिए आदरणीय हैं। किंतु यह भी सच है कि तमाम मंचीय आत्ममुग्ध लोग(जिन्हे मैने छिले हुए कन्धे वाले कह्ने की ओर संकेत किया है ) लगातार अपने गीतों को नवगीत साबित करने की योजना मे लगे रहे हैं। मैने भी कई गीत और नवगीत लिखे हैं।अनुभव की सीढी मे भी कई गीत और नवगीत एकत्र संकलित भी हैं।..मेरी समझ से किसी भी प्रकाशित हो चुकी रचना पर बात करना व्यक्ति पर बात करना नही होता है।..आप सब नही चाहते हैं तो इस गीत पर मेरी ओर से बात समाप्त।

-भारतेन्दु मिश्र
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