Friday, September 25, 2015

== विमर्श 05==

--योगेन्द्र दत्त शर्मा के नवगीत पर  विमर्श--

भूल चुका हर कठिन समय को
खोज रहा हूँ खोई लय को 
चाह रहा कुछ और देखना
पर कुछ और देखना पड़ता
नैतिकता की अग्नि-परीक्षा
निष्ठा-धर्म शूल-सा गड़ता
चलते हुए महाभारत में
याद कर रहा हूँ संजय को
अंधभक्ति की अंध प्रतिज्ञा
अंधा युग, अंधी मर्यादा
कपट-कवच का महिमा-गायन
सच का उतरा हुआ लबादा
देख रहा हूँ मुँदे नयन से
मूल्यों के इस क्रय-विक्रय को
ढहते बरगद, उखड़े गुंबद
ध्वस्त शिखर, विपरीत हवाएँ
रथ के पहियों ने कुचली हैं
बांसुरियों की दंत-कथाएँ
हारे हुए विजेताओं में
ढूँढ़ रहा हूँ शत्रुंजय को
आपाधापी, छीन-झपट में
तन-मन क्या, आत्मा तक झोंकी
किन्तु मिला क्या, यह असफलता
अनचाही शैया तीरों की
धीरे-धीरे पल-पल मरते
देख रहा हूँ मृत्युंजय को
घनी धुंध में पता न चलता
कैसी, कहाँ काल की गति है
जीने को है एक मरण बस
सहने को विकलांग नियति है
सोच रहा हूँ, कैसे चीरूँ
भीतर-बाहर छाये भय को
-योगेन्द्र दत्त शर्मा
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सुंदर और सामयिक पर,आत्मा शब्द की जगह कुछ और होता तो खटकती नही लय ! शेष क्षमा यदि कुछ गलत कहा !
-रंजना गुप्ता
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महाभारत के मिथक का प्रयोग करते हुए समकालीन व्वस्था पर प्रभावी कटाक्ष है । सुंदर एवं सार्थक. नवगीत ।
-आर.वी. आचार्य
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हर कठिन समय को भूल चुका और खोई लय को खोजने वाला चरित्र पूरे गीत में कहीं नहीं दिखा।अतिशय निराशा में अतीत के महाभारत को वर्तमान तक खींचा गया है।तब के महाभारत ने सत्य को कहीं कुछ अंशों तक बचाया भी था पर इस गीतकार को सब कुछ ध्वस्त हुआ ही नजर आता है।फिर मुखड़ा क्या कहता है पता नहीं।लगता है गीतकार कहना चाहता था कुछ और पर कह गया कुछ और।जीने को जब मरण ही बचा है तो फिर क्या सोचना कैसे सोचना?
-रमाकान्त यादव
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बेहतर और कसा हुआ छन्द, पौराणिक प्रतीक और वर्तमान स्थितियों का सुन्दर चित्रण ।
बधाई।
-मुकुन्द कौशल
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आदरणीय यादव जी कविता गद्य तोनहीं होती कवि जिस लय को पाना चाहताहै वह है कहाँ पात्र बदलते हैं पर मूल्य ?...स्थितियां इतने समय बाद भी .....शिल्प शब्द चयन कहन अपनी टिप्पणी पर फिर से विचार करें इस तरह के गीत आजकल गिने चुने लोग ही लिख रहे हैं/ लिख सकते हैं ........
-वेद शर्मा
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जब कोई रचनाकार अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए प्रासंगिक मिथकीय प्रतीकों का अपनी रचना में प्रयोग करता है तब उसके सामने सत्य को सशक्त रूप में प्रस्तुत करने की सदिच्छा होती है। मिथकीय पात्र ,कथानक तथा भूमिकाएं अपने अभिधात्मक अर्थ के बजाय लाक्षणिकता के साथ रचना में प्रयोग करते हुए रचनाकार कहाँ तक सफल होता है यह उसके व्यक्तिगत और रचनात्मक अभ्यास और कौशल पर निर्भर करता है। कोई भी व्यक्ति रचनाकार के सृजन की सार्थकता से सहमत या असहमत हो सकता है किन्तु रचनाकार की नीयत,आशय और उसके मंतव्य की पृष्ठभूमि में ही रचना का मूल्यांकन करना उचित है। योगेन्द्र शर्मा जी के प्रस्तुत गीत में प्रयुक्त महाभारत के प्रासंगिक बिन्दुओं का प्रयोग समकालीन यथार्थ को व्यक्त करने का प्रयास है। रचना के अंत में गीतकार अपने आप से प्रश्न करता हुआ उत्तर के लिए पाठक को सोचने के लिए बाध्य करता है। यहाँ विकल्पहीनता नहीं बल्कि समय का बहुआयामी विद्रूप यथार्थ है जिसका किसी एक विकल्प से मुकाबला नहीं किया जा सकता। पूरे गीत को समग्रता में समझने के लिए अंत से आरम्भ करते हुए उन स्थितियों तक आएं जिनमे आज का भूमंडलीकृत नागरिक जीवन की आपाधापी में फंस कर स्वयं से ही असंतुष्ट होकर स्वयं से ही प्रतिस्पर्धा कर रहा है और असफल होने पर आज के हताशा,अवसाद और असंतोष जैसे युगीन रोगों से जूझ रहा है। आज जब सत्य का वही रूप दिखाया जा रहा है जो दिखाने वाले प्रसार माध्यमों और उनके आकाओं के अनुकूल है तब रचनाकार किसी संजय के मिथक का प्रयोग