Saturday, August 29, 2015

श्रीकृष्ण तिवारी के नवगीत पर विमर्श

श्रीकृष्ण तिवारी के नवगीत पर विमर्श

नवगीत की जब चर्चा होती है तो कुछ नवगीतों के मुखड़े तुरन्त याद आ जाते हैं, इनमें से एक नवगीत है- " भीलों ने बाँट लिये वन, राजा को खबर तक नहीं.." इस नवगीत की आलोचना भी खूब की गई फिर भी इसमें कुछ ऐसा है कि सिर चढ़कर बोलता है..... कुछ विमर्श इस पर भी हो... बिना किसी पूर्वाग्रह के तथा इसकी परवाह न करते हुए कि इस नवगीत की आलोचना में पहले क्या-क्या कहा गया है? और किसने-किसने कहा है?.....

-डा० जगदीश व्योम
-------------------------

भीलों नें बाँट लिये वन
राजा को खबर तक नहीं

पाप चढ़ा राजा के सिर
दूध की नदी हुई जहर
गाँव, नगर धूप की तरह
फैल गयी यह नयी खबर
रानी हो गयी बदचलन
राजा को खबर तक नहीं

कच्चा मन राजकुँवर का
बे-लगाम इस कदर हुआ
आवारा छोरों का संग
रोज खेलने लगा जुआ
हार गया दाँव पर बहन
राजा को खबर तक नहीं

उल्टे मुँह हवा हो गयी
मरा हुआ साँप जी गया
सूख गये ताल-पोखरे
बादल को सूर्य पी गया
पानी बिन मर गये हिरन
राजा को खबर तक नहीं

एक रात काल देवता
परजा को स्वप्न दे गये
राजमहल खण्डहर हुआ
छत्र-मुकुट चोर ले गये
सिंहासन का हुआ हरण
राजा को खबर तक नहीं

-श्रीकृष्ण तिवारी
-----------------------

ये मंचीय गीत है-लोक कथा को गीत का रूप देने की जतन की गई है। ,चमत्कारिक भाषायी प्रयोग के लिए लोग इसका खूब उदाहरण देते हैं।पूरा गीत एक तरह से -अन्धेर नगरी चौपट राजा वाली -(बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय की)चेतना का प्रतीक है।अर्थ की दृष्टि से इसमे कुछ ज्यादा नही निकलने वाला है।हां -राजा को खबर तक नही-बस ये एक पंक्ति है जो इसे नवगीत के समक्ष खडा करती है।कुछ उलटबांसियां भी इस गीत को चमत्कारी बनाती है-उल्टे मुँह हवा हो गयी
मरा हुआ साँप जी गया
सूख गये ताल-पोखरे
बादल को सूर्य पी गया..इत्यादि

-भारतेन्दु मिश्र
July 11 at 6:27pm 
--------------------------

बिखरे बिखरे अर्थोंवाला गीत।अपनी रव में बहता हुआ गीतकार बहक बहक जाता है।सरोकारों के प्रति भी दृष्टि स्पष्ट नहीं।भीलों का वन बाट लेने में और रानी के बदचलन होने को एक ही तराजू से तोल दिया गया है।आखिर राजा का कैसा चरित्र चाहता है गीतकार?दिमाग बाहर रखकर गुनगुनाने में कई बार मजा आता है।हमने आदत जो बना रखी है इस तरह की।कथित ज्ञानियों ने हमें सोचने ही कब दिया ? उनके सम्मोहन के अपने तरी के हैं।क्योंकि हम तो सुनने वाले ही रहे!मूकदृष्टा ही रहे!