कर रहा है तो यह प्रयोग उचित ही है। जब आज का यथार्थ अपनी तीव्रता में अतीत की स्मृतियों के भयावह यथार्थ से भी अधिक गहन और तीव्र है और उसकी अनुभूतियों की लय भी विगत की अनुभूतियों से अधिक सशक्त है तब पुरानी लय कैसे याद आएगी? आज जब नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन और सांस्कृतिक प्रदूषण का ख़तरा बढ़ता जा रहा है तब निरंतर जटिल होते समयगत यथार्थ को योगेन्द्र दत्त शर्मा द्वारा अपनी रचना में बहुत सफलता से अभिव्यक्त किया गया है। रचना में व्यक्त आशय को ग्रहण करके हर व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्या करने को स्वतंत्र है। आवश्यक नहीं कि मेरे विचार से सबकी सहमति संभव हो किन्तु प्रस्तुत नवगीत कथ्य,शिल्प,भाषा , आशय और सम्प्रेषणीयता के बिन्दुओं पर एक उत्कृष्ट रचना है।
-जगदीश पंकज
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भाषा, कथ्य और शिल्प के स्तर पर समृद्ध नवगीत। गीतकार को हार्दिक बधाई
-जय चक्रवर्ती
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संवेदनशील मनुष्य की विवशता को मुखर करता कठिन समय का नवगीत है।
-भारतेन्दु मिश्र
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 कठिन समय से सघर्ष करते एक संवेदनशील मनुष्य की पीड़ा को अभिव्यंजित करता नवगीत है...." चाह रहा कुछ और देखना
पर कुछ और देखना पड़ता" एक नौकरशाह इन पंक्तियों को अपने मन की पंक्तियाँ भी कह सकता है।
-डा० जगदीश व्योम
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इस नवगीत के मुखड़े से जैसी सकारात्मकता निस्सृत हो रही है वही नवगीतों का वैशिष्ट्य है. बचे-खुचे को समेटते-बटोरते हुए अपने आप को पुनः तैयार करना एक ज़ुनून की मांग करता है, जीने का ज़ुनून ! प्रस्तुत नवगीत मुखड़े से ही अपनी गति साध लेता है. भूल चुका हर कठिन समय को / खोज रहा हूँ खोई लय को.. 
आगे के बन्द विद्रूप हो गये / हो चले क्षण-पलों के परिदृश्य समक्ष लाते हुए हैं, जो संवेदनशील इस मनुष्य ने भोगे हैं. इन्हीं पलों में एक अदद संजय का ढूँढा जाना अवश हो चली परिस्थितियों और अवस्था का इंगित है. संजय सूचना-प्रदाता था. आज दायित्व निर्वहन करता ’संजय’ कहाँ है ? किनके प्रति आश्वस्त हों ? लगभग सभी तो बिके हुए हैं. या फिर, रथ के पहियों ने कुचली हैं / बांसुरियों की दंत-कथाएँ.. 
इन पंक्तियों के माध्यम से रचनाकार ने अत्यंत गूढ़ तथ्य को कितनी सहजता से समक्ष किया है ! कृष्ण के बारे में प्रचलित हो चुकी समस्त कोमल-कथाओं के सापेक्ष भीष्म के विरुद्ध कृष्ण के नये किन्तु अतुकान्त रूप को प्रस्तुत करते हुए कितनी गहरी बात कही है ! अद्भुत ! 
आपाधापी, छीन-झपट में / तन-मन क्या, आत्मा तक झोंकी / किन्तु मिला क्या, यह असफलता / अनचाही शैया तीरों की / धीरे-धीरे पल-पल मरते / देख रहा हूँ मृत्युंजय को 
कवि ने भीष्म के कुल प्रयास और उसके गूढ़ चरित्र को स्वर दे कर अपने भीतर के उस मनुष्य की कही सुनाता हुआ दिख रहा है, जो अपनी किंकर्तव्यविंमूढ़ता और अपने विभ्रम को दायित्व का मुखौटा दे कर हर तरह के असहज कर्म को सार्थक बताने की कुटिल चाल चलता है. कहना न होगा, भीष्म महाभारत का एक क्लिष्ट पात्र है जो अपनी समस्त कमियों को सात्विकता का जामा पहनाता है. भीष्म की स्वामिभक्ति तक दोयम दर्ज़े की रही है. इसतरह के आचरण के अनुकरण के पश्चात स्वयं को ’धीरे-धीरे पल-पल मरते’ महसूस करना अतिशयोक्ति भी होगी क्या ? 
अंतिम बन्द तो मानो जीवन के सनातन स्वरूप को सापेक्ष करता हुआ अकर्म की दशा बताता हुआ है - जीने को है एक मरण बस / सहने को विकलांग नियति है ! 
मेरा आशय इतना ही है कि इतने से इस प्रस्तुति की गहनता समझी जा सकती है. 
इस नवगीत में जिस सार्थकता से पौराणिक पात्रों के माध्यम से आजके मनुष्य की मनोदशा को पूरी संवेदना के साथ सस्वर किय अगया है वह श्लाघनीय तो है ही, इस तरह् अके नवगीतों के प्रति अभ्यासरत रचनाकारों के लिए अनुकरणीय भी है. 
कथ्य और शिल्प की कसौटी पर एक सार्थक नवगीत केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय योगेन्द्र दत्त शर्माजी..
-सौरभ पाण्डेय

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