-रमाकान्त यादव
July 11 at 8:19pm 
----------------------------

मैंने इस गीत/नवगीत का मुखड़ा शायद किसी नवगीत संकलन की भूमिका में पढ़ा था, पर इसके बारे में पूर्व में क्या कहा गया है, से परिचित नहीं हूँ। मुखड़े में भी रचनाकार समय का कौन सा प्रसंग व्यक्त कर रहा है, कम से कम मैं समझने में असमर्थ हूँ। "'भीलों ने बाँट लिए वन"' अब सरसरी तौर पर तो यही लगता है, भील तो वनों में रहते हैं, तो वन के वे सहज उत्तराधिकारी हैं, अगर उन्होने बाँट भी लिए तो क्या। आगे अंतरों में राजतंत्र के बदचलन होने का जिक्र है, फलस्वरूप सत्ता हाथ से जाने का जिक्र है, पर "'छत्र-मुकुट चोर ले गये"' अगर राज्य क्रांति भी हुई तो क्रांतिधर्मा तो नायक हुए, चोर कैसे हो गए। पर इस गीत में किस्सागोई है और लय प्रभावित करती है। यह भी की इतना सब कुछ हो गया और राजा को खबर तक न हुई।

रामशंकर वर्मा
July 13 at 4:01pm 
---------------------------

गीत का मुखड़ा आकर्षित करता है ,लेकिन भीलों का प्रयोग किसके लिए किया गया है यह स्पष्ट नहीं हो पाता,यदि भ्रष्टाचार के संबंध में प्रयुक्त करे तो दूसरे बन्ध से भाव असम्पृक्त हो जाता है।गीत में भावान्वित का अभाव प्रतीत होता है।क्योंकि यदि नई पीढ़ी के लिए राज कुअँर का प्रयोग करें तो वह भी युक्त संगति नहीं है पूरी पीढ़ी तो गुमराह नही है ,कुल मिलाकर अस्पष्ट है । अर्थभावन की दृष्टि से गीत ?

डा० विनय भदौरिया
July 23 at 9:14am 
------------------

2 comments:

Divya Narmada said...

यह गीति रचना कथ्य की सहजग्राह्यता, चिर परिचित प्रसंगों के उल्लेख, लय तथा सरसता के कारण सामान्य श्रोता को भाएगी किंतु चिंतन की दृष्टि से इसमें कुछ नया हाथ नहीं आता. तथ्य तो यह है की वनवासी भीलों से वन छीनकर उन्हें रिक्शा चलने या पेंट पहनकर किताबी शिक्षा लेने के लिए मजबूर कर दिया गया है, जहाँ वे पिछड़े रहने का अभिशाप भोग रहे हैं. वे वन बाँट पाते तो प्रकृतिपुत्र होकर प्रसन्न रहते. राजा का सोना ऐतिहासिक सच है, लखनऊ के नवाब शतरंज खेलते रहे और अंग्रेज उन्हें बेदखल करते रहे. घटनाओं का ताना-बाना तो है पर वह किसी फ़लसफ़े या निष्कर्ष तक नहीं पहुँचता. छंदहीनता के व्यामोह से मुक्त ऐसी रचनाएँ पाठक / श्रोता को गीतोन्मुख करती हैं, इसमें संदेह नहीं इतनी ही इनकी प्रासंगिकता है.

डा श्याम गुप्त said...

पता नहीं --यह नवगीत विमर्श क्यों है, क्यों कहा जा रहा है ----विमर्श तो कविता का होना चाहिए ---या गीत का ...नवगीत कोइ भिन्न विधा नहीं है गीत ही है ..... मैं उसे गीत का सलाद ही कहता हूँ ...गीत को टुकड़ों टुकड़ों में बाँट कर लिखा गया गीत ...
-----छंदहीनता भी कोइ वस्तु या साहित्यिक तथ्य नहीं है ---छंद तुकांत या अतुकांत हो सकता है ..बिना छंद के कोइ काव्य-कथ्य-कविता हो ही नहीं सकता....

भीलों नें बाँट लिये वन राजा को खबर तक नहीं
पाप चढ़ा राजा के सिर दूध की नदी हुई जहर ---- एक प्रकार से बकवास ही कहा जाएगा तथ्य विहीन -----भील तो वन में रहने के लिए हैं ही ...वे मूलतः राजा से स्वतंत्र होते थे ---आज के गुंडा गर्दी परिप्रेक्ष्य में लिखने हेतु...हम मान्य सत्यों को तोड़ मरोड़ थोड़े ही सकते हैं ---फिर पाठक उनका अर्थ ढूंढता फिरे....कविता ..कविता होती है या पहेली ..